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श्रद्धा और विश्वास: कथावाचन का उद्यम से जाने-अनजाने हुए पाप के धुल जाने और मोक्ष प्राप्ति की मान्यता

अब तो कुछ धामों और आश्रमों के संचालकों ने अपने यहां कथावाचन सह रोग परामर्श और समस्या निवारण केंद्र ही खोल दिए हैं। गद्दी पर बैठने वाले अंतर्यामी की तरह भक्त को देखकर उसका नाम पता और उसकी समस्या पूछकर समाधान बता देते हैं, कृपा बरसा देते हैं।

श्रद्धा और विश्वास: कथावाचन का उद्यम से जाने-अनजाने हुए पाप के धुल जाने और मोक्ष प्राप्ति की मान्यता

भगवती प्रसाद गेहलोत

हमारे यहां कथा आयोजन करने-कराने, सुनने-सुनाने की परंपरा बहुत पुरानी है। यह व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों रूपों में आयोजित होती रहती है। व्यक्तिगत कथा के आयोजन में मनौती पूरी होना या मनौती मांगना और पुण्य प्राप्ति जैसे कारण निहित होते हैं। कथा सुनने-सुनवाने से जाने-अनजाने हुए पाप के धुल जाने और मोक्ष प्राप्ति की मान्यता भी काम करती है।

कई जगह रात्रि में अपने लोक देवताओं की कथा आयोजित होती थी

पुराने समय में कई जगह रात्रि में अपने-अपने लोक देवताओं की कथा आयोजित होती थी। अब तो पौराणिक कथाएं कई दिन तक चलने वाली होती हैं। इन कथाओं से आयोजकों और उनके अनुचरों को आर्थिक लाभ के साथ-साथ अपने मंतव्य का प्रचार-प्रसार तथा राजनीतिक लाभ भी अच्छा मिल जाता है। कथावाचक कथा के बीच में राजनेताओं के नाम लेकर खुद को और आयोजकों को उपकृत कर ही देते हैं। अन्य लाभ तो हैं ही। कुछ वाचक खर्चे-खाते काटकर शेष राशि का उपयोग सामाजिक-धार्मिक कार्यों में खर्च करने का दिखावा करते हैं। लाखों की अनियंत्रित भीड़ हो तो चोर-उचक्कों की भी बल्ले बल्ले हो जाती है। आवश्यक वस्तुएं बेचने वाले मौके का फायदा उठाकर दुगने-तिगुने दाम बढ़ा कर धार्मिक श्रद्धा की वसूली में लग जाते हैं।

कथाओं में लोक-परलोक दोनों में लाभान्वित होने की कामना करते हैं

अगर कोई श्रोताओं के पांव तले आकर कुचल गया तो मान लिया जाता है कि उसे मुक्ति मिल गई। भक्तों के पैरों तले आया इसलिए परलोकगामी माना जाता है, क्योंकि मौत तो एक दिन आनी है। यहां आए या कहीं और क्या फर्क पड़ता है, कथावाचकों की भी यही मान्यता रहती है। कथाओं में सुजन और दुर्जन दोनों ही अपने अभीष्ठ की पूर्ति और लोक-परलोक दोनों में लाभान्वित होने की कामना करते हैं।

आखिर यह अंधश्रद्धा कहां जाकर थमेगी, कह नहीं सकते। सीहोर में रुद्राक्ष फेंककर बांटने को ही लें। गलती आयोजकों की होती है और दोष प्रशासन पर डाल कर इतिश्री कर ली जाती है। क्या आपाधापी वाली इस प्रकार की कथाओं के आयोजन से मानसिक शांति तथा सामाजिक, पारिवारिक और नैतिक मूल्यों के विकास की कामना की जा सकती है? धर्म की मंशा को लेकर कहीं हम भटक तो नहीं रहे हैं, यह हर व्यक्ति को सोचना होगा।

आजकल कथाओं में लौकिक फायदे भी होते हैं, क्योंकि कथा में कथा कम, रोगों के इलाज का निशुल्क परामर्श ज्यादा दिया जाने लगा है, जो कि एक पंजीकृत चिकित्सक का कार्य होता है। कथावाचक तमाम उदाहरणों के साथ एक ही क्रिया से बहुत सारी बीमारियों के इलाज की गारंटी देता है। अब अंधे को दो आंखें ही तो चाहिए। कथावाचकों को चिकित्सीय परामर्श के लिए न किसी पंजीकरण की आवश्यकता होती है और न श्रोता या रोगी को चिकित्सालय या चिकित्सकों के पास जाने की आवश्यकता होती है।

अब तो कुछ धामों और आश्रमों के संचालकों ने अपने यहां कथावाचन सह रोग परामर्श और समस्या निवारण केंद्र ही खोल दिए हैं। गद्दी पर बैठने वाले अंतर्यामी की तरह भक्त को देखकर उसका नाम पता और उसकी समस्या बताकर पूछकर समाधान बता देते हैं, कृपा बरसा देते हैं। समस्या दुनियादारी की हो या पारिवारिक दैहिक-दैविक-भौतिक ताप, सभी का हल मय टोटके के हाजिर। किसी ने मजाक में कहा कि कथावाचक या गद्दीपति को चिकित्सक की तरह कथा में बताई गई चिकित्सा का विकल्प भी बताना चाहिए कि अमुक क्रिया से इतने दिनों में लाभ न मिले तो दूसरी अमुक क्रिया करें ताकि कथा श्रवण का लाभार्थी काम में लगा रहे। इससे कथावाचक भी बदनाम न होगा और श्रोता भी निराश न होगा।

वैसे मन की शांति, नैतिक मूल्य के बीजारोपण और आध्यात्मिक प्रेरणा के लिए कथा, कथा ही रहे तो क्या बुराई। कथाएं तो पहले भी होती थीं, किंतु ऐसी आपाधापी नहीं थी तब। अब तो कथाएं प्रतिस्पर्धा और मजाक बनती जा रही हैं, कहीं-कहीं तो छिछोरापन भी दिखाई देता है। मनुष्य को भ्रमित करने और बांटने की प्रक्रिया रुकनी चाहिए। वैसे कथावाचकों को चिकित्सा क्षेत्र में अपनी टांग नहीं फंसानी चाहिए। लेकिन यदि पंजीकृत आयुर्वेद चिकित्सक आयुर्वेद आधारित कथाएं करने लग जाएं तो सोने में सुहागा। श्रोता को और क्या चाहिए, तन भी चंगा, मन भी चंगा, प्रत्यक्ष हो या टीवी में कथा की गंगा।

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First published on: 01-03-2023 at 05:00 IST
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