केंद्र सरकार के कार्मिक मंत्रालय ने उपभोक्ता मंत्रालय के सुझाव पर कोचिंग संस्थानों पर अंकुश लगाने के लिए कुछ नियम जारी किए हैं। चुने हुए उम्मीदवारों के लिए आदेश हैं कि वे नियुक्ति पत्र मिलने के बाद किसी भी कोचिंग संस्थान से कोई संपर्क नहीं रखेंगे। यानी कि उनके नाम का इस्तेमाल कोई भी कोचिंग संस्थान नहीं करेगा। तात्कालिक कारण यूपीएससी द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थानों द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर किए गए विज्ञापन आदि हैं। मंत्रालय की विशेष आपत्ति इस बात को लेकर है कि चुने हुए उम्मीदवारों के नाम दर्जनों कोचिंग संस्थानों द्वारा विज्ञापित किए जाते हैं, जिससे प्रभावित होकर इन संस्थानों में देशभर से बच्चों की भीड़ उमड़ती है। मसलन, वर्ष 2022 में लगभग नौ सौ उम्मीदवार चुने गए थे, जबकि कोचिंग संस्थानों द्वारा साढ़े तीन हजार उम्मीदवारों के विज्ञापन सामने आए।

कोचिंग उद्योग का वार्षिक कारोबार करीब साठ हजार करोड़ रुपए

सिविल सेवा परीक्षा देश की प्रशासनिक नौकरियों जैसे आइएएस, आइपीएस, राजस्व, रेलवे में अफसरों की भर्ती के लिए सर्वोच्च परीक्षा है, जिसमें हर साल लगभग बारह लाख विद्यार्थियों में से लगभग नौ सौ चुने जाते हैं। जाहिर है, इसके लिए नौजवान पीढ़ी और उससे ज्यादा उनके अभिभावक कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। इसी का विकल्प कोचिंग संस्थान बनते जा रहे हैं। गौरतलब है कि अच्छी पढ़ाई की तलाश में केवल सिविल सेवा परीक्षा के लिए कोचिंग संस्थान नहीं हैं, उससे कई गुना ज्यादा आइआइटी, मेडिकल, आइआइएम से लेकर बैंक अधिकारी, शिक्षक बनने से लेकर पिछले दो वर्ष से शुरू हुई केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश परीक्षा के लिए भी देश भर में हजारों कोचिंग संस्थान चल रहे हैं और प्रतिवर्ष इनमें तेजी से वृद्धि हो रही है। एक अनुमान के अनुसार कोचिंग उद्योग का वार्षिक कारोबार लगभग साठ हजार करोड़ रुपए है।

शिक्षा व्यवस्था की खामियों का फायदा उठा रहे हैं निजी संस्थान

मगर हर वर्ष यह धंधा बढ़ता क्यों जा रहा है? क्या इसके लिए जिम्मेदार केवल कोचिंग संस्थान हैं? दरअसल, इसके लिए जिम्मेदार हमारी शिक्षा-व्यवस्था है। जब बिहार और उत्तर प्रदेश के स्कूलों में शिक्षक मौजूद नहीं हैं, अगर हैं भी तो ‘प्रथम’ की अभी हाल में आई रपट के अनुसार गणित में वे शिक्षक पढ़ा रहे हैं, जिनके पास गणित की डिग्री नहीं है और अंग्रेजी वे पढ़ा रहे हैं, जो अंग्रेजी में स्कूल का नाम भी गलत लिखते हैं। उनके भवन में न शौचालय है और न ढंग की छत। जहां एनसीईआरटी की किताबें समय से उपलब्ध नहीं होती हैं, तो आखिर इन बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए विकल्प क्या रह जाता है?

अब तो दिल्ली के स्कूलों में बिहार का पूरा मलाईदार तबका स्कूली शिक्षा के लिए भी आने लगा है। इसीलिए जिन राज्यों की शिक्षा व्यवस्था जितनी जर्जर हो चुकी है, विशेष कर सरकारी स्कूलों की, वहां उतने ही नुक्कड़ निजी स्कूल और कोचिंग केंद्र बढ़ रहे हैं।

एक अनुमान के अनुसार पचास वर्ष पहले जहां लगभग नब्बे फीसद से ज्यादा समान सस्ती शिक्षा सरकारी स्कूलों में मिलती थी, अब वह पैंतालीस फीसद से भी कम हो गई है और यह सभी राज्यों में है। एक नए आदेश के अनुसार कोचिंग संस्थानों को यह हिदायत दी गई है कि वे सोलह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को प्रवेश नहीं दे सकते। क्या नीति निर्माताओं को यह नहीं पता कि कोचिंग संस्थान केवल महानगरों और बड़े-बड़े भवनों में नहीं चलते, गली के हर नुक्कड़ पर चल रहे हैं? कैसे अंतर किया जाएगा, घर के ट्यूशन और इन बड़े संस्थानों के ट्यूशन में? आज से तीस-चालीस साल पहले सबसे कमजोर बच्चा ट्यूशन की तलाश में होता था, वह भी विशेष कर दसवीं-बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं में तैयारी के लिए। फिर शुरुआत इंजीनियरिंग कालेज आदि के लिए हुई, लेकिन गिरते स्तर से अब ट्यूशन का रोग पहली कक्षा से भी पहले तक पहुंच चुका है।

तीस वर्ष पहले शिक्षाविद और वैज्ञानिक प्रोफेसर यशपाल ने ‘बस्ते का बोझ’ रपट में ट्यूशन को शिक्षा के लिए बहुत खतरनाक माना था। सरकारों ने उस रपट को किसी और बस्ते में बंद करके रख दिया है। क्या सरकार और शिक्षा अधिकारी इस बीमारी से परिचित नहीं है? निश्चित रूप से राज्य के स्तर पर डीएम और शिक्षा अधिकारी इस समस्या पर काबू पा सकते हैं। मगर आंकड़े बताते हैं कि अस्सी फीसद से ज्यादा डीएम शायद ही कभी किसी स्कूल का निरीक्षण करते हों। यही हाल उनके अधीन काम करने वाले शिक्षा अधिकारियों का है।

जब नौकरियां कम हों, बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में अच्छे कालेज-विश्वविद्यालय पर्याप्त न हों और जहां भर्ती से ज्यादा छंटनी की शिक्षा हो, जहां ज्ञान से ज्यादा परीक्षा पर जोर हो, जहां किसी भी पार्टी के घोषणा-पत्र में शिक्षा सुधार की बात ही न हो, वहां कोचिंग संस्थानों की बाढ़ नहीं आएगी तो क्या होगा?

अच्छे शिक्षकों के स्तर की बात, कोचिंग संस्थानों के बढ़ने का सबसे मुख्य कारण है। कोचिंग केंद्र अपने संस्थान की प्रतिष्ठा के लिए एक से एक अच्छे शिक्षक को मुंहमांगी तनख्वाह देकर उन्हें रखते और लगातार ऐसे शिक्षकों की तलाश में रहते हैं। बच्चों से ‘फीडबैक’ रोजाना ली जाती है, वरना बाहर। न वहां जाति देखी जा रही, न धर्म, न क्षेत्र और यही शिक्षक स्टार, सुपरस्टार बने हुए हैं। कम से कम प्रतिभावान शिक्षकों को पढ़ाने का अच्छा मौका तो मिल रहा है! क्या आक्सफर्ड, कैंब्रिज और अमेरिका के विश्वविद्यालय इसी वरीयता क्रम के बूते दुनिया भर के छात्रों को आकर्षित नहीं कर रहे? अगर कोचिंग संस्थानों पर लगाम लगानी है, तो उतनी ही लगाम की जरूरत हर साल विदेश में पढ़ने जाने वाले छात्रों पर भी लगाने की पड़ेगी। आखिर वे भी विदेश की तरफ क्यों भागते हैं?

आइआइटी, आइआइएम जैसे संस्थानों में पिछले दस वर्षों से लगातार यह सुनने में आ रहा है कि पचास फीसद से ज्यादा पद खाली पड़े हुए हैं। अगर उन्हें भरने में उपयुक्त योग्यता वाले नहीं मिल पाए तो विशेष परिस्थितियों में किसी पद को अनारक्षित करने की बात भी सरकार को गवारा नहीं होती।

कैसी विडंबना है कि सरकारी केंद्रीय विश्वविद्यालयों से लेकर कालेजों तक में एक-एक पद जाति के हिसाब से लड़ने-मरने वाले अपने बच्चों को उन कोचिंग संस्थानों में भेजते हैं, जहां ऐसा कोई आरक्षण और ‘रोस्टर’ नहीं होता। इन सभी पाटों के बीच हमारी नई नौजवान पीढ़ी पिस रही है। दिसंबर के संसद सत्र में लोकसभा में दिए गए प्रश्न के उत्तर में वर्ष 2019 से 2021 के तीन वर्षों में पैंतीस हजार छात्रों ने आत्महत्या की है। कितना दुखद है यह सब! अकेले कोटा शहर में पिछले वर्ष पैंतीस आत्महत्याएं हुईं और इस वर्ष जनवरी के अंतिम सप्ताह में दो छात्र आत्महत्या कर चुके हैं।
हमारी स्कूली शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा व्यवस्था ठीक हो जाए, तो न बच्चे कोचिंग संस्थानों की तरफ लपकेंगे और न करोड़ों का कर्ज लेकर विदेश पढ़ने भागेंगे। इसे समझने की जरूरत है।