दिल्ली हाई कोर्ट ने तलाक के एक मामले में फैसला देते हुए देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता की जरूरत बताई। दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फैसले में टिप्पणी करते हुए कहा कि वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने साल 1985 में भी कॉमन सिविल कोड की बात अपने एक फैसले में कही थी। लेकिन उसके बाद से अब तक तीन दशक का वक्त गुजर चुका है, लेकिन उसको लेकर क्या कार्रवाई हुई उसके बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है।
इसको लेकर न्यूज़ चैनल ‘आज तक’ के शो ‘हल्ला बोल’ में चर्चा हो रही थी। इस दौरान इस्लामिक स्कॉलर हाजिक खान ने दिल्ली हाई कोर्ट की इस टिप्पणी पर इतराज जताया। हाजिक खान ने कहा “हिंदुस्तान में संविधान है और उसी के तहत संसद कानून बनती है। अगर हाई कोर्ट का जज कोई टिप्पणी कर रहा है तो वह उनकी निजी राय है। वह कानून नहीं है। कानून संसद में बनता है।”
इस्लामिक स्कॉलर ने कहा “मैं यह पूछना चाहता हूं कि इतना बड़ा कानून आप बनाने जा रहे हैं। हमारे यहां निकाह होता है, हिंदुओं में फेरे लिए जाते हैं। ईशियों में कुछ और होता है। बुद्ध में भी कुछ और किया जात है। जैन समाज भी कुछ अलग करता है। क्या अपने इन सब से राय ली है? क्या निकाह और फेरे एक कर दिए जाएंगे?”
हाजिक खान ने कहा “अगर आपको कानून बनाना ही है तो संसद में बनाइये। सारी पार्टियों से चर्चा करिए, ऐसे ही नहीं मन चाहा कानून बन जाता है।” इसपर एंकर चित्रा त्रिपाठी ने कहा “कहां कहा गया है कि .निकाह और फेरे एक कर दिए जाएंगे?”
इसपर इस्लामिक स्कॉलर ने कहा “अरे जब यूनिफॉर्म सिविल कोड हिंदुस्तान में लागू होगा तो 135 करोड़ लोगों पर एक सा ही कानून लागू होगा। बता दें हाई कोर्ट ने अपने आदेश में टिप्पणी करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट की तरफ से समय-समय पर अनुच्छेद 44 के तहत समान नागरिक संहिता की आवश्यकता को दोहराया गया है। कॉमन सिविल कोड जिसके तहत ‘सभी के लिए समान कानून, जो विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि जैसे पहलुओं के संबंध में समान सिद्धांतों को लागू करने में सक्षम बनाता है। ताकि तय किए गए सिद्धांतों, सुरक्षा उपायों और प्रक्रियाओं को लागू किया जा सके।
कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि आधुनिक भारतीय समाज में धर्म, समुदाय और जाति के पारंपरिक अवरोध धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं। भारत के विभिन्न समुदायों, जनजातियों, जातियों या धर्मों से संबंधित युवाओं को, जो अपने विवाह को संपन्न करते हैं, उन्हें विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों, विशेष रूप से विवाह और तलाक के संबंध में संघर्ष के कारण उत्पन्न होने वाले मुद्दों से संघर्ष करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।