आज दुनिया बैटरी पर चल रही है। सुबह के अलार्म से लेकर रात में टीवी का रिमोट बंद करने तक, हमारी अंगुलियां दिन भर में दर्जनों बार बैटरी से चलने वाले उपकरणों को छूती हैं। हाथ में स्मार्टफोन, कलाई पर बंधी घड़ी, बच्चों के खिलौने, लैपटाप और अब तो हमारी सड़कों पर दौड़ती गाड़ियां भी बैटरी से ही चल रही हैं। यह तकनीकी प्रगति का उदाहरण है, जिसने हमारे जीवन को आसान और सुविधाजनक बना दिया है। मगर इस सुविधा का दूसरा पहलू भी है, जो उतना चमकीला नहीं है।

यह पहलू है इस्तेमाल की हुई बैटरियों के कचरे का, जो एक अदृश्य और खतरनाक संकट के रूप में हमारे सामने खड़ा हो रहा है। भारत जैसे-जैसे डिजिटल और इलेक्ट्रिक भविष्य की ओर बढ़ रहा है, यह समझना अनिवार्य हो गया है कि अगर हमने बैटरी कचरे का ठीक से प्रबंधन नहीं किया, तो हमारी प्रगति का मार्ग पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए एक विनाशकारी जाल बन सकता है।

भारत दुनिया के सबसे बड़े बैटरी उपभोक्ता बाजारों में से एक है

भारत दुनिया के सबसे बड़े उपभोक्ता बाजारों में से एक है। हर वर्ष करोड़ों की संख्या में इलेक्ट्रानिक उपकरण खरीदे जाते हैं और उनके साथ आती हैं करोड़ों बैटरियां। इनमें ‘पेंसिल सेल’ जैसी छोटी क्षार बैटरियों से लेकर मोबाइल फोन और लैपटाप में इस्तेमाल होने वाली लिथियम-आयन बैटरियां और गाड़ियों तथा इनवर्टर में लगने वाली भारी-भरकम लेड-एसिड बैटरियां तक शामिल हैं।

सरकार की ‘फेम इंडिया’ जैसी योजनाओं के माध्यम से इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने की नीति स्वागत योग्य है, लेकिन इसके परिणामस्वरूप आने वाले दशक में लिथियम-आयन बैटरियों का कचरा तेजी से हमारे शहरों में फैलेगा। सवाल है कि इन लाखों बैटरियों का जीवनकाल समाप्त होने पर उनका क्या होगा? अगर हम इन्हें साधारण कचरे की तरह फेंकते रहे, तो हम अपने ही घर में एक जहरीला ‘टाइम बम’ लगा रहे होंगे।

बैटरी कचरे को खतरनाक बनाने वाली चीज इसके अंदर मौजूद रसायन है। बाहर से ठोस और सुरक्षित दिखने वाली हर बैटरी के भीतर भारी और विषैली धातुओं का एक मिश्रण होता है। उदाहरण के लिए, हमारी गाड़ियों और इनवर्टर में इस्तेमाल होने वाली लेड-एसिड बैटरियों में सीसा (लेड) और सल्फ्यूरिक एसिड होता है।

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सीसा शक्तिशाली न्यूरोटाक्सिन है, यानी यह सीधे हमारे तंत्रिका तंत्र पर हमला करता है। जब इन बैटरियों को अवैज्ञानिक तरीके से तोड़ा या फेंका जाता है, तो सीसा मिट्टी में और फिर भूमिगत जल में मिल जाता है। यह धीरे-धीरे हमारी खाद्य शृंखला में प्रवेश करता है। फिर यह पानी, सब्जियों और अनाज के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंचता है।

बच्चों के लिए यह विशेष रूप से घातक है। सीसे के संपर्क में आने से बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास रुक सकता है। उनकी सीखने की क्षमता कम हो सकती है और व्यवहार संबंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। दूसरी ओर, आधुनिक उपकरणों और इलेक्ट्रिक वाहनों की जान कही जाने वाली लिथियम-आयन बैटरियां भी दूध की धुली नहीं हैं। इन्हें अक्सर ‘हरित विकल्प’ माना जाता है, लेकिन इनके कचरे का प्रबंधन भी बड़ी चुनौती है। इनमें लिथियम के अलावा कोबाल्ट, निकल और मैगनीज जैसी धातुएं होती हैं।

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अगर इन्हें कचरे के ढेर में फेंक दिया जाए, तो ये भारी धातुएं रिस कर भूजल को प्रदूषित कर सकती हैं। इसी तरह, पुरानी घड़ियों और रिमोट में इस्तेमाल होने वाली बटन सेल में पारा (मर्करी) और खिलौनों की बैटरियों में कैडमियम जैसी अत्यंत विषैली धातुएं पाई जाती हैं, जो पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा करती हैं।

भारत में बैटरी कचरे के प्रबंधन की जमीनी हकीकत चिंताजनक है, क्योंकि इसका एक बहुत बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र यानी हमारे कबाड़ का कारोबार वालों के माध्यम से संचालित होता है। यह क्षेत्र एक दोधारी तलवार की तरह है। एक तरफ, कचरा बीनने वाले लोग हमारे घरों और दुकानों से इस्तेमाल की हुई बैटरियों को इकट्ठा करके पुनर्चक्रण शृंखला की पहली और सबसे अहम कड़ी का काम करते हैं।

उनके बिना यह कचरा शायद हमारे घरों के कोनों में या कूड़ेदानों में ही पड़ा रहता। दूसरी तरफ, उनके काम करने का तरीका उनके लिए असुरक्षित और पर्यावरण के लिए विनाशकारी है। वे बिना किसी सुरक्षा उपकरण, जैसे दस्ताने या मास्क के इन जहरीली बैटरियों को हथौड़ों से तोड़ते हैं। लेड-एसिड बैटरियों से तेजाब को खुले में नालियों में बहा दिया जाता है और सीसे को छोटी-छोटी भट्टियों में पिघलाया जाता है, जिससे जहरीला धुआं सीधे हवा में घुल जाता है।

इस प्रक्रिया में काम करने वाले श्रमिक खुद सीसा विषाक्तता, त्वचा रोगों और सांस की गंभीर बीमारियों के शिकार होते हैं। इस तरीके से केवल कुछ मूल्यवान धातुओं की ही वसूली हो पाती है और बाकी जहरीले तत्त्व लापरवाही से जमीन या पानी में फेंक दिए जाते हैं, जो अंतत: हमारे पास लौट कर आते हैं। इस गंभीर स्थिति को पहचानते हुए केंद्र सरकार ने एक बड़ा कदम उठाया है। अगस्त 2022 में, सरकार ने ‘बैटरी अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2022’ अधिसूचित किया। ये नियम पुराने नियमों की जगह लेते हैं। ये एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्धांत पर आधारित हैं, जिसे ‘विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व’ कहा जाता है।

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सरल शब्दों में, अब बैटरी बनाने वाली या उसे आयात करने वाली कंपनी की जिम्मेदारी सिर्फ बैटरी बेचने तक सीमित नहीं होगी, बल्कि उसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जब वह बैटरी खराब हो जाए, तो उसे उपभोक्ताओं से वापस इकट्ठा किया जाए और पर्यावरण के अनुकूल तरीके से पुनर्चक्रण किया जाए। इन नए नियमों के तहत, सभी प्रकार की बैटरियों- पोर्टेबल, आटोमोटिव, औद्योगिक और इलेक्ट्रिक वाहन बैटरियों को शामिल किया गया है।

उत्पादकों के लिए हर वर्ष एक निश्चित मात्रा में पुरानी बैटरियों को इकट्ठा करने और उन्हें पंजीकृत पुनर्चक्रण करने वालों को सौंपने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इस पूरी प्रक्रिया की निगरानी के लिए एक केंद्रीकृत पोर्टल बनाया गया है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि कितनी बैटरियां बाजार में बेची गईं और उनमें से कितनी वापस पुनर्चक्रण के लिए आईं। नियमों में यह भी स्पष्ट किया गया है कि बैटरी कचरे को कूड़े के ढेर में दबाना या जलाना प्रतिबंधित है। यह नीति सैद्धांतिक रूप से बहुत मजबूत है और अगर इसे सही भावना से लागू किया जाए, तो यह भारत में बैटरी कचरे के प्रबंधन का चेहरा बदल सकती है।

हमें बैटरी पुनर्चक्रण को केवल कचरा प्रबंधन के रूप में नहीं, बल्कि एक आर्थिक अवसर के रूप में भी देखना चाहिए। आज भारत लिथियम और कोबाल्ट जैसी महत्त्वपूर्ण धातुओं के लिए पूरी तरह से आयात पर निर्भर है। पुरानी बैटरियों से इन धातुओं को निकालने की गुंजाइश बन सकी तो हम अपनी आयात निर्भरता कम कर सकते हैं।

यह एक ‘चक्रीय अर्थव्यवस्था’ बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम होगा, जहां कचरे को फेंकने के बजाय उसे वापस एक मूल्यवान संसाधन में बदल दिया जाता है। इससे न केवल हमारा पर्यावरण बचेगा, बल्कि नए रोजगार भी पैदा होंगे और हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा भी मजबूत होगी। एक स्वच्छ और टिकाऊ भविष्य के लिए, हमें अपनी बैटरियों का जिम्मेदारी से समापन करना सीखना ही होगा।