भाषा किसी भी समाज की संरचना और विचारधारा को दर्शाने का सबसे महत्त्वपूर्ण माध्यम होती है। यह न केवल संवाद का साधन होती, बल्कि शक्ति संबंधों, सामाजिक संरचनाओं और सांस्कृतिक धारणाओं को भी प्रतिबिंबित करती है। सभ्यता के विकास के शुरुआती दिनों में स्वभावत: मनुष्य प्रकृति के साथ प्रेम पूर्वक रहता था, तब मनुष्यों की भाषा प्रेम की भाषा थी, जिसमें हर व्यक्ति-वस्तु, प्रकृति के लिए चिंता का भाव था। उस काल में प्रकृति को एक जीव या स्त्री के रूप में देखा गया। विभिन्न संस्कृतियों के प्राचीन मिथकों और धार्मिक ग्रंथों में प्रकृति को स्त्री के रूप में दर्शाया गया है, जो सृजन, उर्वरता और पालन-पोषण का प्रतीक है। संथाली भाषा में ‘धरती’ को ‘धरती मां’, गोंडी भाषा में ‘जंगल’ को ‘जीवन’ कोरकू भाषा में नदी को ‘मां’ कहा जाता है, जो प्रकृति के प्रति सम्मान को दर्शाता है। दूसरी तरफ विशाल, कठोर और ऊंचाई से चौंकाने वाले पहाड़, गर्जना करते समुद्र और झरनों को पुलिंग रूप दिया गया।

प्रकृति को जानने-समझने के साथ जैसे-जैसे वैज्ञानिक क्रांति आगे बढ़ी, प्रकृति की पोषण देने वाली छवि कमजोर होती गई। सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के दौरान विज्ञान और तर्कवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण, प्रकृति को अब एक ऐसी शक्ति के रूप में नहीं देखा गया, जिससे सामंजस्य स्थापित किया जाए, बल्कि इसे एक ऐसी वस्तु के रूप में देखा जाने लगा, जिसे नियंत्रित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में, प्रकृति की स्त्री छवि भी धुंधली हो गई और उसकी जगह एक यांत्रिक दृष्टिकोण ने ले ली। इस नई सोच ने प्रकृति को एक ऐसी शक्ति के रूप में देखा, जिसे जीतना था, न कि एक ऐसी सत्ता के रूप में जिसे श्रद्धा और सम्मान दिया जाना चाहिए। परिणामस्वरूप, भाषा आक्रामक, आधिपत्यवादी और संसाधन-केंद्रित होती गई। इस नए दृष्टिकोण में, प्रकृति को एक ऐसी शक्ति माना गया, जिस पर मनुष्य को विजय प्राप्त करनी थी। अब इस तार्किक मनुष्य की भाषा आक्रामक, विवादी और हिंसक होनी शुरू हो गई।

एक बात और ध्यान देने योग्य है कि वैज्ञानिकों ने तकनीकी रूप से प्रकृति के अधिकांश तत्त्वों को अजैविक माना, मसलन मिट्टी, पानी, सूर्य, हवा सभी जीवित कारक नहीं माने गए। इस वजह से भी इनके साथ भावनात्मक जुड़ाव मुश्किल होता चला गया। इसी समय कृषि की भाषा हल जोतने, फसल काटने-पीटने, रौंदने सरीखी होती गई। प्रकृति और स्त्री दोनों को नियंत्रित करने और उपयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ी, जिससे पर्यावरणीय असंतुलन और सामाजिक असमानताएं पैदा हुर्इं। भाषा और प्रतीकों के माध्यम से स्त्री और प्रकृति का शोषण तथा अधीनता को वैध ठहराने का प्रयास किया गया। ऐतिहासिक रूप से, स्त्री और प्रकृति को समान रूप से कमजोर, कोमल और नियंत्रित किए जाने योग्य प्रस्तुत किया गया।

पितृसत्तात्मक समाज में, भाषा का उपयोग महिलाओं और प्रकृति के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए किया गया है। हालांकि, इसके साथ ही प्रकृति की एक और छवि बनाई गई। एक, अनियंत्रित और हिंसक शक्ति की। तूफान, बारिश, सूखा और भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं को लेकर द्वंद्वात्मक चित्रण एक ओर इसे शोषित करने योग्य विनम्र सत्ता के रूप में देखता है और दूसरी ओर इसे विनाशकारी शक्ति के रूप में चित्रित करना, पितृसत्तात्मक समाजों में ऐतिहासिक रूप से महिलाओं के प्रति अपनाई गई दृष्टि को प्रतिबिंबित करता है।

आज असीमित विकास और प्राकृतिक संसाधनों के मानव शोषण को सामान्य और स्वाभाविक माना जा रहा है। हम न केवल तेल, ऊर्जा, पानी, हवा और पेड़ आदि को संसाधन मानते हैं, बल्कि इनके लिए असंख्य संज्ञा शब्दों का भी प्रयोग करते हैं, जिससे यह संकेत मिलता है कि ये संसाधन असीमित हैं। साथ ही विरोधाभासी शब्दों की जोड़ी में, ‘विकास’ शब्द को हमेशा तटस्थ माना जाता है, जैसे: हमेशा यही होता है, गाड़ी कितनी तेज है (कितनी धीमी नहीं), सड़क कितनी चौड़ी है, इमारत कितनी ऊंची है (कितनी नीची नहीं), उसकी आमदनी कितनी अधिक है (कितनी कम नहीं)। आजकल तो तेज गति से कार्य करने का भी खूब चलन है।

पहले, जहां महिला और प्रकृति दोनों को पोषण और संतुलन से जोड़ा जाता था, वहीं उद्योगीकरण के बाद, दोनों को एक ऐसी सत्ता के रूप में देखा जाने लगा, जिस पर कब्जा किया जाना आवश्यक था। उदाहरण के लिए, वैज्ञानिक और तकनीकी भाषा में भी प्राकृतिक संसाधनों को ‘शोषण’ करने योग्य बताया जाता है, जैसे ‘भूमि का दोहन,’ ‘ऊर्जा का उपभोग’। ये शब्दावली यह संकेत देती है कि प्रकृति केवल मानव उपभोग के लिए बनी है, न कि एक जीवंत और आत्मनिर्भर इकाई के रूप में। इसी प्रकार, जब स्त्रियों की भूमिका का वर्णन किया जाता है, तो आमतौर पर उन्हें सहनशीलता, सेवा और बलिदान के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

‘इकोफेमिनिज्म’ के दृष्टिकोण से भाषा को पुन: परिभाषित करना केवल शब्दों को बदलने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सोचने का एक नया तरीका प्रदान करता है। इसमें यह विचार किया जाता है कि भाषा और प्रतीकों का ऐसा उपयोग हो, जो समानता और परस्पर सम्मान को दर्शाए। उदाहरण के लिए, स्त्रियों को अक्सर धरती, नदी, चंद्रमा या पेड़ के रूप में निरूपित किया जाता है। धरती को ‘माता’ का रूप दिया जाता है, जिसे सहनशील और पोषण देने वाली माना जाता है। इसी तरह, स्त्रियों को भी सहनशीलता और त्याग की मूर्ति के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह दृष्टिकोण स्त्रियों के अधिकारों और उनके व्यक्तित्व को गौण बना देता है।

स्त्रियों की तुलना अक्सर नदी से की जाती है- ‘स्त्री का जीवन नदी की तरह होता है’। यह रूपक उनके परिवर्तनशील और बहने वाले स्वभाव को दर्शाता है, जो एक प्रकार से उनके अस्तित्व को दूसरों के अनुकूल होने तक सीमित कर देता है। इस रूपक के साथ स्त्री और नदी दोनों के जीवन को बांधने का काम समाज में शुरू हुआ। हमारी भाषा हमारे आचरण में गहरे रूप से पैठ गई। स्त्रियां घर में एक सीमा के भीतर रहने लगीं, तो नदियों के सतत प्रवाह को रोक कर बांध बनाए जाने लगे। भाषा में ‘चांद-सा मुखड़ा’ जैसे मुहावरे स्त्रियों की सुंदरता को चंद्रमा से जोड़ते हैं, लेकिन यह भी बाहरी रूप से सुंदरता के प्रति समाज के अत्यधिक झुकाव को प्रकट करता है। भाषा में स्त्रियों के लिए इतर शब्दों से तुलना कर उनकी भूमिका और स्थिति को नियंत्रित किया जाता है। यह तुलना कभी सकारात्मक होती है, तो कभी अपमानजनक। कई जगह सकारात्मक प्रतीकों के प्रयोग की पुन: व्याख्या की जरूरत है। परिवर्तन विचारों के साथ शब्दों में भी परिलक्षित होना चाहिए, क्योंकि वही हमारे समाज के भविष्य को आकार देते हैं।