आम लोग आर्थिक विकास की चर्चाओं में बहुत शामिल नहीं होते। मोटे तौर पर उन्हें वेतन में नियमित वृद्धि ही आर्थिक विकास के मद्देनजर सबसे अधिक आकर्षित करती है। बाकी सब मामलों में वे तभी प्रभावित होते हैं, जब उनका विपरीत प्रभाव उनके व्यक्तिगत जीवन पर पड़ता है। मसलन, महंगाई देश के आर्थिक विकास के लिए सबसे संवेदनशील मुद्दा हमेशा से रही है, पर एक आम व्यक्ति इससे तभी प्रभावित होता है, जब दैनिक उपयोग की वस्तुओं के मूल्य इतने ज्यादा बढ़ जाएं कि उनके उपभोग को उसे लगभग रोकना पड़े। अन्यथा तो वह महंगाई को आर्थिक चक्र का नियमित हिस्सा ही समझता है। पर अब आमजन को इस संकुचित दायरे से निकलना होगा।

आर्थिक विकास की जिम्मेदारी सरकारों के कंधों पर होती है

आर्थिक विकास की जिम्मेदारी सरकारों के कंधों पर होती है। हर वर्ष सरकारें आर्थिक विकास को तीन तरह के आंकड़ों से प्रस्तुत करती हैं- बजटीय, संशोधित तथा वास्तविक। इस संदर्भ में बजट के माध्यम से वे सपने दिखाती हैं। संशोधित बजट के माध्यम से बीते आठ या नौ महीनों के प्रदर्शन के आधार पर वे सपनों में बदलाव करती और नया वित्तवर्ष शुरू होने के बाद पिछले वर्ष के तुलनात्मक अध्ययन से वास्तविक स्थिति को प्रस्तुत करती हैं। तब आमजन अक्सर महसूस करता है कि उसके काफी सपने पूरे नहीं हुए। इसलिए आर्थिक विकास संबंधी नीतियों का अधिक दूरदर्शी होना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा उनका विश्लेषण सदा आर्थिक बोझ के रूप में ही रहेगा। यह भी विचित्र है कि सरकारों से इसका जवाब नहीं मांगा जाता कि बजट में पूंजीगत खर्चों के लिए आबंटित रकम वास्तविक धरातल पर बहुत कम क्यों उतरती है?

सरकारें वित्तीय घाटे के आंकड़े को लेकर ही सावधान रहती हैं

पूंजीगत खर्चों के आबंटन से ही आर्थिक आय के विभिन्न स्रोतों को पैदा किया और उन्हें बढ़ाया भी जा सकता है। पर अक्सर देखा जाता है कि सरकारें मात्र वित्तीय घाटे के आंकड़े को लेकर ही सावधान रहना चाहती हैं और साल के आखिरी दौर में उसके अंतर्गत हो रही वृद्धि को रोकने के लिए पूंजीगत खर्चों के लिए आबंटित रकम पर अपनी कैंची चलाकर निकली बचत के जरिए वित्तीय घाटे को कम करने की कोशिश करती हैं।
उत्तर प्रदेश और बिहार भारत की कुल आबादी में सताईस फीसद का प्रतिनिधित्व करते और सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों में पहले तथा दूसरे स्थान पर हैं।

इन दिनों उत्तर प्रदेश एक पिछड़े राज्य की अवधारणा को बड़ी तेजी से तोड़ रहा है, पर बिहार अब भी काफी पीछे है। बिहार के पिछड़ने का मुख्य कारण उसका केंद्र सरकार की आर्थिक सहायता पर अधिक निर्भर रहना और खुद के आय के स्रोत तुलनात्मक रूप से बहुत कम होना है। पर गौरतलब है कि बिहार, भारत के उन सत्रह राज्यों में शामिल नहीं है, जिन्हें केंद्र द्वारा राजस्व घाटे की पूर्ति के लिए आर्थिक सहायता दी जाती है। बिहार के बजट में वित्तीय घाटा जीडीपी का तीन फीसद अनुमानित था, लेकिन पिछले दिनों प्रस्तुत किए गए संशोधित बजट में अब इसे 8.9 फीसद अनुमानित किया गया है। यानी बजट के अनुमानित आधार से तीन गुना अधिक।

क्या यह बिहार की आर्थिक नीतियों में दूरदर्शिता के अभाव के कारण है? यकीनन ऐसा ही है। दरअसल, बिहार की आय का 73 फीसद हिस्सा केंद्र के अनुदानों से प्राप्त होता है। वह अनुदान बिहार के राजस्व घाटे की पूर्ति के लिए नहीं, बल्कि बिहार द्वारा केंद्र के सामने रखे गए कुछ प्रस्तावों के लिए सशर्त आर्थिक अनुदान है। चालू वित्तवर्ष में बिहार सरकार ने बजट में पचास हजार करोड़ रुपए का केंद्रीय अनुदान प्रस्तावित किया था, लेकिन अब तक उसे मात्र सोलह फीसद मिला है, जिसके चलते बिहार का राजकोषीय घाटा तीन गुना बढ़ गया। केंद्र के अनुदान में कमी का मुख्य कारण बिहार द्वारा आर्थिक सुधारों को उस तरह लागू न करना रहा है, जो अनुदान के विभिन्न प्रस्तावों में सम्मिलित था। चालू वित्तवर्ष समाप्त हो रहा है, इसके वास्तविक आंकड़े जब आएंगे तो बिहार सरकार का वित्तीय घाटा 8.9 फीसद से घट कर 4-5 फीसद के आसपास आ जाएगा। यह एक जादूगरी है और इससे पूंजीगत खर्चों के लिए आबंटित रकम को कम खर्च कर के वित्तीय घाटों को पूरा किया जाएगा।

उत्तर प्रदेश के वित्तीय आंकड़े अचंभित करते हैं कि इस राज्य के राजस्व में पिछले तीन वर्षों से लगातार बढ़ोतरी हो रही है। इसका वित्तीय घाटा भी 3.5 फीसद है, जो कि आरबीआइ तथा वित्त आयोग द्वारा प्रस्तावित सीमा से कम है। इसके अलावा, सबसे प्रशंसनीय बात है कि उत्तर प्रदेश सरकार खुद की आय के स्रोतों में लगातार बढ़ोतरी कर रही है। पूंजीगत खर्चों के लिए वहां एक लाख करोड़ रुपए का आबंटन किया गया था और बीते जनवरी माह तक इसका पचास फीसद धरातल पर उपयोग भी हो गया है। इसके चलते ही आने वाले समय में वहां वित्तीय आय के स्रोतों में और बढ़ोतरी देखने को मिलेगी। इससे रोजगार में वृद्धि होगी और निजी निवेश तथा विदेशी निवेश भी आकर्षित होगा।

पंजाब को भारत में एक विकसित राज्य के तौर पर जाना जाता है। माना जाता है कि यहां प्रति व्यक्ति आय बहुत अधिक है। यहां की ग्रामीण अर्थव्यवस्था सबसे अधिक विकसित है। भारत में सबसे अधिक महंगी कारों की बिक्री मुंबई, दिल्ली और चंडीगढ़ के बाद पंजाब के लुधियाना में होती है। यह भी कहा जाता है कि भारत में गुजरात के साथ-साथ पंजाब ही एक ऐसा सूबा है, जहां एनआरआइ से सबसे अधिक विदेशी मुद्रा का संग्रहण होता है, वह चाहे कनाडा से हो या फिर आस्ट्रेलिया और अमेरिका से। मगर पंजाब की अर्थव्यवस्था के आंकड़े हमें कुछ और ही बयान करते हैं।

यहां पर वर्तमान समय में राजकोषीय घाटा पांच फीसद के आसपास चल रहा है और राजस्व घाटा भी चल रहा है, जो जीडीपी का 2.8 फीसद है। इसी के चलते अब पंजाब भारत के उन सत्रह राज्यों में शामिल है, जिसे केंद्र को आर्थिक अनुदान बिना किसी शर्त के देना पड़ता है। पंजाब में राजस्व घाटे का मुख्य कारण वेतन, पेंशन तथा ब्याज पर 76 फीसद खर्च है। हैरानी वाली बात यह भी है कि इस खर्च में वेतन का हिस्सा 30 फीसद है, जबकि पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार की तुलना में जनसंख्या में बहुत छोटा राज्य है।

भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों द्वारा लगातार मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए आर्थिक सपने दिखाए जाते हैं। इसमें पंजाब भी जोरों-शोरों से सम्मिलित है। वर्तमान समय में वहां मुफ्त में बांटी जा रही बिजली का बिल बीस हजार करोड़ रुपए के बराबर है, जो पंजाब के राजस्व का 19 फीसद है। अब अगर पंजाब के वेतन, पेंशन तथा ब्याज के 76 फीसद खर्चों में मुफ्त बिजली के 19 फीसद को जोड़ दें, तो पंजाब के पास उसके राजस्व का मात्र पांच फीसद हिस्सा बाकी रहता है। इसीलिए पंजाब केंद्र पर पूर्णतया आश्रित है।