दुनिया भर के वैज्ञानिक अब अनुभव कर रहे हैं कि आधुनिक औद्योगिक विकास के जिस रास्ते पर हम जा रहे हैं, वह विकास के साथ-साथ विनाश की ओर ले जा रहा है। आज भारत के तमाम शहर और कस्बे वाहनों के कारण जाम, धूल-धुआं और गहरे प्रदूषण के शिकार हो गए हैं। जहां सांस लेने के लिए न शुद्ध हवा है और न पीने के लिए साफ पानी। हमारी फसलें और सब्जियां भी खतरनाक कीटनाशकों से ग्रस्त हैं। उधर, कई देशों के बीच चल रही जंग से भी पृथ्वी का पर्यावरण गहरे प्रदूषण की चपेट में है। जंग सिर्फ इंसानों की ही जान नहीं लेती है, बल्कि यह हमारी धरती को भी गंभीर रूप से बीमार कर रही है। बम धमाकों से होने वाला प्रदूषण और इमारतों के नष्ट होने से उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसें, ये सभी मिलकर हमारे पर्यावरण को ऐसी क्षति पहुंचा रहे हैं, जिससे उबरना बहुत मुश्किल है।
दरअसल, बहुत से लोग यह सोचते हैं कि पर्यावरण या जलवायु परिवर्तन भविष्य की घटना है, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है। वे यह नहीं जानते कि इस संकट से हम वर्तमान में भी जूझ रहे हैं। दुनिया भर में पारिस्थितिकी तंत्र जलवायु परिवर्तन की वजह से प्रभावित हो रहा है। जलवायु परिवर्तन पर्यावरण को अलग-अलग तरीकों से प्रभावित करता है, जिसमें तापमान में वृद्धि, समुद्र का जलस्तर बढ़ना, सूखा और बाढ़ आदि। ये घटनाएं उन चीजों को प्रभावित करती हैं, जिन पर हम निर्भर हैं: जैसे-पानी, ऊर्जा, परिवहन, वन्यजीव और कृषि इत्यादि। जलवायु परिवर्तन की वजह से धरती का तापमान बढ़ रहा है।
पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के आसपास का क्षेत्र लगातार गर्म होता जा रहा है
वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी के गर्म होने से महासागरों का जलस्तर इतना बढ़ जाएगा कि कई द्वीप देश हमेशा के लिए डूब जाएंगे। एक शोध में शामिल रहे हैम्बर्ग विश्वविद्यालय में ध्रुवीय अनुसंधान के प्रोफेसर और वैज्ञानिक डर्क नाट्ज के अनुसार, धरती के बढ़ते तापमान से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाली जगहों में आर्कटिक सबसे ऊपर है। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के आसपास का क्षेत्र लगातार गर्म होता जा रहा है। अगर दुनिया के देश प्रदूषण को रोकने और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के अपने वादे पर कायम रहते हैं तो भी खतरनाक सीमा पार हो जाएगी। इसके परिणाम विनाशकारी होंगे।
प्रोफेसर डर्क नाट्ज के अनुसार, आर्कटिक वैश्विक औसत से चार गुना तेजी से गर्म हो रहा है, जिसके भयानक परिणाम हो सकते हैं। अध्ययन से पता चला है कि आर्कटिक में दैनिक तापमान आने वाले समय में सभी पुराने रिकार्ड पार कर जाएगा। वक्त के साथ आर्कटिक महासागर अपने बर्फ के आवरण को खो सकता है। ग्रीनलैंड का पिघलने वाला क्षेत्र चौगुना हो जाएगा और पर्माफ्रास्ट क्षेत्र आधे से भी कम हो जाएगा। ये परिवर्तन केवल बर्फ और पानी तक सीमित नहीं होंगे। वन, जल व वन्यजीव समेत संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र विनाश के जोखिम का सामना कर रहा है। महासागरों में पानी का स्तर बढ़ा, तो मानव बस्तियों और बुनियादी ढांचे को बड़े पैमाने पर नुकसान होगा।
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वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोक भी लिया जाए, तब भी समुद्र का जल स्तर तेजी से बढ़ेगा और यह मानवता के लिए गंभीर खतरा साबित होगा। यानी पेरिस समझौते का सबसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य पूरा होने के बाद भी समुद्र का बढ़ना रुकेगा नहीं, बल्कि वह एक नए और खतरनाक चरण में प्रवेश कर जाएगा। डरहम विश्वविद्यालय ने यह अध्ययन किया है, जो विज्ञान पत्रिका ‘कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरमेंट’ में प्रकाशित हुआ है। ‘सेंटर फार स्टडी आफ साइंस टेक्नोलाजी एंड पालिसी’ की एक रपट के अनुसार, मुंबई में वर्ष 2100 तक समुद्र का जल स्तर 76 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है। चेन्नई में करीब सात फीसद भूमि जलमग्न हो सकती है।
कोच्चि, विशाखापत्तनम और पोरबंदर जैसे अन्य तटीय शहरों में भी पांच से दस फीसद भूमि डूबने का खतरा है। मौजूदा बुनियादी ढांचा भारी बारिश, बाढ़, हवा, बर्फ या तापमान में बदलाव लाने वाली चरम मौसमी घटनाओं का सामना करने में सक्षम नहीं हो सकता है। वैश्विक ताप के कारण अंटार्कटिका के हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं। यहां कम से कम सौ ऐसे ज्वालामुखी हैं, जिनके बारे में बहुत अधिक जानकारी मौजूद नहीं है। इनमें से कुछ पश्चिमी तट पर स्थित हैं तो कुछ ज्वालामुखी सतह के ऊपर हैं. लेकिन कई ऐसे भी हैं जो बर्फ की चादर से कई किलोमीटर नीचे हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण तेजी से पिघलती बर्फ से नीचे की चट्टानों का वजन भी कम हो रहा है।
कंप्यूटर सिमुलेशन के आधार पर यह दावा किया गया है कि अगर अंटार्कटिका में बर्फ की चादर को ज्यादा नुकसान होता है, तो नीचे दबे हुए ज्वालामुखी के फटने का खतरा काफी बढ़ सकता है। इन ज्वालामुखियों में होने वाला विस्फोट सतह पर सीधे दिखाई नहीं देता, लेकिन इसका असर पड़ता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए गंभीरता से प्रयास नहीं किए गए, तो विनाश को रोकना मुश्किल हो जाएगा। पृथ्वी पर मौजूद समुद्री क्षेत्र का पांचवां हिस्सा अंधेरे में हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहे इस बदलाव का समुद्र की पारिस्थितिकी पर नकारात्मक असर हो सकता है। इंग्लैंड की यूनिवर्सिटी आफ प्लाइमाउथ के एक नए अध्ययन में यह खुलासा हुआ है।
अध्ययन में कहा गया है कि करीब नौ फीसद समुद्री क्षेत्र ने पिछले दो दशकों में पचास मीटर से अधिक गहराई तक प्रकाश खो दिया है। जबकि 2.6 फीसद हिस्से ने सौ मीटर से अधिक गहराई तक रोशनी खो दी है। इस गहराते अंधेरे का सबसे अधिक प्रभाव आर्कटिक, उत्तरी सागर और जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में देखा गया है। इस अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2003 से अब तक दुनिया भर के समुद्र का इक्कीस फीसद हिस्सा पूरी तरह अंधकार में डूब चुका है। इससे समुद्री जैव विविधता पर संकट के आसार हैं।
शोध के अनुसार, समुद्र का एक प्रकाशमय क्षेत्र होता है, जहां सूर्य की रोशनी पहुंचती है। जलीय पौधे इसी सूर्य की रोशनी से प्रकाश संश्लेषण करते हैं और अपना भोजन प्राप्त करते हैं। समंदर का यह हिस्सा उसकी जैव विविधता के लिए आवश्यक है। इस प्रकाश आधारित संकट के पीछे प्रमुख कारणों में जलवायु परिवर्तन, समुद्री सतह के तापमान में वृद्धि, प्रदूषण, तटीय इलाकों से पोषक तत्त्वों और मिट्टी का बहाव और प्रकृति में बदलाव शामिल है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और गंभीरता को कम करने के लिए अभी भी समय है।
विशेषज्ञों का मानना है कि हम उत्सर्जन को जल्द से जल्द शून्य तक कम करके सबसे बुरे परिणामों से बच सकते हैं, जिससे गर्मी सीमित रहेगी। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए हमें नई तकनीक और बुनियादी ढांचे में निवेश करना होगा, जिससे रोजगार बढ़ेगा। हमें अक्षय ऊर्जा को संग्रह और संसाधित करने वाली तकनीक और सुविधाओं में सुधार जारी रखना होगा। कार्बन उत्सर्जन कम करने से मानव स्वास्थ्य को भी लाभ होगा, जिससे न केवल अनगिनत लोगों की जान बचेगी, बल्कि स्वास्थ्य से संबंधित अरबों डालर का खर्च भी बचेगा।