पर्यावरण के संरक्षण की जिम्मेदारी हर एक व्यक्ति के कंधों पर है। भौतिक सुखों के आगे जिस तरह से पर्यावरण (Environment Day) के साथ छेड़छाड़ किया जा रहा है। उसका गंभीर परिणाम भविष्य में देखने को मिल सकता है। इसका संकेत हमें पिछले कुछ वर्षों से देखने को मिल रहा है। गर्मियों में रिकॉर्ड तोड़ झुलसा देनेवाली गर्मी (Summer) के अलावा बारिश के दिनों में रेगिस्तान में बाढ़ तो मैदानी इलाकों में भी कहीं बिल्कुल सूखा, पहाड़ी इलाकों में भी बरसात के दिनों गंभीर संकट देखे जा सकते हैं। साल 2022 में असम में आई बाढ़ भी इसका जीता जागता उदाहरण है।

अगर सिर्फ भारत की बात करें तो पिछले कुछ सालों में हिमस्खलन, बार-बार आते तूफानों की वजह से व्यापक नुकसान, बाढ़, जंगलों में आग ये सब जलवायु परिवर्तन के नतीजे सामने हैं। जिसके चलते अनगिनत लोगों की जिंदगियां चली गईं। जंगलों में आग के चलते कई प्रजातियां खतरे में पड़ गईं। बावजूद इसके न तो सरकार को चिंता है और न ही देश की जनता को इसकी फिक्र है।

साल 1901 के बाद भारत 5 वां सबसे गर्म देश

आपको जानकार ताज्जुब होगा कि कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस (यूरोपीय संघ का कार्यक्रम) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2021 भारत में सन 1901 के बाद पांचवां सबसे गर्म वर्ष था। यह दर्शाता है कि भारत में तापमान में किस कदर वृद्धि हो रही है। अभी पिछले कुछ दिनों पहले मई 2022 में राजधानी दिल्ली के कुछ इलाकों में तापमान 49 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया जिसके चलते ऑरेंज अलर्ट तक जारी किया गया।

भारत को मिला 10 वां स्थान

नवंबर 2021 में जारी जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक इस बात की ओर संकेत करता है कि किसी भी देश के द्वारा पेरिस समझौता लागू होने के बाद भी जलवायु परिवर्तन के खतरनाक प्रभावों की रोकथाम के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए गए। इस सूचकांक में किसी भी देश को प्रथम स्थान नहीं मिला, इसके पीछे की वजह भी यही है कि कोई देश इसके प्रति ठोस कदम नहीं उठाया। इसमें भारत को 10वां स्थान मिला है।

अफ्रीका में संकट

अभी हाल ही में हॉर्न ऑफ अफ्रीका (सोमालिया, इथोपिया, जिबूती, इरिट्रिया) में लोग सूखे की भयावह स्थिति का सामना कर रहे हैं। हॉर्न ऑफ अफ्रीका पिछले 40 वर्षों में सबसे भीषण सूखे का सामना कर रहा है जबकि साल 1981 के बाद से दर्ज की गई सबसे शुष्क परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं। अफ्रीका महाद्वीप में भी कुछ घटित हो रहा है वह महज एक जलवायु परिवर्तन का प्रभाव है। आगे चलकर इसके प्रभाव इतने व्यापक और विध्वंसक हो सकते हैं कि ये ना सिर्फ मानव बल्कि पृथ्वी पर अन्य जीवों के अस्तित्व पर भी खतरा पैदा कर सकता है। इसमें समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी, हिमस्खलन, धरती के तापमान में वृद्धि, जंगलों में आग, मरुस्थलीकरण, कृषि योग्य भूमि की कमी आदि शामिल होगा।

आईपीसीसी की रिपोर्ट चिंताजनक

आईपीसीसी (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) की रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन से नदीय, तटीय एवं शहरी बाढ़ में वृद्धि से बड़े पैमाने पर अवसंरचना, आजीविका एवं बसावट में बदलाव आएगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि आती है तो उसके चलते 14 फीसदी प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडराने लगेगा। वहीं यदि 3 डिग्री सेल्सियस या 4 डिग्री सेल्सियस पर 39 फीसदी तक बढ़ता है तो यह जोखिम 29 फीसदी और 39 फीसदी तक बढ़ जाएगा।

भारत में भी जलवायु संकट कुछ कम नहीं

जहां एक तरफ भारत में शुद्ध हवा और शुद्ध पानी मिलना लोगों को अब मुश्किल सा लग रहा है! वहीं दूसरी तरफ प्रदूषित हवा और गंदा पानी भारत के लोगों के स्वास्थ्य के लिए एक बहुत गंभीर खतरा बन रहा है। कई चुनावी घोषणाओं और वादों के बाद भी सरकार नदियों की सफाई करने में नाकाम रही है। इसके साथ ही जहरीली हवा को भी शुद्ध करने और उसे जहरीला होने से रोकने में भी सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं! यह मेरा नहीं बल्कि एयर क्वालिटी रिपोर्ट का कहना है।

बता दें कि वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट 2021 के अनुसार लगातार चौथे साल दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है। दिल्ली और आसपास के राज्यों में लोग जहरीली हवा में सांस लेने के लिए मजबूर हैं। वहीं इसी रिपोर्ट के अनुसार मध्य और दक्षिण एशिया के 15 सबसे प्रदूषित शहरों में अकेले 11 शहर भारत के हैं।

पर्यावरण को बचाए रखने के लिए जरूरी हैं ये चीजें

जनसत्ता डॉट कॉम से बातचीत करते हुए गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के रिसर्च स्कॉलर राम बाबू तिवारी का कहना है कि पर्यावरण को बचाए रखने के लिए वर्तमान में प्राकृतिक खेती ओर बढ़ना होगा, पेस्टिसाइड का बहिष्कार करना होगा। इसके साथ ही पहाड़ों, नदियों में हो रहे अत्यधिक उत्खनन पर रोक लगाना होगा। वहीं विलुप्त हो रहे तालाबों को चिन्हित कर सीमांकन कराकर उन्हें जीवित करना होगा।

राम बाबू का कहना है कि हमें मोटे अनाज की खेती की तरफ लौटना होगा, चूंकि इन्हीं खेती के जरिए पानी की बर्बादी को रोका जा सकता है और मिथेन गैस के उत्सर्जन को कम किया जा सकता है। चूंकि जलवायु परिवर्तन के पीछे इसी गैस का सर्वाधिक योगदान है।