जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां मानवता के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। तमाम प्रयासों के बावजूद वर्ष 2024, अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा। इतना ही नहीं, यह पहला वर्ष होगा, जब दुनिया का औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस ज्यादा दर्ज हुआ। इस तरह वर्ष 2024 अब तक के सबसे गर्म वर्ष के रूप में दर्ज हुआ। यूरोपीय जलवायु एजंसी ‘कोपरनिकस’ ने नए वर्ष के पहले ही हफ्ते में इस बात की पुष्टि भी कर दी। यह बहुत चिंताजनक स्थिति है।

वर्ष 1850 से वैश्विक तापमान के माप की शुरूआत हुई। तब से संग्रहित आंकड़ों को देखने और तुलनात्मक अध्ययन के बाद इस दिशा में सक्रिय एजंसियां इस निष्कर्ष पर पहुंचीं कि वर्ष 1850 के बाद से अब तक का सबसे गर्म वर्ष 2024 ही रहा। बीते वर्ष के महीनों पर निगाह डालें तो चिंता और बढ़ती है। वर्ष 2024 में जनवरी से जून तक का हर महीना अब तक का सबसे गर्म महीना रहा। वहीं जुलाई से दिसंबर तक, सिवाय अगस्त के, हर महीना 2023 के बाद रेकार्ड स्तर पर दूसरा सबसे गर्म महीना रहा।

जलवायु संकट पर काबू पाने के लिए महत्त्वपूर्ण वैश्विक संधि है पेरिस समझौता

‘कोपरनिकस जलवायु परिवर्तन सेवा’ के अनुसार, पिछले वर्ष यूरोप में सूखा, जंगल में आग, बाढ़ और रेकार्ड गर्मी का भी सामना करना पड़ा। हालांकि अमेरिका का लास एंजिल्स अभी भी आग के कारण बहुत बुरी स्थिति में है, लेकिन विडंबना देखिए, इस मुहिम का अहम सदस्य अमेरिका ही अब उससे अलग हो गया है। वहां नए राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेते ही डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस समझौते से अपने देश के बाहर होने की औपचारिक घोषणा कर दी। पेरिस समझौता, जलवायु संकट पर काबू पाने के लिए महत्त्वपूर्ण वैश्विक संधि है।

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इतना ही नहीं, उन्होंने आदेश पर हस्ताक्षर करने से पहले अपने समर्थकों को कारण बताते हुए इसे अनुचित और एकतरफा बताया। यह पहली बार नहीं है, जब ट्रंप ने ऐसा किया हो। अपने पहले कार्यकाल के दौरान भी वह ऐसा कर चुके हैं। हालांकि तब अमेरिका चार महीने ही बाहर रह पाया, क्योंकि बाइडेन के सत्ता में आते ही फिर समझौते में शामिल हो गया। इस कारण तब इस मुहिम पर कम प्रभाव पड़ा था।

ट्रंप का फैसला जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में बड़ी बाधा

यह भले ट्रंप की चालाकी हो, लेकिन वैश्विक स्तर पर इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिका को अब अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर वार्षिक आंकड़े जारी करने की आवश्यकता नहीं है। यह जलवायु परिवर्तन संबंधी वास्तविकता और आंकड़ों को जुटाने के लिहाज से घातक होगा। साथ ही, इस दिशा में वैश्विक स्तर पर उठाए जा रहे कदमों की पारदर्शिता में भी कमी तय है। निश्चित रूप से यह निर्धारित या सुनिश्चित करना भी कठिन हो जाएगा कि दुनिया समग्र रूप से ग्रीन हाउस उत्सर्जन में कमी के मामले में किस तरह और कितना आगे बढ़ रही है। ट्रंप का यह कदम जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में बड़ी बाधा है। अमेरिका के समझौते से हटने के यह भी मायने हैं कि इससे आर्थिक रूप से कमजोर देशों की स्थिति और ज्यादा मुश्किल होती जाएगी।

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पेरिस समझौते से अलग होने का अमेरिका का कदम जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए प्रयासरत सभी देशों और इसके विनाशकारी प्रभावों से जूझ रहे लोगों के लिए एक चुनौती से कम नहीं। इसे बेहद दुखद और प्रकृति विरोधी कदम कहा जाएगा। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मामले में चीन दुनिया में दूसरे क्रम पर है। अमेरिका के हटने से आए अंतर को पाटने के लिए अब सबकी निगाहें चीन और दूसरे यूरोपीय संघ पर होंगी। 2025 में होने वाला ‘काप-30 जलवायु शिखर सम्मेलन’ ब्राजील के अमेजन शहर में होगा। इसके लिए आंद्रे कोरेया डो लागो को प्रमुख बनाया गया है। उन्होंने इस बारे में न केवल चिंता जताई है, बल्कि यह भी कहा कि वे, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पेरिस समझौते से अमेरिका को वापस लेने के फैसले का विश्लेषण कर रहे हैं।

शीतलहर से मरने वालों की घटी है संख्या

लेकिन इतना तो तय है कि वार्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यह भी कि अब विश्व को ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े ऐतिहासिक उत्सर्जक देश ने एक दशक में दूसरी बार जलवायु परिवर्तन से लड़ने के वैश्विक प्रयासों से ही जैसे बाहर कर दिया है। इतना तो समझ आने लगा है कि अमेरिका के इस कदम से ‘काप-30 सम्मेलन’ हाल के वर्षों के सबसे कठिन सम्मेलनों में से एक होगा। अब विश्व के सामने बड़ी ऊहापोह वाली स्थिति है।

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सच्चाई यह भी है कि वर्ष 2016 से 2019 और 2000 से 2003 के बीच झुलसाती हवाओं से काफी लोगों की मौत हुई। वहीं दूसरी ओर, शीतलहर से मरने वालों की संख्या घटी है। साफ समझ आता है कि यह जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहा है। लेकिन यह भी सच्चाई सामने है कि पहले जैसी सर्दियों का असर घट रहा है। कोई कुछ भी कहे, जलवायु परिवर्तन का असर प्रकृति पर साफ झलकता है। जलवायु परिवर्तन से जुड़े लक्ष्य प्राप्त करने के लिए 2030 तक प्रति वर्ष 387 अरब डालर तक खर्च करने की आवश्यकता होगी। वर्ष 2050 तक यह राशि काफी अधिक हो जाएगी। इतनी रकम जुटाना असंभव लगता है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन से जुड़े देशों का 2022 में योगदन महज 115.9 अरब डालर था।

अमेरिका के रवैये से ताकत के बदलते संतुलन को लेकर अनिश्चितताएं बढ़ी हैं

इसमें कोई दो राय नहीं कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में जलवायु परिवर्तन से निपटने की वैश्विक पहलों को तगड़ा झटका लगने वाला है, लेकिन उम्मीद की जा सकती है कि हिंद प्रशांत के अन्य देशों को ही ऐसी पहल करनी होगी, ताकि अमेरिका के बगैर इस मुद्दे पर परस्पर सहयोग बढ़ाएं और मुहिम जारी रहे। ट्रंप के जीतते ही क्रिस राइट ने कहा था कि बहुत महंगी हरित ऊर्जा से उनका देश पीछे हटेगा और ज्यादा उत्सर्जन वाले ऊर्जा संसाधनों को बढ़ावा देगा। अमेरिका के रवैये से ताकत के बदलते संतुलन को लेकर अनिश्चितताएं बढ़ी हैं। ऐसे में हिंद प्रशांत क्षेत्र के अहम देश जैसे भारत, जापान और दक्षिण कोरिया को इस दिशा में और सक्रिय होना होगा।

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बदलती परिस्थितियों में यही मिल कर न्यायोचित हरित परिवर्तन ला सकने में सक्षम होंगे। निश्चित रूप से यही देश सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जैविक ईंधन और पनबिजली के जरिए अक्षय ऊर्जा के उत्पादन के प्रयासों में खासी वृद्धि ला सकते हैं। इसके साथ ही स्टील, लोहा और सीमेंट उद्योग जैसे चुनौती भरे उद्योगों की समस्याओं को दूर करने के साथ उनमें ग्रीन हाइड्रोजन जैसे नए वैकल्पिक ईंधन का इस्तेमाल कर इन उद्योगों को और हरित बनाने में कारगर पहल कर सकते हैं। हो सकता है कि ट्रंप के पेरिस समझौते से अलग होने का निर्णय दूसरे देशों के लिए अवसर बने। कुछ भी हो, अमेरिकी राष्ट्रपति को नहीं भूलना चाहिए कि इसी प्रकृति से उनका और अमेरिका का भी अस्तित्व है। फिलहाल, सिवाय अमेरिका और उसके चंद समर्थक देशों को छोड़, एकजुट तमाम देश जलवायु परिवर्तन के लिए काफी कुछ बदलने की तैयारी में हैं। ‘काप-30 सम्मेलन’ अब तक हुए सम्मेलनों से बेहद अलग और खास होगा और दुनिया को इससे नया संदेश, नई राह मिलना तय है।