सेना के जवानों पर पत्थरबाजी और पलटवार में आम अवाम भी घायल। ईद और बकरीद पर भी सूना लाल चौक। डल झील में शिकारे पर पर्यटकों से ज्यादा सुरक्षाकर्मी। केसर और कशीदाकारी वाले जन्नत में पैलेट गन के दिए जख्म। बुरहान वानी देशभक्त या आतंकवादी जैसे सवाल पर सूबे की मुखिया भी कशमकश में। आज की इस तस्वीर के बरक्स शायद इस पर आसानी से भरोसा न हो कि कश्मीर घाटी की सड़कों पर कभी लोग फौजियों को देख कर ‘जय हिंद’ कह सलाम की मुद्रा में आ जाते थे। सड़क पर टहल रहा फौजी अवाम को अपने अमन का दूत लगता था। कश्मीर में फौज के साथ अवाम और अमन की यह सच्ची कहानी बहुत पुरानी नहीं है।

कर्नल मनमोहन बख्शी जो इस समय 90 की दहलीज पर हैं और दूसरे विश्व युद्ध में म्यांमार (तब बर्मा) और सिंगापुर में जापानी फौज के साथ लोहा ले चुके हैं, आज भी कश्मीर की पुरसुकून यादों को सहेजे हुए हैं। वे आज के जलते हुए कश्मीर की कसक पर कहते हैं, ‘मेरा दिल रोता है। घाटी में कभी ऐसा नहीं था। 1952 और 1958 में दो बार मेरी तैनाती वहां रही और घाटी के लाल चौक पर वैसे ही बेखौफ घूमते थे जैसे दिल्ली के कनॉट प्लेस या बंगाली मार्केट में’। आज कश्मीर में कई बार और कई जगह फौज और अवाम एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हुए दिख जाते हैं। फौज को उस दिल्ली का पर्याय मान लिया जाता है जो कश्मीरियों के लिए बहुत दूर है। दिल्ली के नोएडा स्थित अपने आवास में बातचीत के दौरान आज के इन हालात को कुछ देर के लिए भूलने की कोशिश करते हुए कर्नल बख्शी का कहना है कि श्रीनगर व इसके साथ सटे ग्रामीण इलाकों से गुजरते हुए वे कभी अखरोट खरीदने को रुकते तो ग्रामीण उनसे पैसे लेने से भी गुरेज करते थे। फौज को उसी आदर की नजर से वहां देखा जाता था जैसे देश के बाकी हिस्सों में। उनके सुपुर्द तब 58 गोरखा राइफल्स की कमान थी। ईद पर बिरयानी व सेवइयां व दिवाली पर जलेबी का लुत्फ उठाने के लिए हम लोग श्रीनगर घूमते और शाम ढलते ही डल झील के किनारे से चार चिनार का दीदार करते। बच्चे और नौजवां हमें सलामी ठोकते, हमसे हाथ मिलाते हुए जाते। कहीं सुकून से बैठ कर लोगों को लाम पर की कहानियां सुनाने का भी वो दौर याद है। लेकिन अफसोस कि भरोसे और अमन का वह दौर आज खुद एक कहानी है।

कर्नल बख्शी ने द्वितीय विश्व युद्ध में बर्मा व सिंगापुर के अलावा चार वर्ष तक नगालैंड की सीमा पर भी देश की रक्षा की। जब उनसे आतंकवादी ठिकानों पर सेना के लक्षित हमले का जिक्र किया तो उम्र के इस दौर में भी उनके चेहरे पर जोश उफान मारने लगा। वे कहते हैं, ‘ऐसा सुनते ही सीना चौड़ा हो जाता है। मैंने एक क्षण की भी देर किए बिना इसके हर विवरण को देखा और पढ़ा। दुश्मन हमारी उदारता को हमारी कमजोरी और अपनी बहादुरी मान रहा था। यह जरूरी था कि उसका ठोस जवाब दिया जाता’। यह पूछने पर कि इसके नतीजतन अब आगे क्या हो सकता है, कर्नल बख्शी का कहना है, ‘क्या हो सकता है, यह उतनी चिंता नहीं। क्या होना चाहिए उस पर मेरी राय है। हमें एक पल को भी अपनी चौकसी में ढील नहीं देनी है। दुश्मन अभी हमारी ढिलाई तक इंतजार जरूर करेगा। बारामूला में जो हुआ बस ऐसा ही होना चाहिए’।

कर्नल बख्शी का कहना है कि वे अपनी तैनाती के दौरान पुंछ के संवेदनशील इलाके में थे। ऐसा नहीं कि सीमा पर तब आपसी झड़पें या छिटपुट गोलीबारी नहीं होती थीं। लेकिन अब खौफनाक मंजर यह है कि दोनों देशों का तनाव इनके अवाम के बीच तक चला गया है। ऐसा दुश्मनी भरा माहौल पहले कभी नहीं था। फौजी का तो काम ही लड़ना है। द्वितीय विश्व युद्ध में जापानी फौजें मरने तक लड़ती थीं और हम भी जान हथेली पर रखते थे। आलम यह था कि जापानी फौज का मिशन अगर फेल हो जाता था तो उनका कमांडर आत्महत्या कर लेता था। फर्क इतना था कि वह लड़ाई फौजों के बीच में थी न कि इन मुल्कों के लोगों के बीच।

लक्षित सैन्य हमले के बाद भी कर्नल बख्शी इस बात को लेकर उम्मीदजदा हैं कि दोनों मुल्कों में सब ठीक हो सकता है। ‘यह मानना गलत है कि इसके बाद हालात खराब हो जाएंगे। उलटा इसके बाद यह भी हो सकता है कि दोनों देशों में सब ठीक हो जाए। आखिर हमारी कार्रवाई आम लोगों या फौज के खिलाफ न होकर आतंकवाद के खिलाफ है। और सच यह भी है कि पाकिस्तान खुद भी आतंकवाद से पीड़ित है। एक अरसे के बाद सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करते हुए अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाया है। यह वजह है कि मैं मौजूदा माहौल से उम्मीदजदा हूं’। बख्शी इस बात से भी आगाह करते हैं कि लड़ने का काम अवाम फौज पर ही छोड़ दे। अमन के लिए यह जरूरी है कि सरकार और सेना पर अवाम का भरोसा हो। सरकार भी सबको साथ लेकर चले। अंत में एक बार फिर से बख्शी इस बात की दुआ करते हैं कि कश्मीर में पत्थर बरसने के दिन जल्द लदेंगे और फिर से अमन और मोहब्बत की बरसात होगी।