विचार आप रोक नहीं सकते और संघर्ष बिना विचार बड़ी सफलता पा नहीं सकता। तो क्या आम आदमी पार्टी पहली बार संघर्ष और विचार के टकराव से गुजर रही है। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की पहचान विचारधारा के साथ रही है तो केजरीवाल की पहचान संघर्ष करने वाले नेता के तौर पर रही है।
दिल्ली में आम आदमी पार्टी का सच यही है कि केजरीवाल के संघर्ष पर बौद्धिक नेता विचारधारा का मुलम्मा चढ़ाकर अपने विचारों की सफलता-असफलता भी आंकते रहे हैं। केजरीवाल विचारधाराओं की राजनीति में संघर्ष करते हुए खुद को आम आदमी ही बनाए रहे। यानी योगेंद्र और प्रशांत भूषण अवामी पहचान होने के बाद भी मजमा-जुटाऊ नहीं है। और केजरीवाल की इस खासियत ने उन्हें अवामी पहचान दे दी।
लेकिन सवाल तो आम आदमी पार्टी के जरिए देश की उस आम जनता का ही है जो पहली बार राजनीतिक व्यवस्था से रूठ कर बदलाव के लिए कसमसा रही है। चुनावी जनादेश की अंगड़ाई बताती है कि पहले मोदी लहर और फिर केजरीवाल की आंधी सिर्फ सत्ता के प्रतीकात्मक बदलाव हैं।
एक आस के तौर पर जागी आप भाजपा और कांग्रेस पर भारी इसलिए पड़ने लगी कि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों की नीतियां लगातार जनविरोधी रास्ते को पकड़े रहीं। सत्ता के दायरे में पूंजीपतियों और कारपोरेट का बोलबाला हुआ। घोटालों की फेरहिस्त कांग्रेस के दौर में खुली किताब की तरह उभरी तो भाजपा के सत्ता में आने के बाद भारत को दुनिया के लिए बाजार बनाने की खुली वकालत नीतियों से लेकर कूटनीति तक के जरिए शुरू हुई।
एक-दूसरे को राजनीतिक विकल्प मानने वाली कांग्रेस-भाजपा के विकल्प के तौर पर न चाहते हुए देश की राजनीति में दिल्ली एक प्रयोगशाला इसीलिए बनी कि पहली बार जाति और संप्रदाय का जिक्र नहीं था। पहली बार कारपोरेट और क्रोनी कैपटलिज्म के खिलाफ खुला एलान था। पहली बार जनता की न्यूनतम जरूरतों पर भी कुंडली मारे कारपोरेट और राजनीतिक भ्रष्ट तंत्र का खुला प्रचार था। यानी सत्ता बदलने के बाद भी देश के हालात क्यों नहीं बदल पाते हंै या सत्ता के करीबियों को ही सत्ता बदलने का लाभ क्यों मिलता है। बाकी देश के हालात में कोई परिवर्तन क्यों नहीं हो पाता, यह सवाल चाहे अनचाहे दिल्ली चुनाव में उभर गया।
असर इसी का हुआ कि ऐतिहासिक जनादेश समूचे देश को अंदर से राजनीतिक तौर पर इस तरह झकझोर गया कि हिंदी पट्टी के क्षत्रपों को लगने लगा कि केजरीवाल का रास्ता अपना कर वे भी भाजपा को रोक सकते हैं। झटके में जो मोदी सरकार लोकसभा के जनादेश के बाद उड़ान पर थी वह जमीन पर आ गई। कांग्रेस के भीतर भी अल्पसंख्यक प्रेम को लेकर सवाल उठे। नरम हिंदुत्व की पुरानी कांग्रेस लकीर दुबारा खींचने की कोशिश शुरू हुई। जाहिर है चुनावी संघर्ष के दौर की आम आदमी पार्टी के खुले कैनवास पर पहली बार रंग भरने की केजरीवाल ने सोची।
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यानी चुनाव के दौर में कार्यकर्ता से लेकर बौद्धिक जगत और समाजसेवियों से लेकर एक्टीविस्टों की जो बरसात केजरीवाल के नाम पर हो रही थी, जीत के बाद उसे कैसे समेटा जाए।
केजरीवाल के सामने यह सवाल ठीक उसी तरह का था जैसे वीपी सिंह के दौर में जब जन समर्थन बोफर्स घोटाले के खिलाफ सड़क पर उठा तो देश ने पहली बार कांग्रेस को फड़फड़ाते हुए भी देखा और उसके बाद मंडल-कंमडल तले खत्म होते भी देखा। इतिहास में और पीछे लौटें तो जनादेश की पीठ पर सवार 1977 में जनता पार्टी का कलह भी रास्ते बनाने की जगह रास्ते उलझा गया। यानी आपातकाल के अंधेरे से उजाला तो निकला, लेकिन कैनवास पर कोई रंग जनता पार्टी भी नहीं छोड़ पाई। दिल्ली के ऐतिहासिक जनादेश को उठाए केजरीवाल भी आम आदमी पार्टी के खुले कैनवास पर कोई रंग भरते, उससे पहले ही दिल्ली चुनाव प्रचार में कमान संभालने वालों ने अपना रंग भरना शुरू कर दिया।
जो कैनवास खामोशी से रंगा जा सकता था, उस पर रंग कीचड़ की तर्ज पर उछाले जाने लगे। प्रशांत भूषण की शागिर्दी में केजरीवाल के दरवाजे तक पहुंचे आशीष खेतान ने आप के कैनवास पर ऐसा रंग डाला कि झटके में अण्णा आंदोलन के दौर से संगठन संभाले नायक प्रशांत को खलनायक बना दिया गया। 2013 में जब आम आदमी पार्टी का संविधान बन रहा था। राजनीतिक परिभाषा तय हो रही थी, तब रात-रात भर जाग कर जिन्होंने कलम चलाई , तर्क किए , विचारवान संविधान बनाया, उस समूह में एक नाम योगेंद्र यादव का भी था। लेकिन कैनवास पर रंग भरते वक्त झटके में यादव को भी जनादेश के नशे में नायक से खलनायक बना दिया गया।
एक दौर में जनता पार्टी और दूसरे दौर में जो सवाल जनमोर्चा से लेकर तमाम लोहियावादी-समाजवादियों की फेहरहिस्त ने जिस तरह जनता दल को बांटा, उसी तर्ज पर आप को भी साबित करने वाले हालात पैदा हो गए। या फिर आप के सफेद कैनवास को अपने अनुकूल रंग भरने की होड़ में केजरीवाल भी कहीं पीछे छूट गए। राष्ट्रीय संयोजक पद से इस्तीफा देकर जिस राह पर आप की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को केजरीवाल ने दिल्ली के जनादेश के नाम पर छोड़ा, उस दिल्ली को सियासी राजनीति की सफल प्रयोगशाला बनाने के लिए कौन-सा रास्ता अख्तियार करना है, इसे लेकर अब भी अंधेरा ही है। और संसदीय राजनीति का अंधेरा इतना घना है कि आजादी के बाद अपनाई गई नीतियों में आज तक ऐसा कोई परिवर्तन आया ही नहीं कि जो सवाल आजादी के तुरंत बाद थे, वे 67 बरस बाद सुलझ गए। गरीबी हटाओ का नारा हमेशा से लगता रहा।
बिजली-सड़क-पानी का नारा 1962 के बाद से हर चुनाव में गूंजता रहा। ‘जय जवान जय किसान’ का नारा 50 बरस पहले भी मौजूं था आज भी है। रोजगार के संकट से निपटने में देश के तेरह प्रधानमंत्री बदल गए। संविधान से हक के लिए संघर्ष करता आम आदमी कल भी सड़क पर था, आज भी है। इस मोड़ पर आप अगर आम आदमी की जरूरतों की जिम्मेदारी उठाने को तैयार है तो मानिए यह नई राजनीति का उद्घोष है। जहां नेता नहीं आम आदमी ही मायने रखता है।
पुण्य प्रसून वाजपेयी (टिप्पणीकार आजतक से संबद्ध हैं)