Caste Census: समाजवादी पार्टी लगातार दलितों के बीच अपनी पकड़ मजबूत कर रही है। इस बीच सपा के एक पोस्टर लगाया जिसको लेकर बीजेपी और बहुजन समाज पार्टी को बिल्कुल ही पसंद नहीं आया है। इसके चलते दोनों ने ही इसे सीधे तौर पर संविधान निर्मता का अपमान बताया है।
सपा पोस्टर में अखिलेश के आधे चेहरे की तस्वीर, भीमराव अंबेडकर फोटों के कटआउट के पास लगाई गई है। इसको लेकर केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा कि सपा दलित वोट हासिल करने की कोशिश कर रही है। वह कांग्रेस की गोद में बैठी है, जिसने 1952 के चुनाव में अंबेडकर की हार सुनिश्चित की थी।
बीएसपी बोली- बसपा ने कभी नहीं किया अंबेडकर का सम्मान
कुछ इसी तरह बीएसपी के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष विश्वनाथ पाल ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव और अखिलेश समेत सपा नेताओं ने कभी भी अंबेडकर का सम्मान नहीं किया। बीएसपी नेता ने कहा कि सपा सरकार ने अंबेडकर और कांशीराम के नाम पर रखे गए जिलों का नाम बदल दिया, जबकि सपा के शीर्ष नेताओं ने लखनऊ में बसपा सरकार द्वारा बनाए गए अंबेडकर स्मारक को ‘अय्याशी का अड्डा’ बताया। यह पोस्टर बाबा साहब का घोर अपमान है।
बता दें कि को सपा के अग्रणी संगठन समाजवादी लोहिया वाहिनी द्वारा लखनऊ स्थित पार्टी मुख्यालय के बाहर पोस्टर लगाए जाने के बाद सियासी पारा चढ़ गया है। सपा लोहिया वाहिनी के अध्यक्ष अभिषेक यादव ने इस कदम का बचाव करते हुए कहा, “अखिलेश जी ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो वंचित वर्गों के लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के अंबेडकर के सपनों को पूरा कर सकते हैं।” सपा ने अंबेडकर को पिछड़ा (पिछड़ा वर्ग), दलित, अल्पसंख्यकों का मसीहा” कहा है।”
पोस्टर के बचाव में क्या बोले सपा प्रवक्ता
सपा प्रवक्ता आशुतोष वर्मा ने भी अभिषेक यादव और वाहिनी का बचाव किया। उन्होंने कहा कि “पार्टी का एक कार्यकर्ता प्रतीकात्मक संदेश दे रहा है कि अखिलेश संविधान की रक्षा में अग्रणी हैं, लेकिन भाजपा अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारण लोगों का ध्यान मूल मुद्दों से भटकाने की कोशिश कर रही है।”
लोकसभा चुनाव में सपा को पीडीए के फॉर्मूले के तहत बड़ा फायदा मिला था। पार्टी ने 37 सीटें अपने नाम की थी। सपा के अंदरूनी सूत्रों ने 1991 के इटावा लोकसभा चुनावों में बसपा संस्थापक कांशीराम को सपा के समर्थन का हवाला दिया। इसके जरिए उन्होंने बताया कि अंबेडकर की विचारधारा के प्रति मुलायम सिंह यादव के सम्मान की ओर इशारा किया। उनका दावा है कि इस जीत ने सपा-बसपा गठबंधन और दलितों और ओबीसी को मिलाकर एक नए निर्वाचन क्षेत्र के गठन की नींव रखी।
अंबेडकर के सम्मान के जरिए दलित वोटों पर नजर
2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से पहले अपनी स्थापना के बाद पहली बार सपा ने दलितों के लिए एक समर्पित विंग यानी समाजवादी बाबा साहेब अम्बेडकर वाहिनी का गठन किया, जिसका उद्देश्य “अम्बेडकर और समाजवादी प्रतीक राम मनोहर लोहिया की विचारधाराओं को आगे बढ़ाना है। अखिलेश ने दावा किया कि 2023 में मुलायम सिंह और लोहिया द्वारा शुरू किया गया समाजवादी आंदोलन और अंबेडकर और कांशीराम द्वारा दिखाया गया रास्ता एक ही है और उन्होंने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से इसी रास्ते पर चलने का आग्रह किया है।
अखिलेश ने 14 अप्रैल को उनकी जयंती पर इटावा में अंबेडकर की प्रतिमा का अनावरण किया और उन्हें देश का सबसे बड़ा विद्वान, अर्थशास्त्री, समाज सुधारक और वकील बताया। सपा ने राज्य भर में प्रमुख दलितों तक पहुंचने और उन्हें सम्मानित करने के लिए एक सप्ताह तक चलने वाला “अंबेडकर जयंती स्वाभिमान सम्मान समारोह” अभियान भी चलाया।
दिलचस्प है ये अतीत
सपा और बसपा ने पहली बार 1993 के विधानसभा चुनावों में हाथ मिलाया था। हालांकि भाजपा 425 सीटों में से 174 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन सपा-बसपा गठबंधन ने सामूहिक रूप से 176 सीटें जीतीं और कांग्रेस (28), जनता दल (7) और छोटे दलों के समर्थन से मुलायम के नेतृत्व में सरकार बनाई। सरकार बनने के बमुश्किल दो साल बाद ही सपा और बसपा के बीच मतभेद उभर आए, जिसके बाद जून 1995 में मायावती ने समर्थन वापस ले लिया और बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। हालांकि, उनकी सरकार सिर्फ़ चार महीने ही चल पाई।
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सपा बसपा के बीच बढ़ीं दूरियां
सपा और बसपा के बीच दूरियां बढ़ती गईं और 2012 में उत्तर प्रदेश में सपा के अकेले सत्ता में आने के बाद अखिलेश ने मायावती द्वारा शुरू की गई अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए 26 कल्याणकारी योजनाओं को खत्म कर दिया। उनकी सरकार ने सरकारी ठेकों में एससी के लिए आरक्षण भी खत्म कर दिया।
2018 में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनावों के लिए दोनों दल फिर से एक साथ आए और दोनों में जीत हासिल की। अपनी सफलता से उत्साहित, सपा और बसपा ने 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए महागठबंधन बनाने के लिए तत्कालीन अजीत सिंह के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के साथ हाथ मिलाया। हालांकि, चुनावों में गठबंधन के खराब प्रदर्शन के बाद सपा और बसपा ने संबंध तोड़ लिए।