घृणा को हटाकर ही हम सुखमय जीवन जी सकते हैं। सवाल यह है कि हमारे दिल में घृणा स्वयं पैदा होती है या फिर हम ही इसे पैदा करते हैं? ये दोनों ही बातें अपनी जगह ठीक हैं। मानवीय स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि हमारे दिल में स्वयं ही घृणा पैदा होने लगती है। ज्यादातर हम जानबूझकर घृणा पैदा कर लेते हैं। हम घृणा के सागर में गोते लगाते रहते हैं और साथ ही यह दावा भी करने लगते हैं कि हम तो सागर में मोती ढूंढ़ रहे हैं। मगर वास्तविकता यह है कि घृणा के सागर में कभी भी मोती नहीं मिल सकते। घृणा के सागर में हमें चोट पहुंचाने वाले पत्थर ही मिलेंगे।
पत्थर दिल इंसान प्रेम का महत्त्व नहीं जान सकता
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हम इन पत्थरों के सहारे ही अपनी जिंदगी गुजारना चाहते हैं। घृणा हमें मोती चुगना नहीं सिखाती बल्कि एक-दूसरे पर पत्थर मारना सिखाती है। इसलिए जो लोग घृणा को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लेते हैं, वे पत्थर दिल हो जाते हैं। पत्थर दिल इंसान प्रेम का महत्त्व नहीं जान सकता। प्रेम का महत्त्व जानने के लिए हमें मोती चुगने ही होंगे। यही एक ऐसा रास्ता है जिसके माध्यम से घृणा खत्म की जा सकती है। लेकिन क्या हम इसको खत्म करना चाहते हैं? वास्तविकता तो यह है कि हम घृणा को खत्म करना ही नहीं चाहते हैं। कुछ लोगों का कारोबार तो घृणा के सहारे ही चलता है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हम अपने सहारे के लिए घृणा का ही चुनाव करते हैं। लेकिन क्या घृणा हमें कोई सहारा दे सकती है? तात्कालिक रूप से यह महसूस होता है कि यह हमें सहारा दे रही है। इस भाव का कारण यह है कि हम घृणा करके कुछ समय के लिए संतुष्ट हो जाते हैं। लेकिन यह एक बहुत बड़ा भ्रम है। इसके माध्यम से हम अपने बुरे विचारों को पोषित करते हैं। इस तरह घृणा हमें नहीं बल्कि हमारे बुरे विचारों को सहारा देती है। इस प्रक्रिया के माध्यम से घृणा और बुरे विचारों का गठजोड़ बन जाता है।
ये दोनों प्रवृत्तियां एक दूसरे का दायरा बढ़ाने में पूरा सहयोग करती हैं। इसलिए जब घृणा पैदा होती है तो बुरे विचार तेजी से पनपते हैं। इसी तरह जब हमारे मन में बुरे विचार आते हैं तो घृणा भी तेजी से बढ़ती है। जब हमारा हृदय इन दोनों प्रवृत्तियों के शिंकजे में फंस जाता है तो वहां अच्छे विचारों के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता।
घृणा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अच्छे विचारों को बाहर का रास्ता दिखा देती है। जब हमारी दृष्टि पर घृणा का आवरण चढ़ जाता है तो हमें दुनिया में कुछ भी अच्छा दिखाई नहीं देता और हम घृणा में ही अच्छाई ढूंढ़ने लगते हैं। जब हम घृणा में ही अच्छाई ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं तो घृणा और ज्यादा बढ़ती है। घृणा आग के समान होती है। जब घृणा की आग बढ़ती है तो छोटी-मोटी अच्छाइयां स्वयं ही जलकर राख हो जाती हैं।
सवाल यह है कि अपने हृदय से घृणा को कैसे हटाया जाए? क्या इसके लिए कुछ अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत है? अपने दिल से घृणा खत्म करने के लिए किसी तरह का अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत नहीं है। जब हम किसी प्रवृत्ति को खत्म करने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास करते है तो वह प्रक्रिया बहुत ही यांत्रिक हो जाती है। जाहिर है किसी भी यांत्रिक प्रक्रिया में भाव समाप्त हो जाता है। भाव से जुड़ी न होने के कारण ऐसी प्रक्रिया कृत्रिम हो जाती है। यह कृत्रिम प्रक्रिया बहुत समय तक नहीं चल सकती। इसलिए ऐसा कोई अतिरिक्त प्रयास करने के बजाय अगर हम सिर्फ दूसरों को सच्चा सम्मान देना शुरू कर दें तो काफी हद तक इस समस्या का समाधान हो जाएगा।
अगर हमारे दिल में दूसरों के प्रति सच्चा सम्मान होगा तो हमारी भावनाएं यांत्रिकता के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ पाएंगी। हम दूसरों को सम्मान देते तो हैं लेकिन उसमें सच्ची भावना बहुत कम होती है। सच्ची भावना के बिना हमारे द्वारा दिया हुआ सम्मान व्यर्थ हो जाता है। सच्ची भावना ही सच्चे प्रेम को जन्म देती है। जिस हृदय में दूसरों के प्रति सच्चा प्रेम होगा, वहाँ घृणा कभी नहीं पनप सकती। इसलिए घृणा को खत्म करना है तो अपने हृदय में प्रेम पैदा कीजिए।