ब्रह्मांड के जन्म के समय न तो ग्रह-नक्षत्र थे, न पहाड़ थे, न नदियां थीं, न तारे। जितना भी जिस रूप में था, बस ब्रह्मांड था और यह आकार ले रहा था। ब्रह्मांड के विकासक्रम के शुरुआती दौर में गैस और धूल के हलके झीने बादल यत्र-तत्र सर्वत्र थे, जो चित्रों में दिखाई दिए हैं। इनमें अनुकूलताओं से कहीं अधिक प्रतिकूलताएं थीं। विषमताएं थीं। गैसों में हाइड्रोजन और हीलियम के अंश थे, जबकि धूल में प्लाजमा के तंतु थे।
गोया, धीरे-धीरे गैसों तथा धूल का विशाल बादली स्वरूप एक-एक केंद्र पर केंद्रित होकर गुरुत्वाकर्षण के बल पर गहरे और घनीभूत होने लगे। यह वह समय था, जब ब्रह्मांड में वातावरण बेहद घना और गर्म था। क्योंकि ब्रह्मांड एक भयंकर विस्फोट के फलस्वरूप जन्मा था, इसलिए आग का गोला था। मसलन इसमें ऊर्जा ही ऊर्जा थी।
करोड़ों साल तक आग कह लें या ऊर्जा, फैलती रही और फैलने के साथ ठंडी भी होती रही। धूल के बवंडर उठते रहे और ज्वालामुखी फूटते रहे। गुरुत्वाकर्षण की शक्ति का बल भी ब्रह्मांड के जन्म के साथ ही उत्पन्न हुआ, जिसने कालांतर में अस्तित्व में आने वाले ग्रह-नक्षत्रों को अपने संतुलन से साधने का काम किया। धीरे-धीरे फैलते हुए पदार्थ यहां-वहां पिंडों का रूप लेने लगे। कालांतर में गैस और धूल के ये पिंड सिकुड़ते चले गए।
इन्हीं से तारे अस्तित्व में आए। इन्हीं तारों के समूह को निहारिका, मंदाकिनी और आकाश गंगा कहा गया है। ये आकाश में कुहरे की तरह फैले हुए प्रकाश-पुंज हैं, जो अंधेरी रात में किसी नदी में सफेद धारी की तरह प्रवाहित होते दिखाई देते हैं। ये समूचे ब्रह्मांड में फैली हुई हैं।
तारों का जन्म
ब्रह्मांड के अस्तित्व से जुड़े आरंभिक तारों का रूप बहुत बड़ा था, पर कुछ करोड़ वर्ष जीने के बाद, इनकी मृत्यु भी होने लग गई। निरंतर जारी विस्फोटों से विशाल तारे टूट कर बिखर गए। चूंकि इनके वजूद में पर्याप्त मात्रा में द्रव्य था, इसलिए नष्ट होते इन्हीं तारा समूहों से नई-नई नीहारिकाएं और मंदाकिनियां भी जन्मीं और जन्मे अधिनव तारे। इन्हें ही वैज्ञानिकों ने ‘सुपरनोवा’ नाम दिया। इन विशाल तारों की अकल्पनीय और अविश्वसनीय मृत्यु अत्यधिक ऊर्जा तथा प्रकाश के उत्सर्जन के कारण होती है। इनकी रोशनी समस्त मंदाकनियों से भी अधिक तीव्र होती है।
दरअसल, ये तारे एक समय ऐसी स्थिति में पहुंच जाते हैं कि अत्यंत तीव्र गुरुत्वाकर्षण के दबाव को संतुलित करने वाली ताप-शक्ति न्यूनतम हो जाती है। तब अपने में ही अति तीव्र संकुचन के कारण उनका विस्फोट हो जाता है। तारों को मौत के घाट उतारने वाले इसी विस्फोट से ‘अधिनव तारा’ जन्मता है।
ब्रह्मांड में सबसे अधिक चमक वाले तारे के समान तथा सबसे अधिक दूर स्थित पिंडों को वैज्ञानिकों ने खगोलीय चमकीले पिंड अर्थात ‘क्वासर’ कहा है। इसे अत्यधिक तीव्र रेडियो तरंगों के स्रोत के रूप में पहचाना गया। ब्रह्मांड का सर्वाधिक विलक्षण पिंड पुच्छल-तारा अर्थात ‘पल्सर’ है। अधिनव तारे के विस्फोट के बाद न्यूट्रान तारा बन जाता है। पल्सर तारों की तरंगें ब्रह्मांड में स्पंदन, मसलन कंपायमान के रूप में अनवरत चलायमान रहती हैं।
यही विचित्र और अदृश्य ब्रह्मांड का ऐसा रहस्य है, जो स्पंदनों में विकिरण उत्पन्न करने की क्षमता रखता है। और वह भी एक निश्चित आनुपातिक और अनुशासित आवृत्ति में। हालांकि अब मनुष्य ने यह भी जान लिया है कि न्यूट्रान तारे अधिकतम तीव्र चुंबक मंडल के कारण तरंगों का विकिरण केवल ध्रुवों से ही करते हैं और वे भी अपने अक्ष पर घूर्णन करते हैं। इस तरह प्रकाश-स्तंभ का प्रकाश स्रोत भी घूमता रहता है और देखने वाले को वह प्रकाश स्पंदनों के रूप में दिखता है।
ब्रह्मांड का अंत
ब्रह्मांड के बारे में ऐसी धारणा है कि ये तारे और आकाशगंगाएं विस्फोट से उत्पन्न ऊर्जा से ही ब्रह्मांड की परिधि में गतिशील हैं और ब्रह्मांड की ओर निरंतर बढ़ी चली आ रही हैं। इसलिए ऐसा अनुमान है कि जब ब्रह्मांड के विस्तार की रफ्तार अवरुद्ध हो जाएगी, तब गुरुत्वाकर्षण के कारण समस्त आकाशीय तारे एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होकर टकरा जाएंगे। तब इस भंयकर टक्कर के फलस्वरूप ब्रह्मांड नष्ट हो जाएगा।
गोया, भारतीय दर्शन की ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे’ की उक्ति चरितार्थ हो जाएगी। आधुनिक विज्ञान मानता है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति और विनाश का चक्र एक निरंतर प्रक्रिया है। इस चक्र के पूरा होने की अवधि करीब आठ हजार करोड़ वर्ष है। इसमें चार हजार करोड़ वर्ष तक ब्रह्मांड निरंतर फैलता रहता है उसके पश्चात इतने ही वर्षों में ब्रह्मांड संकीर्ण होकर अपनी पूर्व अवस्था यानी शून्य में परिवर्तित हो जाता है।