हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश ने अपनी प्रगति यात्रा के दौरान कहा कि दो बार पाला बदलना उनकी गलती थी और अब वे हमेशा भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के साथ ही रहेंगे। बिहार के मुख्यमंत्री की यह टिप्पणी आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद के उस बयान के कुछ दिनों बाद आई है जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर नीतीश कुमार हमारे साथ आने का फैसला करते हैं, तो उनका हमेशा स्वागत है। हम साथ मिलकर काम करेंगे।

जिसके बाद रविवार को मुजफ्फरपुर में नीतीश ने कहा, “हमसे पहले जो लोग सत्ता में थे क्या उन्होंने कुछ किया? लोग सूर्यास्त के बाद अपने घरों से बाहर निकलने से डरते थे। मैं गलती से दो बार उनके साथ हो गया था।”

1974 के जेपी आंदोलन की उपज, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की राहें पिछले चार दशकों और उससे भी ज़्यादा समय की बिहार की राजनीति की कहानी बयां करती हैं। आइये जानते हैं कैसे ये दो दोस्त आज एक-दूसरे के कट्टर प्रतिद्वंदी बन गए हैं।

ऐसे शुरू हुई नीतीश-लालू की दोस्ती

1989 के दौरान नीतीश एक उभरते हुए नेता थे जो हिंदी में अच्छी तरह से लिखने में माहिर थे। वह अक्सर लालू प्रसाद के लिए प्रेस नोट लिखते थे, जो उस दौरान विपक्ष के नेता थे। एक साल बाद जब लालू प्रसाद सीएम बने तो नीतीश उनके मुख्य सलाहकार बन गए।

लालू-नीतीश के रिश्ते में अगला अध्याय जल्द ही शुरू हुआ। 1991 के लोकसभा चुनावों में अविभाजित बिहार में जनता दल ने 54 में से 48 सीटें जीतीं। जॉर्ज फर्नांडिस , शरद यादव और रामविलास पासवान जैसे वरिष्ठ पार्टी नेताओं को लगा कि वे खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे हैं लेकिन यह नीतीश ही थे जिन्होंने 1993 के अंत में सबसे पहले विद्रोह का झंडा उठाया और अंततः 1994 में जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में समता पार्टी का गठन किया।

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1995 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़े नीतीश

नीतीश कुमार ने 1995 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़कर अपनी राह बनाई और केवल सात सीटें जीतीं, लालू प्रसाद फिर सत्ता में लौट आए। तब से नीतीश ने एक लंबा रास्ता तय किया है। वे 1995 में एनडीए में शामिल हुए और भाजपा के शीर्ष नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी का विश्वास जीत लिया, जिन्होंने 2000 में अपने पार्टी सहयोगी सुशील कुमार मोदी के बजाय उन्हें बिहार का सीएम बनाने का फैसला किया । हालांकि वे एक हफ्ते तक सीएम रहे लेकिन नीतीश ने अपने राजनीतिक कद को किसी भी भाजपा बिहार नेता से बड़ा बनाने में कामयाबी हासिल की।

लालू और नीतीश की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता

अपने राजनीतिक उत्कर्ष के दौरान लालू प्रसाद नीतीश के मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बने रहे। अक्टूबर 2005 के चुनावों में एनडीए के सीएम चेहरे के रूप में नीतीश को आगे बढ़ाने वाले दिवंगत भाजपा नेता अरुण जेटली ही थे । यह कारगर रहा और नीतीश फिर से राज्य की कमान संभाले। 2010 में, उन्होंने विपक्ष को पछाड़ दिया और 243 सदस्यीय सदन में आरजेडी के विधायकों की संख्या घटकर सिर्फ़ 23 रह गई। यह कुछ ही महीनों में आरजेडी के लिए दूसरा बड़ा झटका था। एक साल पहले हुए लोकसभा चुनावों में आरजेडी 22 सीटों से गिरकर चार पर आ गई थी जबकि एनडीए ने 40 लोकसभा सीटों में से 32 पर जीत हासिल की थी।

2013 में दोनों ने फिर मिलाये हाथ

2013 में जनता दल (यूनाइटेड) के नेता ने अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं के कारण एनडीए से नाता तोड़ लिया। जेडी(यू) ने 2014 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ा और इसका उल्टा असर हुआ क्योंकि पार्टी 20 सीटों से घटकर दो सीटों पर आ गई। जिसके बाद नीतीश ने यह समझ लिया कि अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी के साथ हाथ मिलाने से वह एक बार फिर बिहार की राजनीति में आगे बढ़ चलेंगे। 2015 के साक्षात्कार में नीतीश ने कहा कि उन्होंने लालू प्रसाद के साथ जुड़ने का फैसला उनके जनाधार और उनके सामने विकल्प की कमी के कारण किया।

जिसके बाद राज्य की राजनीति में एक और चरण शुरू हुआ लालू का पुनरुत्थान लेकिन नीतीश ने अपनी प्रधानता बरकरार रखी। आरजेडी-जेडी(यू)-कांग्रेस गठबंधन ने 178 सीटें जीतीं। भले ही आरजेडी 81 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, जो जेडी(यू) से 10 अधिक थी लेकिन लालू ने सीएम पद नीतीश को दे दिया।

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यहीं से उतार-चढ़ाव की कहानी शुरू हुई। 2016 के अंत तक नीतीश को लालू जो पर्दे के पीछे से बड़े नीतिगत फैसले लेते थे, और उनके बेटों तेजस्वी प्रसाद यादव और तेज प्रताप यादव की संगति में असहज महसूस होने लगा।

2017 में फिर अलग हुईं लालू-नीतीश की राहें

नीतीश महागठबंधन छोड़ने के लिए बहाने की तलाश में थे। 2017 के मध्य में लालू के घर पर सीबीआई के छापे और उसके बाद तेजस्वी समेत उनके और उनके परिवार के खिलाफ दर्ज IRCTC मामले ने उन्हें बस यही मौका दिया। नीतीश राजगीर चले गए और कुछ दिनों तक उनसे संपर्क नहीं किया। जेडी(यू) नेता कुछ दिनों बाद पटना लौटे और लालू को फोन करके बताया कि वे गठबंधन छोड़ रहे हैं।

2020 के विधानसभा चुनावों में आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने 110 सीटें जीतीं जो बहुमत से केवल 12 सीटें कम थीं। जेडी(यू) आरजेडी (75 सीटें) और बीजेपी (74 सीटें) के पीछे तीसरे स्थान (43 सीटें) पर खिसक गई लेकिन नीतीश फिर से सीएम बन गए। उनकी संख्या ने उन्हें यह तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की गारंटी दी कि सत्ता में कौन आएगा।

जनवरी 2024 में फिर नीतीश कुमार ने बदला पाला

हालांकि तेजस्वी 2022 में नीतीश की वापसी के खिलाफ थे लेकिन लालू ने फिर से अपनी बात रखी और नीतीश का स्वागत किया। निजी तौर पर, आरजेडी प्रमुख ने तर्क दिया कि वे दोनों मिलकर कई सालों तक बिहार की कमान संभाल सकते हैं। हालांकि, नीतीश को इंडिया ब्लॉक का संयोजक नहीं बनाया गया और लालू से फिर से समर्थन न मिलने के कारण बिहार के सीएम ने जनवरी 2024 में पाला बदल लिया।

दशकों से चले आ रहे उतार-चढ़ाव के बीच लालू-नीतीश की कहानी की एक खास बात यह रही है कि दोनों में से किसी ने भी एक-दूसरे पर व्यक्तिगत हमला नहीं किया। इस चुनावी वर्ष में नीतीश किस तरह से अपने पाले में आते हैं, यह बिहार की राजनीति की दिशा तय कर सकता है और लालू इस बात को अच्छी तरह जानते हैं। और शायद यही राजनीतिक गणना उनके दोस्त से प्रतिद्वंद्वी बने नीतीश के साथ उनके रिश्ते के पीछे भी है।  देश-दुनिया की तमाम बड़ी खबरों के लिए पढ़ें jansatta.com का LIVE ब्लॉग