सुरेश सेठ
जिंदगी में सपनों की जिन मीनारों को हम साकार करना चाहते हैं, वे अचानक बौने लगने लगते हैं। माहौल इतना बदल गया है कि प्रेम, भावुकता और संवेदना की बातें करने से ज्यादा असंबद्ध बात कोई और नहीं। बात करनी है तो नए अनुदानों की करें। मुफ्तखोरी के नए संदर्भों की करें और उनको एक चमकते हुए रंग-रोगन में कुछ इस तरह से प्रस्तुत करें कि वे एक चमकती हुई उपलब्धि लगें और इन उपलब्धियों का उत्सव बनाया जा सकता हो, जन कल्याण का दंभ भरते हुए। समझदार विज्ञ लोग चाहे कितना ही कहते रहें कि चादर जितनी पैर फैलाओ। यहां तो चादर भी कल्पना है और पैर फैलाना भी, क्योंकि तपती रेत पर चलते हुए यह पैर तो कटु यथार्थ से टकरा पंगु हो गए। अब इन पैरों में इतनी शक्ति ही नहीं।
‘मुंह में राम बगल में छुरी’ जैसे पुराने मुहावरे अब काम नहीं करते हैं
जिंदगी के सूत्र बदल गए और इनको प्रचारित करने वाले मुहावरे भी। ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ जैसे पुराने मुहावरों से अब किसी को चौंकाया नहीं जा सकता है और न ही इसे एक तीखा व्यंग्य बना सच को झूठ के पर्दों से बाहर लाया जा सकता है। जब भी इस देश के आम आदमी के कल्याण और उद्धार के लिए कोई घोषणा होती है, तो बरसों से भूख और अजहद गरीबी की कतार में खड़े लोग अप्रभावित रहते हैं। ये घोषणाएं न तो किसी नई उम्मीद का सिलसिला बनती हैं और न ही किन्हीं नए सपनों की मीनार रच पाती हैं।
‘अच्छे दिनों’ की कल्पना किसी भूली-बिसरी कहानी जैसी है
लोग तो विकास और प्रगति के आंकड़ों से चौंधियाने के बावजूद ‘अच्छे दिनों’ की कल्पना को किसी भूली-बिसरी कहानी की तरह खो देना चाहते हैं, लेकिन यह एक वायवीय इंद्रधनुष बन जाने के जुगाड़ू आंकड़ों की बैसाखियां पा मुस्कुराती रहती है। कहते हैं कि कोरोना और अन्य महामारियों में प्राणरक्षक दवाओं की चोर बाजारी से काफी लोग दम तोड़ गए, लेकिन जो स्वजन उनके साथ आए, वे भी अंतिम क्रिया के बाद वहां से खिसक जाने की जल्दबाजी में ही व्यस्त थे। ऐसे माहौल में दाहकर्म से लौटते हैं तो किसकी लाश कौन जला गया, उस श्मशान घाट में एक-दूसरे की खबर भी नहीं रहती। उसके बाद वहां से प्रस्थान करके जीवन की उसी अंधी भागदौड़ में जुटना ही अपनापन लगता है।
आंकड़ों और रपटों की सुनें तो लगता है कि अच्छे दिन बहुत जल्दी आ जाएंगे
आज हमारे देशवासी अजब वाचालता को झेलते हुए निरंतर तरक्की की राह पर चल रहे हैं। विज्ञों के अनुसार अर्थव्यवस्था फिर दस फीसद के आंकड़े को प्राप्त कर लेगी, हम दुनिया की पांचवीं से तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति हो जाएंगे और यह अर्थव्यवस्था स्वत:स्फूर्त हो जाएगी। अब इन आंकड़ों और रपटों की सुनें तो लगता है कि देश में चाहे अच्छे दिन नहीं आए, लेकिन बहुत जल्दी आ जाएंगे। यही जवाब होगा कि जनता यहां खुश है, राहत की सांस ले रही है। यह भी कि महानगरों के रविवार बाजारों की ओर देखें। देश के पर्यटन स्थलों में बढ़ती भीड़ को देखें। क्या ऐसा नहीं लगता कि सुहाने दिन आ चुके हैं और अपना देश कायाकल्प के नए उजाले से भर गया है?
अब क्या सुनें और किस बात पर विश्वास करें? अपनी धरती का सच टटोलते हैं तो लगता है इन दिनों न जाने कितने लोग अपनी जड़ों से उखड़ गए। नए भारत की कल्पना के साथ महानगरों में धंधा ढूंढ़ कभी अपनी गृहस्थी जमाई थी। महामारी और भूख के वज्रपात ने ही उन्हें फिर पलायन कर अपने गांव-घरों में लौटने के लिए मजबूर कर दिया। उन्हीं गांव-घरों में, जिन्होंने कभी उन्हें उनके पुश्तैनी जीवन का विस्तार देने से मना कर दिया था। इसी कारण तो वे अपनी धरती से अजनबी होकर महानगरों में, देस में, परदेस में वैकल्पिक जीवन की तलाश में निकल गए थे। अब विकट दिनों का वज्रपात उन्हें वापस लौटने के लिए विवश कर रहा है।
वह वापसी, जिसके स्वागत के लिए यहां कोई बाहें फैली हुई नजर नहीं आतीं। लेकिन आंकड़ों के धरातल पर फैली हुई घोषणाओं की हवा कहती है, ‘बंधुवर, चलो वापस गांव-घरों की ओर। हम वहां नया आत्मनिर्भर भारत बनाएंगे।’ तुम्हारी फसलों के उपयोग के लिए कुटीर और लघु उद्योगों की एक नई दुनिया और हजारों लाखों निवेशक खड़े करेंगे।
घोषणाएं सुनहरी लगती हैं। इनकी सदा भी बहुत आकर्षक लगती है, लेकिन किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ी है, गांव-घरों को लौटी भीड़। नए निवेशकों की कोई जमात वहां उनका इंतजार नहीं कर रही। दुनिया वैसी की वैसी है, उनके लिए जर्जर और कराहती हुई। हां, चंद लोगों के घर और भी आलीशान हो गए। विकट समय ने करोड़पति, अरबपति बना दिए। लेकिन गरीबी क्यों और बढ़ गई? बढ़ती भूख, बढ़ता कुपोषण कंकाल होते लोगों के लिए मृत्यु संदेश ले आया।
भुखमरी सूचकांक में देश की पतली हालत ने गरीबों की बस्तियों को अपना बेहतर दिनों का सपना देखने पर शर्मिंदा कर दिया। भ्रष्टाचार सूचकांक कहते हैं, यहां रिश्वतखोरी जीने का एक अंदाज बन गई है। लेकिन इनकी कोई नहीं सुनेगा। सब सिर्फ सपनों की बातें सुनेंगे। ऊंचे प्रासादों में रहने वाले देव पुरुषों को हम प्रणाम करते हैं और अपनी सिसकियां भरती जिंदगी को उसी प्रकार जिए चले जाते हैं, एक उत्सव मना सकने की तैयारी के साथ।