वन्य जीवों पर होने वाली क्रूरता से जाहिर है कि हम इस प्रगतिशील दौर में सिर्फ सभ्यता का मुखौटा लगाए हुए हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज वन्य जीवों पर विभिन्न तौर-तरीकों से संकट के बादल मंडरा रहे हैं। भारत समेत संपूर्ण विश्व में वन्य जीवों की संख्या तेजी से घट रही है। इससे हमारे पर्यावरण के लिए नित नई समस्याएं पैदा हो रही हैं। अपने स्वार्थ के चलते मनुष्य द्वारा किए गए प्राकृतिक दोहन का नतीजा यह हुआ कि बीते चालीस वर्षों में पशु-पक्षियों की संख्या घटकर एक तिहाई रह गई। दरअसल, समृद्ध वन्य जीवन पर्यावरण को पोषकता तो प्रदान करता ही है, हमारे जीवन पर भी सकारात्मक प्रभाव डालता है। विडंबना है कि वन्य जीवों के संकट को देखते हुए भी हम अपनी जीवन-शैली को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं।

वन्य जीवन पर गहराता संकट पर्यावरण के साथ-साथ भाषा और संस्कृति को भी नष्ट कर रहा है। कुछ वर्ष पहले हुए एक अध्ययन में दावा किया गया था कि जैवविविधता की हानि दुनिया में भाषाओं और संस्कृतियों के नष्ट होने के लिए जिम्मेदार है। अमेरिका की पेन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया था कि पृथ्वी के जैवविविधताओं वाले उच्च क्षेत्रों में उच्च भाषाई विविधता भी होती है। यहां तक कि विश्व की सत्तर फीसद भाषाएं उच्च जैवविविधता वाले स्थलों पर पाई जाती हैं।

आंकड़े बताते हैं कि इन प्रमुख पर्यावरणीय क्षेत्रों में समय के साथ संस्कृति और भाषाओं के स्तर में गिरावट आई है। शोध प्रमुख लैरी गोरेंफ्ला के अनुसार हमने ताजा भाषाई आंकड़ों के उपयोग से इस बारे में गहराई से जानने का प्रयास किया कि भाषाओं और जैवविविधता का आपसी संबंध क्या है। साथ ही यह समझने की कोशिश की कि भाषा का भौगोलिक रूप से विस्तार कैसा है। दरअसल, इस दौर में जैवविविधता, भाषा और संस्कृति के साथ-साथ पर्यावरण पर जिस तरह से प्रभाव डाल रही है उससे संकेत मिलता है कि भविष्य में हमें अनेक खतरों का सामना करना पड़ेगा।

दरअसल, पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक आवास में ही अपने आप को सुरक्षित महसूस करते हैं। प्राकृतिक आवास में ही इनकी जैविक क्रियाओं में संतुलन बना रहता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में विभिन्न कारणों से पक्षियों का प्राकृतिक आवास उजड़ता जा रहा है। बढ़ते शहरीकरण और उद्योगीकरण के कारण वृक्ष लगातार कम होते जा रहे हैं। बाग-बगीचे उजाड़ कर इन जगहों पर खेती-बाड़ी की जा रही है। जलीय पक्षियों का प्राकृतिक आवास भी सुरक्षित नहीं बचा है। इन्हीं सब कारणों से किसी एक निश्चित जगह पर स्थापित होने के लिए पक्षियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है। एक ओर पक्षी मानवीय लोभ की भेंट चढ़ रहे हैं, तो दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन के कारण इनकी संख्या लगातार घट रही है।

इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि तमाम नियम-कानूनों के बावजूद पक्षियों का शिकार और अवैध व्यापार किया जा रहा है। लोग सजावट, मनोरंजन और घर की शान बढ़ाने के लिए तोते तथा रंग-बिरंगी गौरैया जैसे पक्षियों को पिंजरों में कैद रखते हैं। इसके साथ ही तीतर जैसे पक्षियों का शिकार किया जाता है। पक्षी विभिन्न रसायनों और जहरीले पदार्थों के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। ऐसे पदार्थ भोजन या फिर पक्षियों की त्वचा के माध्यम से पक्षियों के अंदर पहुंचकर उनकी मौत का कारण बनते हैं। विभिन्न कीटनाशक और खर-पतवार खत्म करने वाले रसायन पक्षियों के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो रहे हैं। मोर जैसे पक्षी कीटनाशकों की वजह से काल के गाल में समा रहे हैं। पर्यावरण को स्वच्छ रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला गिद्ध पशुओं को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा की वजह से मौत का शिकार हो रहा है। गिद्ध मरे हुए पशुओं का मांस खाकर पर्यावरण साफ रखने में मदद करता है। पशुओं को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा के अंश मरने के बाद भी पशुओं के शरीर में रह जाते हैं। जब इन मरे हुए पशुओं को गिद्ध खाते हैं तो यह दवा गिद्धों के शरीर में पहुंचकर उनकी मौत का कारण बनती है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में हमारे घर-आंगन में गौरैया कहीं दिखाई नहीं देती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि भोजन में कमी, घोंसलों के निर्माण के लिए उचित जगह न मिल पाना तथा माइक्रोवेव प्रदूषण जैसे कारक गौरैया की घटती संख्या के लिए जिम्मेदार हैं। शुरुआती पंद्रह दिनों में गौरैया के बच्चों का भोजन मुख्य रूप से कीट-पतंगे ही होते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि गौरैया के बच्चों के आसपास भोजन के रूप में कीट-पतंगों की संख्या कम होने के कारण उनकी मृत्यु दर बढ़ रही है।

दरअसल, इस दौर में हम अपने बगीचों में सुंदरता बढ़ाने के लिए विदेशी या फिर ऐसे पौधों को ज्यादा उगाने लगे हैं, जो प्राकृतिक रूप से उस जगह पर नहीं उगते हैं। ऐसे पौधे स्थानीय पौधों की तुलना में उस जगह पर रहने वाले कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाते हैं। साथ ही, इन पौधों को ज्यादा रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक रसायनों की आवश्यकता होती है। ये रसायन वातावरण को प्रदूषित कर लाभकारी सूक्ष्मजीवों और कीट-पतंगों को भी खत्म कर देते हैं। ऐसी स्थिति में गौरैया जैसे पक्षियों के लिए भोजन की कमी हो जाती है। इसलिए आज आवश्यकता है कि हम अपने आसपास स्थानीय पौधों को ज्यादा उगाएं। ऐसे पौधों को रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक रसायनों की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती और वे स्थानीय कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित करने में भी सफल रहते हैं।

इस दौर में गौरैया जैसे पक्षियों के साथ-साथ तोते पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। गौरतलब है कि विश्व में तोते की लगभग 330 प्रजातियां ज्ञात हैं। अगले सौ सालों में इनमें से एक तिहाई प्रजातियों के विलुप्त होने का अनुमान है। भारत में जिन पक्षियों के अस्तित्व पर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है उनमें उपरोक्त पक्षियों के अलावा ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, गुलाबी सिर वाली बत्तख, हिमालयी बटेर, साइबेरियाई सारस, बंगाल फ्लेरिकन और उल्लू आदि प्रमुख हैं।

दरअसल, जब भी जीवों के संरक्षण की योजनाएं बनती हैं तो बाघ, शेर तथा हाथी जैसे बड़े जीवों के संरक्षण पर तो ध्यान दिया जाता है, लेकिन पक्षियों के संरक्षण को अपेक्षित महत्त्व नहीं दिया जाता है। वृक्षों की संख्या में वृद्धि, जैविक खेती को प्रोत्साहित तथा माइक्रोवेव प्रदूषण को कम करके काफी हद तक पक्षियों को विलुप्त होने से बचाया जा सकता है। पक्षियों के संरक्षण के लिए सरकार को भी कुछ ठोस योजनाएं बनानी होंगी। अब समय आ गया है कि सरकार और हम सब मिलकर जीवों को बचाने का सामूहिक प्रयास करें। हमें यह समझना होगा कि जीवों के प्रति क्रूरता स्वयं हमारे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा सकती है।