पुण्य प्रसून वाजपेयी
सात रुपए का चेक। किसी किसान को मुआवजे के तौर पर अगर सात रुपए का चेक मिले तो वह क्या करेगा। 18 मार्च को परी ने जन्म लिया। अस्पताल से तीन अप्रैल को घर आई। हर कोई खुश। शाम को पोती होने के जश्न का न्योता हर किसी को दिया। लेकिन शाम को फसल देखने गए परी के दादा रणधीर सिंह की मौत की खबर खेत से आ गई। समूचा घर मातम में डूब गया।
तीन दिन पहले 45 बरस के सत्येंद्र की मौत हुई थी। बरबाद फसल के बाद मुआवजा चुकाए कैसे। आगे पूरा साल घर चलाएंगे कैसे। यह सोच कर सत्येंद्र मर गया तो बेटा अब पुलिस भर्ती की कतार में जाकर बैठ गया। ये सच बागपत के छतरौली के हंै जहां से किसानी करते हुए चौधरी चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री बन गए और किसान दिवस के तौर पर देश चरण सिंह के ही जन्मदिन को मनाता है। लेकिन किसान हितैषी बनने का जो सियासी खेल दिल्ली में शुरू हुआ है और तमाम राज्यों के मुख्यमंत्री अब किसानों के हक में खड़े होने का प्रलाप कर रहे हैं, उसकी हकीकत किसानों के घर जाकर ही समझी जा सकती है। खासकर बागपत। वही बागपत जो चरण सिंह की राजनीतिक प्रयोगशाला भी रही और किसान के हक में आजादी से पहले खड़े होकर संघर्ष करने की जमीन भी।
1942 में पहली बार छपरौली के दासा गांव में किसानों के हक के लिए संघर्ष करते चरण सिंह को गिरफ्तार करने फिरंगी पुलिस पहुंची थी। तब सवाल लगान और खेती की जमीन नहीं देने का था। दासा गांव के बडेÞ बुजुर्ग आज भी 1942 को याद कर यह कहने से नहीं चूकते कि तब उन्होंने चौधरी साहब को गिरफ्तार होने नहीं दिया था। उसके बाद किसी ने उनकी जमीन पर अंगुली नहीं उठाई। छपरौली का मतलब ही चौधरी चरण सिंह था, जहां खेती के लिए सिंचाई का सवाल उठता रहा। जहां खाद के कारखाने लगाने की बात उठी, जहां मुआवजे को लेकर किसान को हाथ फैलाने की जरूरत न पड़ी।
लेकिन हालात कैसे, किस तरह बदलते गए कि पहली बार खुशहाल गांव के भीतर मरघट-सी खामोशी हर किसी को डराने लगी है। खामपुर गांव हो या धनौरा गांव या फिर रहतना गांव या जानी गांव। कहीं भी चले जाइए, किसी घर की साकंल खटखटा दीजिए और नाम ले लीजिए चौधरी चरण सिंह का। उसके बाद सिर्फ यह सवाल खड़ा कर दीजिए कि चौधरी होते तो अब क्या कर लेते? सारे सवालों के जवाब बच्चों से लेकर बड़े बुजुर्ग तक बिना सांस रोके लगातार देने लगेंगे। यह सवाल छोटा पड़ जाएगा कि किसानों के लिए सरकार करे क्या, जिससे राहत मिल जाए।
हाल यह है कि गन्ना किसानों के घर में मिल मालिकों की दी हुई पर्चियों के बंडल हैं। लिखा है कि इतना गन्ना दिया गया, इतने पैसों का भुगतान होगा। कब होगा, कोई नहीं जानता। अब चीनी मिल ने गन्ने के एवज में रुपया देने के बदले पचास फीसद रकम की चीनी बांटनी शुरू कर दी है। ले जाइए तो ठीक, नहीं तो चीनी रखने का किराया भी गन्ना किसान की रकम से कट जाएगा। धान कल तक उत्तर प्रदेश से हरियाणा जा सकता था। लेकिन हरियाणा में सत्ता बदली है तो अब धान भी हरियाणा की मंडी में उत्तर प्रदेश का किसान नहीं ले जा सकता है। धान की मंडी बागपत के इर्द-गिर्द कहीं है नहीं।
1977 में बागपत से चुनाव जीतने के बाद चौधरी चरण सिंह ने धान मंडी लगाने की बात जरूर कही थी । लेकिन उसके बाद तो कोई सोचता भी नहीं। टुकड़े में बंटे खेतों की चकबंदी चौधरी चरण सिंह ने शुरू कराई, लेकिन अब आलम यह है कि बागपत के सोलह गांवों में बीते 32 बरस में सिंचाई के लिए अलग-अलग एलान हुए। दासा गांव की सिंचाई योजना पर 62 करोड़ खर्च हो गए, लेकिन पानी है ही नहीं। जमीन के नीचे 123 फीट तक पानी चला जा चुका है। जो दो सौ फीट तक पानी निकाल लेता है, वह यह कहकर खुश हो जाता है कि असल मिनरल वाटर तो उसके खेत या घर पर है।
दिल्ली जिस भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के जरिए विकास का सपना संजो रही है, उसके उलट बागपत का किसान उसी मत पर टिका है जिसे चरण सिंह बता गए , यानी जमीन पर किसान का मालिकाना हक बढ़ाने पर जोर दिया जाना चाहिए। बागपत के लड़के नए प्रयोग कर डिब्बा बंद गन्ने का जूस की फैक्ट्री लगाने को तैयार हैं। लेकिन उनके पास पैसा है नहीं और सरकार तक वे पहुंच नहीं सकते। सरकार उन तक पहुंचती नहीं तो गन्ना जूस की टेक्नालॉजी घर में पड़ी बरबाद फसलों के बीच ही सड़-गल रही है।
रहतना गांव के गुलमोहर की मौत के बाद उसके परिवार वालों को लग रहा है कि ना काम है, ना दाम तो आगे करें तो क्या करें। लेकिन सरकार ने जगह-जगह दीवारों पर नारे लिख दिए गए हंै कि गांव-गांव को काम मिलेगा। काम के बदले दाम मिलेगा। लेकिन किसानों का सच है कि सिर्फ दशमलव तीन फीसद लड़के नौकरी करते हैं। बाकी हर कोई खेती या खेती से जुडेÞ सामानों की आवाजाही के सामानों की दुकान खोलकर धंधे में लगा है।
रोजगार के लिए सबसे बड़ी नौकरी पुलिस भर्ती की निकली है। लेकिन वह भी जातीय आधार पर सैफई और मैनपुरी में सिमटी है तो बागपत के गांव-दर-गांव में पुलिस भर्ती का विरोध करते किसानों के बेटे सड़क किनारे नारे लगा रहे हंै। बैंक, कोआॅपरेटिव और साहूकार। अस्सी फीसद किसान इन्हीं तीन के आसरे खेती करते हैं, जिन्हें दिल का दौरा पड़ा, जो बरबाद फसल देखकर मर गए। उन परिवारों समेत बागपत के बीस हजार किसान औसतन दो से पांच लाख कैसे लौटाएंगे। न लौटाने पर जो कर्ज चढ़ेगा वह अगले बरस कैसे तीन से नौ लाख तक हो जाएगा।
इसी जोड़-घटाव में सोचते-सोचते हर किसान की पेशानी पर शिकन बड़ी होती जा रही है। फिर मुआवजे पर तकनीकी ज्ञान को लेकर हर कोई उलझा है क्योंकि मुआवजा तो पटवारी , तहसीलदार, एसडीएम, डीएम, कमिश्नर और फिर दिल्ली से आएगा। यानी मुआवजे का रास्ता इतना लंबा है कि हर हथेली आखिरी तक खाली ही रहती है, इसलिए मुआवजे का एलान लखनऊ में हो या दिल्ली में उम्मीद या भरोसा किसी में जागता नहीं है।
दासा गांव के रणधीर सिंह की मौत तो यह सोचकर ही हो गई कि कोआॅपरेटिव का पैसा न लौटाया और बैंक का कर्ज चढ़ता चला गया तो फिर घर का क्या-क्या बिकेगा। अभी तक कोई आदेश-निर्देश तो किसानों के घर नहीं पहुंचा, लेकिन फसल बरबाद होने के बाद डर ऐसा है कि हंसता-खिलखिलाता गांव सन्नाटे में नजर आने लगा है।
अब तमाम सवालों को उठाने पर हर जुबां पर बिखरे-बिखरे शब्दों के बीच यह सोच है: फसल ऊपर वाला ले गया, नौकरी अखिलेश ले जा रहे हैं। जमीन मोदी ले जाएंगे।