इस हफ्ते की राजनीति में हर दल अपने ही बनाए जाल में उलझता नजर आया। भाजपा में जेपी नड्डा का तदर्थ कार्यकाल अब असहज करने लगा है, वहीं कांग्रेस कर्नाटक की जातीय गणना पर बुरी तरह बंट गई है। दिल्ली में दोहरे इंजन की सरकार को पहला बड़ा कानून-व्यवस्था संकट झेलना पड़ा। मायावती की बसपा अब पूरी तरह पारिवारिक संस्था बनती दिख रही है। और बिहार में चिराग को तवज्जो मिलने से पारस का आरग से मोहभंग सामने आया।
तदर्थ कब तक?
भाजपा के नए अध्यक्ष का चुनाव लगातार लटक रहा है। जेपी नड्डा का कार्यकाल लोकसभा चुनाव से पहले ही पूरा हो गया था। लेकिन वे लगातार तदर्थ अध्यक्ष बने हुए हैं। एक व्यक्ति, एक पद के अपने सिद्धांत की भी धज्जी उड़ा रही है भाजपा। केंद्र की नई सरकार के गठन को 11 महीने बीत चुके हैं। इस तरह 11 महीने से नड्डा केंद्र में मंत्री भी हैं और पार्टी के अध्यक्ष भी। देरी से इतना साफ दिखता है कि इस बार अध्यक्ष के चयन में आरएसएस की सहमति जरूरी होगी। भाजपा के नए अध्यक्ष के चुनाव से पहले आधे राज्यों में पार्टी के प्रदेश अध्यक्षों का चुनाव जरूरी है। पिछले एक हफ्ते में जो गहमा-गहमी दिखी है और राज्यों के अध्यक्षों के चुनाव की प्रक्रिया ने गति पकड़ी है, उससे लगता है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव का कार्यक्रम इसी महीने घोषित हो जाएगा।
तमिलनाडु में अन्नामलाई की जगह नए अध्यक्ष का एलान हो चुका है। अगले कुछ दिनों में आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड, तेलंगाना और मध्यप्रदेश के नए अध्यक्ष भी नियुक्त हो जाएंगे। कर्नाटक में आलाकमान को तय करना है कि येदियुरप्पा के बेटे बीवाई विजयेंद्र को ही दूसरा कार्यकाल दिया जाए या कोई नया अध्यक्ष बने। उत्तर प्रदेश में अड़चन जातीय समीकरण की है। राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव को लेकर बनी चुनाव अधिकारी के लक्ष्मण की समिति अभी तक सोई पड़ी है।
उल्टे फंसे
जातीय जनगणना की मांग को राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा बना रही कांग्रेस के लिए कर्नाटक में यही मुद्दा गले की फांस बन गया है। पिछड़ा वर्ग आयोग की विशेष सर्वेक्षण रिपोर्ट को लेकर पार्टी दो धड़ों में बंट चुकी है। मंत्रिमंडल की बैठक में लगातार तीन घंटे की माथापच्ची के बाद भी रपट पर कोई एक राय सामने नहीं आ पाई। लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय इस रपट को रद्द कर नए सिरे से सर्वेक्षण कराने की मांग कर रहा है। रपट में इन दोनों जातियों की जनसंख्या उम्मीद से कम निकली है। लिंगायत को 11 फीसद और वोक्कालिगा को 10.3 फीसद दिखाया गया है। आम धारणा रही है कि ये दोनों जातियां 30 फीसद के आसपास हैं। इसके उलट मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की जाति को 7.5 फीसद दिखाया गया है। कांगे्रस को डर है कि रिपोर्ट को स्वीकारा तो लिंगायत और वोक्कालिगा नाराज होकर भाजपा और जद (सेकु) के साथ चले जाएंगे।
दोहरी सरकार दोहरा घेराव
दिल्ली में दोहरे इंजन की सरकार बनने के बाद सीलमपुर पर पहला सामुदायिक विवाद का मामला सामने आया है। विवाद को निपटाने के लिए जहां सीधे तौर पर मुख्यमंत्री आगे बढ़ती नजर आई हैं वहीं विपक्ष को नया हथियार मिल गया है। कानून व्यवस्था का मामला सीधे तौर पर उपराज्यपाल यानी केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र के तहत आता है। इस वजह से इस मामले में विपक्ष न सिर्फ सीधे केंद्र सरकार बल्कि दिल्ली सरकार को भी घेर रहा है। इसके जरिए दिल्ली में दोहरे इंजन सरकार पर बड़ा तंज किया जा रहा है। इससे पहले जब दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार थी, तब भी कानून व्यवस्था को लेकर ही केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करती थी।
परिवार जन
संसद और विधानसभा में तो बहुजन समाज पार्टी ने अपनी ताकत पहले ही खत्म कर ली थी। अब सांगठनिक मोर्चे पर भी पार्टी सुप्रीमो मायावती ने साबित कर दिया है कि बसपा उनकी जेबी पार्टी है। जैसे पार्टी न होकर प्राइवेट लिमिटेड कंपनी हो। संगठन में कौन क्या है, कोई नहीं जानता। हां, इतना हर कोई जानता है कि इस पार्टी की सर्वेसर्वा बहिनजी हैं। पार्टी को चुनाव आयोग ने मान्यता भी कैसे दे रखी है। कभी पता ही नहीं चलता कि पार्टी का चुनाव कब हो गया। किसी अधिवेशन की भी जरूरत नहीं पड़ती। अब तो बहिनजी प्रेस कांफ्रेंस करने से भी कतराने लगी हैं। सब कुछ सोशल मीडिया के माध्यम से करती हैं। अभी आंबेडकर जयंती पर अपने भतीजे आकाश आनंद की पार्टी में वापसी की घोषणा भी ‘एक्स’ पर की। इससे पहले आकाश को अपने उत्तराधिकारी पद से दो बार ‘एक्स’ पर फैसला सुनाकर ही हटाया था। अपने समधी यानी आकाश के ससुर अशोक सिद्धार्थ को भी ‘एक्स’ के माध्यम से ही पार्टी से निष्कासित कर दिया था। वजह भी मजेदार थी कि आकाश अपने ससुर के चक्कर में बहुजन राजनीति को नुकसान पहुंचा रहे थे। अब आकाश ने सार्वजनिक रूप से अपनी बुआ से माफी मांगी है। बहिनजी ने पार्टी में वापसी तो करा दी पर साफ कर दिया कि जब तक वे स्वस्थ हैं, किसी को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाएंगी। लगता है बहुजन की पार्टी न होकर परिवार के नाटक का मंचन करने वाली संस्था बन चुकी है बसपा।
‘इस्तेमाल’ के खिलाफ
बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले पशुपति कुमार पारस ने राजग से नाता तोड़ने का एलान कर दिया है। केंद्र की पिछली सरकार में पशुपति कुमार पारस कैबिनेट मंत्री थे। तब चिराग पासवान अकेले पड़ गए थे। उनकी पार्टी लोजपा के बाकी सारे सांसदों ने उनका साथ छोड़ दिया था। चिराग ने पिछले विधानसभा चुनाव में जद (एकी) उम्मीदवारों को हरवाने में सक्रिय भूमिका अदा की थी। लोकसभा चुनाव के वक्त भाजपा ने उनका यह अहसान उन्हीं की पार्टी को असली लोजपा मान उतार दिया था। चुनाव के बाद पशुपति कुमार पारस की जगह चिराग पासवान को ही राजग मंत्रिमंडल में जगह मिली थी। पशुपति कुमार पारस को यकीन हो गया था कि भाजपा ने उनका इस्तेमाल किया था। सो अपनी अनदेखी का आरोप लगा आंबेडकर जयंती पर राजग को तज दिया। दूसरे दलित नेता और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम माझी ने फरमाया कि पारस तो लंबे समय से लालू यादव के साथ गलबहियां कर रहे थे। उनके राजग से जाने का कोई नुकसान नहीं होगा। माझी भूल रहे हैं कि आज वे नीतीश के साथ हैं पर विधानसभा के भीतर नीतीश ने ही उन्हें जमकर खरी-खोटी सुनाई थी।
(संकलन- मृणाल वल्लरी)