भाषाई आंदोलन के कारण पूर्वी बंगाल और बाद में पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली राष्ट्रीय पहचान जागृत हुई। इस आंदोलन ने बंगाली राष्ट्रवाद को और बढ़ावा दिया तथा छह सूत्री आंदोलन और बाद में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की नींव रखी। फिर 1987 में बांग्लादेश ने बंगाली भाषा कार्यान्वयन अधिनियम पारित किया। 21 फरवरी को बांग्लादेश में ‘भाषा आंदोलन दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस आंदोलन में अपनी जान गंवाने वाले शहीदों की याद में ढाका मेडिकल कॉलेज के पास एक शहीद मीनार बनाई गई। 17 सितम्बर 1999 को यूनेस्को ने 21 फरवरी को ‘अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ घोषित किया। इस दिवस का उद्देश्य दुनिया भर में भाषाई और सांस्कृतिक अधिकारों को मान्यता प्रदान करना था।
बंगाली भाषा आंदोलन का प्रारंभ
बंगाली भाषा आंदोलन 1952 में पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक आंदोलन के रूप में उभरा। इसका उद्देश्य तत्कालीन पाकिस्तान में बंगाली को सह-आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाना था। भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद पाकिस्तान दो भागों में बंटा-पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी बंगाल। पूर्वी बंगाल में मुख्यतः बंगाली भाषी आबादी थी, लेकिन 1948 में पाकिस्तानी सरकार ने उर्दू को एकमात्र राष्ट्रीय भाषा घोषित कर दिया। इससे पूर्वी बंगाल में व्यापक असंतोष फैल गया, क्योंकि यह उनकी भाषा और सांस्कृतिक पहचान पर सीधा आघात था।
भाषाई असमानता और विरोध प्रदर्शन
सरकार के उर्दू थोपने के फैसले के खिलाफ व्यापक जन विरोध शुरू हुआ। सरकार ने सार्वजनिक बैठकों और मार्चों पर प्रतिबंध लगा दिया, परंतु छात्रों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने ढाका विश्वविद्यालय में 21 फरवरी 1952 को कानून का उल्लंघन कर विरोध प्रदर्शन किया। पुलिस द्वारा छात्रों पर गोलीबारी की गई, जिसमें कई छात्र मारे गए। इस हिंसा ने आंदोलन को और भी तीव्र बना दिया और पूरे देश में जन आक्रोश फैल गया। अंततः वर्षों के संघर्ष के बाद, पाकिस्तानी सरकार ने 1956 में बंगाली को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी।
उर्दू भाषा का सांस्कृतिक प्रतीक
उर्दू भाषा को इस्लामी संस्कृति का प्रतीक माना जाता था, क्योंकि इसका विकास दिल्ली सल्तनत और मुगल साम्राज्य के दौरान हुआ था। इसकी फारसी-अरबी लिपि के कारण इसे भारतीय मुसलमानों की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा माना गया। विभाजन के पहले से ही उर्दू को मुसलमानों के बीच संचार की भाषा के रूप में प्रचारित किया जा रहा था। इसके विपरीत, बंगाल के मुसलमान मुख्यतः बंगाली भाषा का उपयोग करते थे, जो अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान रखती थी।
बंगाली भाषा के खिलाफ प्रस्ताव
पाकिस्तानी सरकार ने बंगाली को रोमन या अरबी लिपि में लिखने का भी प्रस्ताव दिया, जिससे आंदोलन और भड़क गया। कई मौकों पर सरकार ने बंगाली भाषा के प्रयोग को सार्वजनिक जीवन से हटाने के लिए कदम उठाए, जिससे छात्रों और बुद्धिजीवियों में असंतोष बढ़ा।
ढाका विश्वविद्यालय का आंदोलन
8 दिसंबर 1947 को ढाका विश्वविद्यालय में छात्रों ने एकत्र होकर बंगाली को राज्य भाषा बनाने की मांग की। इसके बाद राष्ट्रभाषा कार्य समिति का गठन किया गया, जिसने आंदोलन को संगठित रूप से आगे बढ़ाया। धीरेन्द्रनाथ दत्त ने पाकिस्तान की संविधान सभा में बंगाली भाषा को आधिकारिक दर्जा देने का प्रस्ताव रखा, लेकिन इसे खारिज कर दिया गया।
जिन्ना और लियाकत अली खान की प्रतिक्रिया
पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्ना ने 1948 में ढाका में भाषण देते हुए उर्दू को पाकिस्तान की एकमात्र भाषा घोषित कर दिया। इससे छात्रों और स्थानीय नेताओं में गुस्सा भड़क गया। प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने भी छात्रों की मांगों को नजरअंदाज किया, जिससे आंदोलन और तेज हो गया।
भाषा आंदोलन की जीत
भारी जन दबाव के कारण 6 अप्रैल 1948 को पूर्वी बंगाल विधान सभा ने बंगाली को प्रांतीय भाषा के रूप में मान्यता दी, लेकिन इसे राज्य भाषा बनाने की मांग को अस्वीकार कर दिया। अंततः 1956 में पाकिस्तानी सरकार ने बंगाली को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया। यह आंदोलन बंगालियों की सांस्कृतिक पहचान और भाषाई अधिकारों की जीत का प्रतीक बन गया।
बंगाली भाषा आंदोलन ने न केवल भाषाई अधिकारों की रक्षा की बल्कि पूर्वी पाकिस्तान में राष्ट्रीयता की भावना को भी जन्म दिया। यह आंदोलन आगे चलकर बांग्लादेश की स्वतंत्रता की नींव बना और दुनिया के भाषाई आंदोलनों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय साबित हुआ।