भारतीय शिक्षा व्यवस्था दुनिया की वृहद व्यवस्थाओं में से एक है। लगभग साढ़े छब्बीस करोड़ विद्यार्थी, जो स्कूल योग्य उम्र के कुल बच्चों का चौहत्तर फीसद है, भारतीय स्कूलों में नामांकित हैं। इस व्यापक व्यवस्था के बनने में कई ऐतिहासिक पड़ाव रहे हैं, जो फिलहाल पौने तेरह करोड़ लड़कियों और पौने चौदह करोड़ लड़कों को शिक्षा प्रदान करती है। इसमें कुल स्कूलों की संख्या करीब चौदह लाख है, जिसमें साढ़े बाईस फीसद निजी स्कूल हैं। इसमें अगर प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों के बीच के अंतर को नजरअंदाज भी कर दें, जो प्राइमरी स्कूलों की संख्या (लगभग बारह लाख) का मात्र साढ़े बारह फीसद (लगभग डेढ़ लाख) है, तो भी लगभग सात करोड़ विद्यार्थी माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में अध्यनरत हैं।
कोचिंग का बाजार लगभग अट्ठावन हजार करोड़ रुपए का है
यह संख्या एक बड़े व्यापार को ग्राहक मुहैया कराती है, जो ट्यूशन और कोचिंग के नाम से एक नए तंत्र की संरचना करती है। साथ ही, उच्च शिक्षा के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षाएं और नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं भी इस व्यापार को उर्वर जमीन मुहैया कराती हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में सत्ताईस फीसद और शहरी क्षेत्रों में अड़तीस फीसद विद्यार्थी माध्यमिक स्तर पर ट्यूशन या कोचिंग ले रहे हैं। पिछले केवल चार वर्षों (2018 से 2022) में निजी ट्यूशन केंद्रों की संख्या में बारह फीसद की बढ़ोतरी हुई है। मौजूदा आकलन के अनुसार कोचिंग का बाजार लगभग अट्ठावन हजार करोड़ रुपए का है, जिसके 2028 तक एक लाख चौंतीस हजार करोड़ रुपए का हो जाने का अनुमान है। इन आंकड़ों के बीच कई प्रश्न उठते हैं।
देश में कोचिंग केंद्रों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है
मसलन, क्या इन कोचिंग केंद्रों की बढ़ती संख्या मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता पर आक्षेप है? इन केंद्रों में ऐसा क्या पढ़ाया जाता है जो स्कूलों और महाविद्यालयों में नहीं पढ़ाया जा रहा है? ज्ञान के ऐसे कौन-से सोपान और घटक हैं, जो स्कूली या इसके संस्थानीकरण में छिटक और इन ट्यूशन और कोचिंग केंद्रों द्वारा समेटे जाते हैं? इन केंद्रों में पढ़ाने वाले अध्यापक कौन-सी शिक्षण विधि अपना रहे हैं, जिससे सौ फीसद अधिगम होने की संभावना रहती है और यह शिक्षण विधि हमारे स्कूली और महाविद्यालयी अध्यापकों से क्यों अछूती रहती है? क्या स्कूलों और महाविद्यालयों में संरचनागत ढांचों और संसाधनों का ऐसा अभाव है, जहां कारगर शिक्षण अधिगम नहीं हो पा रहा है? अध्यापक-विद्यार्थी अनुपात भी 1:27 है, फिर किन वजहों से पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि और मूल्यांकन की संस्थागत प्रक्रियाएं वह ज्ञान और शिक्षा विद्यार्थियों को मुहैया नहीं करा पा रही हैं, जिनके लिए उन्हें ट्यूशन और कोचिंग की राह पकड़नी पड़ती है?
कोचिंग संस्थान में अलग तरह की शिक्षा दी जा रही है
क्या स्कूल और तमाम शिक्षा के केंद्र, ज्ञान के किसी ऐसे स्वरूप से अनभिज्ञ हैं, जो उसे अधिक वांछनीय और उपयोगी बनाता है? परीक्षाएं अगर ज्ञान के वस्तुनिष्ठ स्वरूप को वैध करार देती हैं, तो यह वस्तुनिष्ठता क्या स्कूल द्वारा पोसी नहीं जाती है? और अगर वस्तुनिष्ठता का पोषण इन वैध शिक्षण संस्थाओं में होता है, तो कोचिंग या ट्यूशन केंद्र जैसे राज्येतर कारक शिक्षा और ज्ञान को लेकर ऐसा व्यापक हस्तक्षेप कैसे कर पा रहे हैं?
क्या यह ज्ञान के उत्तर-आधुनिकीकरण का संकेत है, जहां ज्ञान का सूचना मात्र में तब्दील हो जाना है और यह कोचिंग संस्थान बखूबी कर पाते हैं और ज्ञान/ सूचना के रटने के नवाचारी तरीके इजाद कर लेते हैं, जो स्कूल या महाविद्यालय में संभव या वांछनीय नहीं है।
अभी तीन दशक पहले तक जो विद्यार्थी ट्यूशन पढ़ते थे उनकी अकादमिक क्षमता कमतर मानी जाती थी और ट्यूशन या कोचिंग को निदानात्मक ज्ञान केंद्र के रूप में ही मान्यता थी। बाजार के उदारीकरण के साथ ही ज्ञान और शिक्षा के उदार स्वरूप ज्ञान ने एक ‘वस्तु’ का आकार ले लिया, जिसका विनिमय निश्चित शुल्क के साथ किया जा सके। वैसे तो ज्ञान कभी भी मुफ्त और निशुल्क नहीं रहा। सदा राज्य के संरक्षण पर आश्रित रहा है, पर इस नवउदारीकरण के दौर में ज्ञान और इसका वस्तुकरण एक सुनिश्चित ‘गारंटी’ के साथ आने लगा, जिसकी बानगी उन लंबे-चौड़े होर्डिंगों पर देखी जा सकती है, जिनमें विद्यार्थियों के चित्र उनकी सफलता और उपलब्धि के साथ घोषित करते हुए यह आश्वासन देते हैं कि अगर आप हमारी संस्था में कोचिंग लेंगे, तो अगला चित्र आपका होगा।
इस पूरी प्रक्रिया ने ज्ञान का वह स्वरूप निर्मित किया, जिसमें ज्ञान के रचे जाने के वैयक्तिक उपक्रम को रटे जाने मात्र से विस्थापित कर दिया। साथ ही एक और नया बाजार रचा, जिसमें कुछ खाद्य पदार्थ और पेय बुद्धि लब्धि बढ़ाने और मेमोरी चार्जर (स्मृति आवेशक) होने का दावा करने लगे। इन सब सुविधाओं से परिपूर्ण होने पर अगर छात्र सफल नहीं होता तो यह व्यवस्था की नहीं, उसकी निजी विफलता मानी जाती है। 2021 के राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार उस वर्ष तेरह हजार विद्यार्थियों ने इस ‘विफलता’ के चलते आत्महत्या की। यानी प्रतिदिन पैंतीस विद्यार्थी जीने की इच्छा खो देते हैं।
यह पूरी व्यवस्था इतनी विकट बन चुकी है कि सरकार को विधेयक लाकर नियमन करना पड़ा कि सोलह वर्ष से कम आयु के विद्यार्थी को किसी भी कोचिंग केंद्र में प्रवेश नहीं दिया जा सकेगा, पर इस तरह के औपचारिक नियम और अधिक गैर-विधिक प्रक्रियाओं को जन्म देंगे। ‘सा विद्या या विमुक्तये’ की पौराणिक सूक्ति को भारतीय शिक्षा विमर्श में न जाने कब सफलता और नौकरी की गारंटी में अनूदित कर दिया गया! शिक्षा और ज्ञान के डिजिटलीकरण ने भी एक भिन्न दुनिया की रचना की है। मशीनी मेधा के युग में मानवीय मेधा की प्रतियोगिता अब दूसरे मानव से न होकर मशीन से हो गई है। शिक्षा की मशीनी प्रक्रिया शायद हमें सक्षम और सफल भले बना दे, पर इससे निर्मित होने वाली मनुजता को हम अवश्य खो देंगे।
इन तमाम परीक्षा, सफलता आश्वासन केंद्रित संस्थानों ने सारे ज्ञान को ‘सामान्य ज्ञान’ में बदल दिया है। विशिष्ट ज्ञान और समझ को व्यक्तिगत समझकर खारिज कर दिया है। ज्ञान के इस वाणिज्यीकरण से गलाकाट प्रतियोगिता तो पनप सकती है, पर ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का दर्शन नहीं। यह वाणिज्यीकरण ज्ञान और सत्य के एकाकार को भी चुनौती देता है और सत्यान्वेषण को भी। शिक्षा और आर्थिक गतिशीलता के सह-संबंध को सामाजिक मान्यता पहले से प्राप्त है।
कोचिंग और ट्यूशन केंद्र उसे नैतिक मान्यता प्रदान करते हैं। शिक्षा और ज्ञान के साहचर्य से होने वाले अन्योन्याश्रित व्यक्ति और व्यक्तित्व के विकास को नजरअंदाज कर ज्ञान का वाणिज्यीकरण ज्ञान को मात्र ज्ञान या सूचना भर मान लेना स्थापित करता है। स्कूलीकरण, शिक्षा और ज्ञान हमारे निर्णय और चयन की क्षमता में संवर्धन करते और इसके बरक्स रटंत ज्ञान केवल एक सुनिश्चित तरह का प्रदर्शन या अदाकारी सिखाता है। ज्ञान और ज्ञाता, अधिगम और व्यवहार का ऐसा विछोह इस संकट को और गहराएगा और इस वाणिज्यीकरण की प्रक्रिया में तेजी लाएगा।