किसी भी देश या समाज की धरोहर उसके लिए न केवल गर्व का विषय, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी होती है। ये धरोहरें ही हैं जो राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों में नागरिकों का मार्ग प्रशस्त करती हैं। वैसे ये मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैं- मूर्त और अमूर्त। मूर्त धरोहर हमारी वे विरासत होती हैं, जो दृश्यमान होती हैं, जिन्हें हम देख सकते हैं, यानी विशाल भवन, मंदिर, ऐतिहासिक स्थल, स्मारक, हस्तशिल्प, साहित्य, किले आदि।
वहीं, अमूर्त धरोहरें हमारी समृद्ध परंपरा, लोकगीत, लोक-कथाएं, विश्वास, ज्ञान, भाषा और संस्कार आदि होती हैं। हालांकि, संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक परिषद (यूनेस्को) ने धरोहरों को तीन प्रकार का बताया है- प्राकृतिक विश्व धरोहर श्रेणी, सांस्कृतिक विश्व धरोहर श्रेणी और मिश्रित विश्व धरोहर श्रेणी।
इतिहास, सभ्यता, संस्कृति और हमारी पहचान को बनाए रखने में इन धरोहरों की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। इसलिए इनके संरक्षण का दायित्व केवल सरकारों या यूनेस्को जैसी वैश्विक संस्थाओं का नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को इनके संरक्षण को लेकर सावधान और जागरूक रहने की आवश्यकता है।
देखा जाए तो ये धरोहरें किसी भी राष्ट्र के वर्तमान और भविष्य की नींव होती हैं। ये हजारों वर्षों के ज्ञान, अनुभव और स्मृतियों का अनमोल उपहार या कहें कि खजाना होती हैं। मानव समाज की सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधता का परिचायक भी होती हैं। हमारी धरोहर हमें इतिहास से जोड़ती है। किसी भी देश और समाज की पहचान, वहां की सभ्यता, सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास आदि की न केवल जानकारी इन धरोहरों के माध्यम से प्राप्त होती है, बल्कि ये उन्हें हमेशा सजीव बनाए रखने का कार्य भी करती हैं। मानव सभ्यता और संस्कृति की ‘मूल’ ये धरोहरें अब हमारे गौरव और पहचान का ही नहीं, बल्कि आर्थिक समृद्धि का भी जरिया बन रही हैं।
दरअसल, इन धरोहरों को देखने और समझने के लिए लाखों पर्यटक प्रति वर्ष एक राज्य से दूसरे राज्य और एक देश से दूसरे देश की यात्रा करते हैं। इतना ही नहीं, ये धरोहर विभिन्न देशों, समाजों, समुदायों, सभ्यताओं और संस्कृतियों के बीच बेहतर संबंध बनाने में भी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। कई बार तो दो देशों के बीच कूटनीतिक संबंधों को भी ये मधुर एवं सुगम बनाने में सहायक साबित होती हैं। सच कहा जाए तो, इन सभी विशेषताओं के कारण ही आज दुनिया भर में धरोहरों के प्रति लोगों की ओर से प्राय: सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाए जाने लगे हैं।
विश्व धरोहर दिवस की शुरुआत यूनेस्को द्वारा 1983 के अप्रैल महीने में स्वीकृत किए गए एक प्रस्ताव से हुई थी। इसके अंतर्गत ‘अंतरराष्ट्रीय स्मारक एवं स्थल परिषद’ (आइसीओएमओएस) की ओर से यह मांग की गई थी कि विश्व की सभी सांस्कृतिक, प्राकृतिक एवं मिश्रित धरोहरों के संरक्षण और उनके प्रति सामान्य स्तर पर मानवीय जागरूकता का प्रचार-प्रसार करने के लिए प्रत्येक वर्ष 18 अप्रैल को विश्व धरोहर दिवस मनाने का प्रावधान किया जाए।
यूनेस्को ने भविष्य की पीढ़ियों को अपने पुरखों से मिली सांस्कृतिक धरोहरों से परिचय कराने तथा उनके प्रति प्रेम का भाव जगाने के लिए इस दिवस की रूपरेखा तैयार की और ‘विश्व विरासत या धरोहर दिवस’ के रूप में इसे मान्यता प्रदान की थी। तब से प्रति वर्ष ‘विश्व धरोहर दिवस’ या ‘विश्व स्मारक एवं स्थल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
सामान्यत: यूनेस्को द्वारा प्रति वर्ष एक खास दिन यानी 18 अप्रैल को विश्व के ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण कराया जाता है और लोगों को इनके संबंध में बताया जाता है। इनके संरक्षण एवं संवर्द्धन पर चर्चा की जाती है। साथ ही, इसी भावना के अनुरूप यूनेस्को द्वारा दुनिया भर की विभिन्न धरोहरों को चिह्नित कर उनकी एक ‘विश्व धरोहर सूची’ भी बनाई जाती है। इस सूची में शामिल की जाने वाली धरोहरों के संरक्षण के लिए यूनेस्को की ओर से सहायता भी दी जाती है।
हालांकि, विश्व धरोहर दिवस मनाने को लेकर पहला प्रयास 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान किया गया, जब संयुक्त राष्ट्र की मौजूदगी में विश्व प्रसिद्ध भवनों एवं प्राकृतिक स्थलों की रक्षा के लिए चर्चा की गई। फिर एक प्रस्ताव पारित हुआ और विश्व के लगभग सभी देशों ने मिल कर दुनिया भर के ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक धरोहरों को बचाने की शपथ ली। इस प्रकार, ‘यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज सेंटर’ अस्तित्व में आया। उसके बाद 18 अप्रैल, 1978 को पहली बार विश्व के कुल बारह स्थलों को विश्व विरासत स्थलों की सूची में शामिल किया गया। तब इस दिन को ‘विश्व स्मारक दिवस’ के रूप में मनाया जाता था।
बहरहाल, भारत में यूनेस्को द्वारा स्वीकृत कुल 43 विश्व धरोहर स्थल हैं, जिनमें से 35 सांस्कृतिक महत्त्व के लिए नामित हैं, जबकि सात स्थल प्राकृतिक सुंदरता के लिए विश्व भर में पहचाने जाते हैं। वहीं, एक अन्य विश्व धरोहर स्थल को संस्कृति एवं प्रकृति के मिश्रित स्वरूप के लिए दुनिया भर में सराहा जाता है, और वह है- कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान। दुनिया में केवल पांच देश ऐसे हैं, जिनके पास भारत से अधिक विश्व धरोहर स्थल मौजूद हैं। हमारे लिए गर्व की बात यह भी है कि यूनेस्को विश्व धरोहर समिति के छियालीसवें सत्र का आयोजन पिछले वर्ष भारत की राजधानी दिल्ली में किया गया, जिसकी अध्यक्षता भारत ने की।
पिछले वर्ष 26 जुलाई को ‘असम में मोइदाम’ को विश्व धरोहर समिति द्वारा भारत के तेंतालीसवें यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में चिह्नित किया गया। यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में शामिल होने वाले असम के ये मोइदाम राज्य के पहले सांस्कृतिक स्थल हैं। चराइदेव या चराइदेओ जिले में स्थित मोइदाम, अहोम राजवंश के अहम स्थल हैं, जिनमें ताई-अहोम के राजाओं और राजघराने के सदस्यों के अवशेष दफ्न हैं। ये मोइदाम, पिछली छह शताब्दियों में अहोम राजवंश की सांस्कृतिक एवं वास्तु-कला की प्रगति के प्रमाण रहे हैं।
गौरतलब है कि यूनेस्को की विश्व धरोहर समिति उन स्थलों का चयन कर उन्हें चिह्नित करने का कार्य करती है, जिन्हें बाद में यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों के रूप में सूचीबद्ध किया जाता है। विश्व धरोहर समिति में फिलहाल भारत, जापान, अर्जेंटीना, इटली, जमैका, बेल्जियम, बुल्गारिया, ग्रीस, कजाकिस्तान, केन्या, लेबनान, मैक्सिको, कतर, दक्षिण कोरिया, रवांडा, सेनेगल, तुर्की, यूक्रेन, वियतनाम और जांबिया शामिल हैं।
बहरहाल, दिल्ली में संपन्न यूनेस्को विश्व धरोहर समिति के छियालीसवें सत्र में विश्व धरोहर सूची में चौबीस नए धरोहर स्थलों को स्थान मिला है। अब यूनेस्को विश्व धरोहर सूची में अंकित स्थलों की कुल संख्या 1,223 पर पहुंच गई है। इनमें 952 सांस्कृतिक, 231 प्राकृतिक और 40 मिश्रित धरोहर स्थल शामिल हैं। यूनेस्को की सूची में सबसे अधिक 59 स्थलों के साथ इटली पहले स्थान पर है, जबकि 57 स्थलों के साथ चीन का स्थान दुनिया में दूसरा है। वहीं, भारत कुल 43 धरोहर स्थलों के साथ विश्व में छठे स्थान पर है।