देश 2047 में आजादी की सौवीं वर्षगांठ मनाने की ओर बढ़ रहा है। पिछले दिनों जब नए माहौल में एक नई आर्थिक विकास यात्रा शुरू करने के वादों के साथ निर्माण यात्रा शुरू हुई, तो उसकी घोषणाओं में बहुत-सी ऐसी अधूरी बातें रह गईं, जिनका समाधान इतने दशक में भी नहीं मिल पाया है। सरकार की नई पारी की शुरुआत करते हुए घोषणा की गई कि देश में एक अखिल भारतीय सहकारी अभियान चलाया जाएगा, जिसमें कतार के हर आखिरी आदमी को भाग लेने का पूरा मौका मिलेगा। बेशक, सहकारिता की बातें बहुत वर्षों से सुनते आ रहे हैं। इसके नाम पर प्राथमिक सहकारी सोसाइटियों से लेकर केंद्रीय सहकारी बैंक भी बने हैं, लेकिन नतीजा उल्लेखनीय नहीं रहा। अब भी जब उम्मीद की जा रही थी कि सहकारिता का एक नया माहौल होगा, तो फिर भ्रष्टाचार और सहकारी योजनाओं के अधूरेपन के सत्य सामने आने लगे।
सहकारी बैंकों में कामकाज का स्तर बिगड़ा
पंजाब के विभिन्न इलाकों में सहकारी ‘मिल्क प्लांट’ खूब कोलाहल के साथ शुरू किए गए थे, वे अब करोड़ों रुपए के घाटे में क्यों चल रहे हैं। देश भर में नए आंदोलन के नाम पर सहकारी बैंकों की जो इकाइयां सामने आईं, पिछले दिनों वहां लेनदेन बंद हो गया, क्योंकि उपकरण सही नहीं थे। सर्वर काम नहीं कर रहा था और हिसाब-किताब पूरा नहीं था। मिश्रित अर्थव्यवस्था की घोषणा के साथ हमने अपने संविधान में आर्थिक प्रगति की सौगंध खाई थी। वादा था कि निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में संतुलन बनाया जाएगा। निजी क्षेत्र जहां आर्थिक तरक्की की ओर देखेगा, वहीं सार्वजनिक क्षेत्र जनकल्याण की परवाह करेगा, क्योंकि उसके सामने हर निवेश में लाभ कमाने की प्रवृत्ति नहीं होगी। हमने तरक्की के पायदान तो कई चढ़ लिए। पांचवीं आर्थिक महाशक्ति से दो-तीन वर्षों में दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति भी बनने जा रहे हैं, लेकिन इसका पूरा भरोसा निजी क्षेत्र के योगदान पर ही क्यों किया जा रहा है? सार्वजनिक क्षेत्र उपेक्षित हो रहा है, क्योंकि उसमें नौकरशाही और लालफीताशाही के बोलबाले पर पूरा नियंत्रण नहीं हो पाया।
सकल घरेलू आय में किसानों का योगदान कम
भ्रष्टाचार को शून्य स्तर पर लाने की बात छोड़िए, यहां सब चलता है, की संस्कृति हावी होने लगी। इधर संसद में नए आम बजट पर सत्ता पक्ष और विपक्ष से ठोस विचार-विमर्श की उम्मीद की जा रही थी, ताकि नई शासन पारी का नया वर्ष एक सार्थक शुरुआत बन सके। मगर इस पर राजनीति हावी होने लगी। आर्थिक समस्याओं पर चिंतन की जगह जातिवाद पर टीका-टिप्पणियों ने पूरे संवाद का मिजाज बिगाड़ दिया। कुछ सवाल थे, जो पूछे जाने चाहिए थे। देश के कर्णधारों से लेकर देश के विचारवान आर्थिक चिंतकों तक इन प्रश्नों के जवाब तलाश करने चाहिए। पहला सवाल तो यही होना चाहिए कि हम ‘जय जवान, जय किसान’ के साथ ‘जय अनुसंधान’ का नारा लगाते हैं, लेकिन इस अनुसंधान पर पर्याप्त खर्च का प्रावधान कहां है। हमारे कृषिप्रधान देश में आज भी आधे से थोड़ी कम जनसंख्या खेतीबाड़ी में लगी हुई है, लेकिन उसका योगदान सकल घरेलू आय में केवल पंद्रह फीसद क्यों है?
भारत के वित्तीय कर्णधारों ने भी कहा है कि भारत का विकास करना है तो कृषि में उत्पादकता और वक्त के मुताबिक बदलाव की अनुकूलता बढ़नी चाहिए। आज भी खेतीबाड़ी होती है, लेकिन ग्रामीण व्यवस्था में उनके अंतिम उत्पाद बनाने के छोटे कारखाने क्यों नहीं उभर सके? ये उभर आते तो लोगों को रोजगार मिलता। इस युवा देश की आधी जनसंख्या तो काम तलाशते युवाओं की है, जिन्हें अपनी ग्रामीण जड़ों के माहौल में काम नहीं मिलता और वे समुद्र पार अपने लिए रोजगार तलाशने पर मजबूर होते, या फिर सरकारी अनुकंपा यानी रेवड़ियां बांटने की घोषणाओं का इंतजार करते हैं। क्यों बड़े पैमाने पर ग्रामीण समाज में शोध कार्य शुरू नहीं किए गए?
नया आम बजट आया, लेकिन कृषि शोध की राशि बढ़ी नहीं। आंकड़ों के मुताबिक कृषि विकास दर पिछले वर्ष 4.7 फीसद थी, इस वर्ष घटकर 1.4 फीसद रह गई। यहां शोध राशि और कृषि जीडीपी का अनुपात बढ़ना चाहिए था, लेकिन 2008-09 में जो अनुपात 0.75 फीसद था, वह 2022-23 में घटकर 0.43 फीसद रह गया। कृषि अर्थशास्त्री तो समझाते रहे कि शोध बढ़ाओ, एक रुपए से दस रुपए प्राप्त होंगे। पर्यावरण अनुकूलित बीज लाओ, नई सिंचाई और बिजाई तकनीकों पर काम करो, लेकिन वह नहीं हुआ। पचास फीसद आबादी अब भी खेतीबाड़ी में लगी है और उत्पादकता दुनिया में औसत से काफी कम है। क्या इसकी चर्चा संसद या नीति आयोग के मंच पर नहीं होनी चाहिए थी?
दुर्भाग्य से नीति आयोग की बैठक राज्यों को धनराशि के आबंटन के नाम पर राजनीति का शिकार हो गई। संसद में तो इस सवाल को सही ढंग से उठाया ही नहीं गया, सिवाय इस बात के कि दो चहेते राज्यों को धन आबंटन कर दिया, शेष रीते हाथ रह गए। सत्तापक्ष की ओर से इस बावेले को बार-बार रद्द किया गया। क्या कारण है कि संसद में जो बहस बहुत ठोस और सार्थक होनी चाहिए थी, उनमें महंगाई पर नियंत्रण और नौकरी के लिए एक नई रोजगार नीति की घोषणा नहीं हुई? जहां तक महंगाई पर नियंत्रण का संबंध है, इस समय देश की मौद्रिक नीति इस दोराहे पर ठिठकी हुई है कि क्या उसे कीमत नियंत्रण उपायों का सहारा लेते हुए अपनी मौजूदा नीति पर ही ठहरे रहना चाहिए या कि देश विकास की नीति का विकल्प अपनाकर अपनी साख नीति को उदार बनाकर देश की आर्थिक विकास दर को बढ़ावा देना चाहिए।
बार-बार कहा जाता है कि विश्व महामंदी का सामना कर रहा है। भारत ने बाहुबली, आर्थिक रूप से संपन्न देशों की विकास दर को पछाड़ दिया है, लेकिन हम कुछ बातों का पूरी तरह से ध्यान क्यों नहीं कर पा रहे? महंगाई पर नियंत्रण हम नहीं कर पा रहे और हमने महंगाई के सूचकांकों की परिभाषा को अपनी सुविधानुसार बदल दिया है। महंगाई के सूचकांकों की नई रपटें अब खाद्य वस्तुओं की कीमतों को उपेक्षित करके घोषित हो रही हैं, क्योंकि लक्ष्य यही है कि किसी प्रकार कीमत की खुदरा दर को सुरक्षित चार फीसद तक लाया जाए। मगर एक बड़े सत्य की चर्चा क्यों नहीं हुई कि पिछले दिनों में थोक कीमत की दर, जो शून्य से नीचे चली गई थी, वह अचानक शून्य को पार करके ऊपर आ गई?
खाद्य वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि मौसम के तेवर के बदलने से कुलांचे भरकर आम आदमी की जिंदगी को दूभर क्यों करती हैं? उससे भी बड़ी बात कि जब थोक कीमतों के सूचकांक गिरावट दिखा रहे हैं, तो परचून कीमत सूचकांक उनका अनुसरण क्यों नहीं करते? उनका विरोधी तेवर क्यों बना रहता है? क्या इसका कारण खुदरा व्यापारियों पर कमी के मनोविज्ञान का सहारा लेकर चोरबाजारी करना है? अगर चोरबाजारी है तो उस पर नियंत्रण करने के लिए क्या कदम उठाने चाहिए, इनकी चिंता तो होनी चाहिए?
इसके अलावा, विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए कर रियायतों और छूटों की घोषणा हो जाती है, लेकिन घरेलू बचत और मध्यवर्गीय बचत को प्रोत्साहन देने के लिए कुछ नजर आने वाले कदम क्यों नहीं उठाए जाते? क्यों ऐसी बचतों पर कर बढ़ता हुआ नजर आता है, चाहे वह मामूली रूप से ही हो। यह आधा-अधूरा चिंतन देश के आर्थिक विकास की एक उदीयमान और संपूर्ण तस्वीर पेश नहीं करता। इसकी चिंता देश के विचारवान लोगों को करनी ही चाहिए।