अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को कार्यभार संभाले एक महीने से अधिक हो गया है। वैश्विक स्तर पर चर्चा है कि अमेरिका अपने दबदबे को तेजी से बढ़ाएगा। यह दिख भी रहा है। ट्रंप वर्ष 2024 में राष्ट्रपति चुनाव लड़ते समय कुछ मुद्दों पर बहुत आक्रामक रहे। इनमें विश्व के दूसरे देशों से किए आयात शुल्क में बढ़ोतरी हो या अमेरिका में रह रहे आप्रवासियों की नागरिकता की वैधता के संबंध में किए जाने वाले कुछ कठिन निर्णय। कोई दो मत नहीं कि भारत भी इन दोनों पक्षों पर राष्ट्रपति ट्रंप की नीतियों से प्रभावित होगा।
आप्रवासी भारतीयों के संबंध में अमेरिकी रुख साफ है। उसने हमारे नागरिकों को अवैध करार देकर अपने देश से निकालना शुरू कर दिया है। ट्रंप ने विभिन्न आयातों पर शुल्कों में बढ़ोतरी कनाडा और मैक्सिको से लेकर चीन तक पर थोप दी है। बीते दिनों प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान ट्रंप के साथ मुलाकात में पारस्परिक शुल्क के निर्णय की बातें पूरे वैश्विक मीडिया में छाई रहीं। अब इन पर आने वाले समय में क्या निर्णय होगा, देखने की बात है।
व्यापारी से राजनेता बने हैं ट्रंप
अमेरिका वैश्विक व्यापार, आयात और निर्यात में लगातार घाटों के दौर से गुजर रहा है। इन घाटों पर अमेरिका को लगाम लगाना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि चीन की अमेरिका के घरेलू बाजार में पहुंच व्यापारिक फायदे से बढ़ कर उसे नियंत्रित करने के स्तर तक आ गई है। इससे अमेरिका अब आशंकित है। एक रपट के मुताबिक वर्ष 2019 से अमेरिका का वैश्विक व्यापार घाटा 846 अरब अमेरिकी डालर से बढ़ कर वर्ष 2024 के अंत तक 1212 अरब डालर तक पहुंच गया है। यह स्थिति अमेरिका के लिए बहुत चिंतित करने वाली है। ट्रंप राजनेता से पहले एक व्यापारी हैं, उन्होंने बहुत मुखर होकर अमेरिका की आर्थिक नीतियों में शुल्क बढ़ोतरी को अपने चुनावी अभियान में उठाया। इससे अमेरिका की जनता का उन्हें विश्वास भी हासिल हुआ और वे दूसरी बार राष्ट्रपति चुने गए।
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राष्ट्रपति ट्रंप अमेरिकी आयातों पर शुल्क में बढ़ोतरी कर जहां एक तरफ वित्तीय आय के नए स्रोत पैदा करना चाहते हैं, वहीं कुछ देशों को सचेत भी करना चाहते हैं जो पारस्परिक व्यापार में मुनाफे में हैं। एक रपट के मुताबिक अमेरिका का सबसे अधिक व्यापारिक घाटा, चीन के साथ 295 अरब डालर का है। चीन से आयात 439 अरब डालर का है, जबकि चीन को अमेरिका का निर्यात 144 अरब डालर ही है। चीन के बाद दूसरे स्थान पर मैक्सिको है, जिसके साथ अमेरिका का व्यापारिक घाटा 172 अरब डालर का है। तीसरे स्थान पर 123 अरब डालर घाटे के साथ वियतनाम है। उसके बाद इजराइल, जर्मनी, ताइवान, जापान, दक्षिण कोरिया और कनाडा हैं।
लगातार बढ़ रहा अमेरिका का घाटा
गौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारत के साथ भी अमेरिका घाटे में रहता है। वर्तमान में अमेरिका का यह घाटा 46 अरब डालर के बराबर है और इस सूची में भारत दसवें स्थान पर है। अमेरिका, भारत से तकरीबन 87 अरब डालर का आयात करता है। भारत को उसका निर्यात, आयात के आधे के बराबर यानी 42 अरब डालर है। हालांकि थाईलैंड के साथ भी उसका घाटा 46 अरब डालर ही है, लेकिन भारत की तुलना में अमेरिका, थाईलैंड से काफी कम आयात करता है। अन्य देशों में इटली, स्विट्जरलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया, फ्रांस, आस्ट्रिया, कंबोडिया, स्वीडन और हंगरी हैं, जिनके साथ अमेरिका का घाटा लगातार बढ़ रहा है।
शुल्क को लेकर भारत के प्रति अमेरिकी रुख को अगर समझने की कोशिश करें, तो अमेरिका का भारत के साथ वैश्विक आयात में हिस्सा मात्र 19 फीसद है। फार्मा क्षेत्र में अमेरिकी आयात 45 फीसद है। यानी फार्मा क्षेत्र के कुल अमेरिकी आयात की एक तिहाई की पूर्ति भारतीय बाजार से होती है। मगर अमेरिका के कुल आयात में औषधि क्षेत्र की भागीदारी करीब पांच फीसद ही है। वहीं, परमाणु रिएक्टर और बायलर्स के आयात में भारत का हिस्सा 20 फीसद है, जबकि उस क्षेत्र का अमेरिका के कुल आयात में सात फीसद का हिस्सा है। वैसे ही सोना, आभूषण तथा इलेक्ट्रिकल मशीनरी का भारत से आयात कुल मांग का 30 फीसद होता है, लेकिन इन दोनों की अमेरिका के कुल आयात में भागीदारी अधिकतम आठ फीसद की है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में भी देखा जाएगा असर
वस्त्र क्षेत्र में तो अमेरिका भारत से अपनी मांग का 50 फीसद हिस्सा आयात करता है, लेकिन यह अमेरिका के कुल आयात में मात्र एक फीसद है। इससे स्पष्ट है कि अमेरिका के मद्देनजर वैश्विक व्यापारिक घाटे में भारत की बड़ी भूमिका नहीं है, जिसके हिसाब से वह अपनी शुल्क नीति निश्चित करे। मगर भारत के मद्देनजर यह भी एक सच्चाई है कि दवाइयां, कपड़े, परमाणु रिएक्टर, इलेक्ट्रिक मशीनरी, सोना-आभूषण आदि अमेरिका को अधिकतम निर्यात होता है और इन सब का हिस्सा भारत के कुल निर्यात में तकरीबन 20 फीसद से अधिक है।
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अगर अमेरिका इन पर शुल्क बढ़ाता है, तो यकीनन उससे इन क्षेत्रों पर बहुत मार पड़ेगी और इसका भारतीय अर्थव्यवस्था में भी असर देखा जाएगा। इस पक्ष पर फार्मा क्षेत्र के संबंध में एक बिंदु और विचारणीय है कि भारत द्वारा अमेरिका को न्यूनतम लागत पर कई जेनेरिक दवाइयों का निर्यात किया जाता है, जो अमेरिका के लिए बड़ा लाभदायक है, लेकिन अगर अमेरिका द्वारा दवा क्षेत्र पर भी शुल्क बढ़ाया जाता है, तो इससे इन दवाइयों की लागत अमेरिका के घरेलू उत्पादकों के लिए बढ़ जाएगी, जो फायदेमंद सौदा नहीं होगा।
अचंभित करने वाली एल्युमीनियम तथा स्टील पर की गई शुल्क बढ़ोतरी
एल्युमीनियम तथा स्टील पर की गई शुल्क बढ़ोतरी अचंभित करने वाली है और इसका भारत पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इन पर ट्रंप द्वारा अपने पिछले कार्यकाल में वर्ष 2018 में दस फीसद शुल्क निश्चित किया गया था। इस दर को ट्रंप ने अपने इस कार्यकाल में बढ़ा कर 25 फीसद कर दिया है। इस बढ़ोतरी से भारत का यह क्षेत्र बहुत अधिक प्रभावित होगा। राष्ट्रपति ट्रंप को यह भी समझना होगा कि भारत का अमेरिका को एल्युमीनियम निर्यात तीन फीसद ही है और स्टील में तो यह 1.50 फीसद है। जबकि अमेरिका एल्युमीनियम का सबसे अधिक आयात कनाडा से करता है।
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सकारात्मक बात यह है कि सेवा क्षेत्र के अंतर्गत भारत तेजी से अमेरिका को निर्यात कर रहा है। इन दिनों चर्चा है कि भारत अमेरिकी चीजों पर आयात शुल्क कम करें, ताकि अमेरिका इस बात से प्रोत्साहित होकर भारतीय आयात पर भी शुल्क कम लगाए। इसके एवज में भारत अगर वैश्विक व्यापार में अपनी नीतियों में बदलाव करते हुए सेवा क्षेत्र से अमेरिका को होने वाले निर्यात को बढ़ाने पर अधिक ध्यान केंद्रित रहे, तो यह उसके लिए तुलनात्मक रूप से मुनाफे वाला सौदा हो सकता है। भारत को यह भी समझना होगा कि अमेरिका में इस नई शुल्क नीति के कारण जब अमेरिका के आयात महंगे होंगे, तो उसका असर वहां के घरेलू बाजार में देखने को भी मिलेगा। जो भी हो, अमेरिकी डालर में भारतीय मुद्रा की तुलना में मजबूती का दौर अब लगातार चलने वाला है। इससे भारत को बहुत सतर्क रहना होगा, क्योंकि इसका असर भारत के सभी आयात पर पड़ेगा और उससे घरेलू बाजार में महंगाई भी बढ़ेगी।