दिल्ली में कचरे के ऐसे ठिकाने खतरनाक साबित हो रहे हैं, जो हवा के साथ जल-स्रोतों को भी प्रदूषित करते हैं। दरअसल, दिल्ली समेत समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कचरे के पहाड़ खड़े कर दिए गए हैं। इनसे निकलने वाली हानिकारक गैसों से एक बड़ी आबादी का जीना कठिन हो गया है। इन ठिकानों को हटाने और कचरे का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण करने के लिए विभिन्न संस्थाएं राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा चुकी हैं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा है।

अब मौसम के पूर्वानुमान की तर्ज पर कचरापट्टी पर ‘समय पूर्व चेतावनी तंत्र’ जैसी व्यवस्था होगी। इस कचरे से उत्सर्जित होने वाली ज्वलनशील मीथेन गैस को चिह्नित करने वाले डिटेक्टर भी लगाए जाएंगे। साथ ही इन ठिकानों के तापमान पर निगरानी रखने के लिए ‘नान कांटेक्ट इंफ्रारेड थर्मामीटर’ भी लगाए जाएंगे। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग ने इन ठिकानों पर आग लगने की घटनाओं को रोकने और इससे होने वाले प्रदूषण की रोकथाम के लिए आठ सूत्री निर्देश भी जारी किए हैं। दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान सरकार को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की सभी बड़ी कचरा पट्टियों पर इन निर्देशों का पालन करना होगा।

कचरे के ढेर में आए दिन अचानक आग लग जाती है

दिल्ली में गाजीपुर, भलस्वा तथा ओखला में कचरे के बड़े ढेर हैं। इनमें रोजाना हजारों टन कचरा डाला जाता है। इसके वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण के तकनीकी इंतजामों का अभाव साफ नजर आता है। राष्ट्रीय हरित पंचाट ने एक समिति का गठन कर उससे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कचरे से बिजली पैदा करने की संभावना तलाशने को कहा था, लेकिन दिल्ली सरकार, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड किसी परिणाम तक नहीं पहुंच पाए। कचरे के ढेर में अचानक आग लग जाती है, जिससे आसपास के क्षेत्र में वायु प्रदूषण बढ़ जाता है।

दरअसल, कचरा डालने से पहले प्लास्टिक, जैविक और जैव-चिकित्सा से जुड़े कचरे को अलग करने की व्यवस्था मौजूद नहीं है, जिससे ये ठिकाने सिर्फ कचरा जमा करने के मैदान बन कर रह गए हैं।

मीथेन गैस अत्यधिक ज्वलनशील होती है। कचरे के बड़े ठिकाने पर जमा जैविक कूड़े के विघटित होने से मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है। इस गैस में गंध और रंग नहीं होता। इस कारण इसके रिसाव का भी आसानी से पता नहीं चलता है। माना जाता है कि हवा में मीथेन की पांच से 15 फीसद की सांद्रता से भी आग लग सकती है। मीथेन ग्रीन हाउस गैस है। ऐसे में सबसे ज्यादा जरूरी है कि महानगरों में इस तरह के बड़े कचरे के ढेर खड़े करने से रोका जाए।

इसके लिए कचरे को अलग-अलग करने, उसका पुनर्चक्रण और उससे खाद एवं ईंधन तैयार करने पर विचार किया जाना चाहिए। गैसें उन स्थलों से उत्सर्जित होती हैं, जहां गड्ढों में शहर का कचरा भर दिया गया हो। इस कचरे में औद्योगिक कचरा भी शामिल हो, तो प्रदूषण की भयावहता और बढ़ जाती है।

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हमारे देश की नगरपालिकाएं और भवन-निर्माता गड्ढों वाली भूमि के समतलीकरण का बड़ा आसान उपाय इस कचरे से खोज लेते हैं। रोजाना घरों से निकलने वाले कूड़े और इलेक्ट्रानिक कचरे से इन गड्ढों को पाटने का काम बिना किसी रासायनिक उपचार के कर दिया जाता है। इस मिश्रित कचरे में मौजूद कई रसायन परस्पर संपर्क में आकर जब पांच-छह वर्ष बाद रासायनिक क्रियाएं करते हैं, तो इसमें से जहरीली गैसें पैदा होने लगती हैं।

कचरे के सड़ने से बनने वाली इन बदबूदार गैसों को वैज्ञानिकों ने कचरापट्टी गैसों के दर्जे में रखकर एक अलग ही श्रेणी बना दी है। दफन कचरे में भीतर ही भीतर जहरीला तरल पदार्थ जमीन की दरारों में रिसता है। यह जमीन के भीतर रहने वाले जीवों के लिए भी प्राणघातक होता है। भूगर्भ में निरंतर बहते रहने वाले जल-स्रोतों में मिलकर यह शुद्ध पानी को भी जहरीला बना देता है। गंधक के अनेक जीवाणुनाशक यौगिक भूमि में फैलकर उसकी उर्वरा क्षमता को नष्ट कर देते हैं।

आधुनिक जीवन शैली के कारण भी बहुत अधिक कचरा पैदा हो रहा है। इसलिए भारत ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर विकसित और विकासशील देश कचरे को ठिकाने लगाने की समस्या से जूझ रहे हैं, लेकिन ज्यादातर विकसित देशों ने समझदारी बरतते हुए इस कचरे को जमीन के भीतर दफना कर नष्ट कर देने पर रोक लगा दी है। पहले इन देशों में भी इस कचरे को धरती में दफना देने की छूट थी। मगर जिन-जिन क्षेत्रों में यह कचरा दफनाया गया, वहां कचरापट्टी गैसों के उत्सर्जन से पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित होकर खतरनाक बीमारियों का जनक बन गया।

जब ये रोग लाइलाज बीमारियों के रूप में पहचाने जाने लगे, तो इन देशों का शासन-प्रशासन जागा और उसने कानून बना कर औद्योगिक और घरेलू कूड़े-कचरे को अपने देश में दफन करने पर सख्त प्रतिबंध लगा दिए। तब इन देशों ने इस कचरे को ठिकाने लगाने के लिए अन्य विकासशील देशों की तलाश की। दुनिया के कई देश अपना औद्योगिक कचरा भारत के समुद्री तटवर्ती इलाकों में जहाजों से भेजते हैं। इन देशों में अमेरिका, चीन, ब्राजील, आस्ट्रेलिया, जर्मनी और ब्रिटेन प्रमुख हैं।

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ऐसे ही कारणों से कचरापट्टी गैंसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। इन गैसों के संपर्क में आने से दमा, सांस और त्वचा रोग के साथ एलर्जी बढ़ रही हैं। कचरे के ढेरों से होने वाले प्रदूषण की वजह से गर्भ में पल रहे शिशु तक का स्वास्थ्य प्रभावित होता है। नियमानुसार कचरा मैदानों में भवन निर्माण का सिलसिला पंद्रह वर्ष बाद होना चाहिए। इस लंबी अवधि में कचरे के सड़ने की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। गैसों का उत्सर्जन भी समाप्त हो जाता है और जल में घुलनशील तरल पदार्थ का बनना भी बंद हो जाता है।

मगर प्रकृति की इस नैसर्गिक प्रक्रिया के पूरी होने से पहले ही हमारे यहां जमीन के समतल होने के तत्काल बाद ही आलीशान इमारतें खड़ी करने का सिलसिला शुरू हो जाता है। जिसका नतीजा उस क्षेत्र में रहने वाली आबादी को भुगतना पड़ता है।
इस औद्योगिक व घरेलू कचरे को नष्ट करने के प्राकृतिक उपाय भी सामने आ रहे है। हालांकि हमारे देश के ग्रामीण अंचलों में घरेलू कचरे और मानव एवं पशु मल-मूत्र को प्रसंस्करण कर खाद बनाने की परंपरा रही है।

एक ऐसा ही अनूठा प्रयोग औद्योगिक एवं घरेलू कचरे को खत्म करने के लिए सामने आया है। अभी तक हम केंचुओं का इस्तेमाल खेतों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए ‘वर्मी कंपोस्ट खाद’ के निर्माण में करते रहे हैं। अब औद्योगिक कचरे को केंचुओं से निर्मित ‘वर्मी कल्चर’ से ठिकाने लगाने का सफल प्रयोग हुआ है। अहमदाबाद के निकट मुथिया गांव में एक परियोजना शुरू की गई है।

इसके तहत जमा साठ हजार टन कचरे में पचास हजार केंचुए छोड़े गए थे। चमत्कारिक ढंग से केंचुओं ने इस कचरे का सफाया कर दिया। फलस्वरूप यह स्थल पूरी तरह प्राकृतिक ढंग से जहरीले प्रदूषण से मुक्त हो गया। कचरापट्टी गैसों से निजात दिलाने के लिए कचरे को नष्ट करने के कुछ ऐसे ही प्राकृतिक उपाय अमल में लाने होंगे, ताकि आसपास के क्षेत्रों की आबादी का जीवन सुरक्षित हो सके।