ज्योति सिडाना

आधुनिक फ्रांसीसी दार्शनिक मिशेल फूको के अनुसार ज्ञान शक्ति है। दूसरे शब्दों में, जिसके पास ज्ञान है, वह विमर्श कर सकता है, तर्क कर सकता है और जो विमर्श या तर्क कर सकता है वही आज के संदर्भ में शक्तिशाली है। अगर फूको के तर्क को सही मानें तो आज की पीढ़ी, जो आधुनिक शिक्षा और विकसित प्रौद्योगिकी के ज्ञान से युक्त है, वह शक्तिशाली भी है। लेकिन अगर वे शक्तिशाली हैं तो जीवन संघर्ष और चुनौतियों से पलायन क्यों करने लगे हैं? क्यों जीवन में या परीक्षा में छोटी-सी विफलता भी उन्हें मौत को गले लगाने के लिए बाध्य कर देती है?

शक्ति का अर्थ तो दूसरों पर नियंत्रण करने से लिया जाता रहा है। फिर क्यों ज्ञान की शक्ति से युक्त यह पीढ़ी खुद पर नियंत्रण खोने लगी है या कहें कि खुद से ही हारने लगी है? पिछले कुछ समय से हमारे सामने अनेक विरोधाभास उभर कर आए हैं। एक ओर अनुसूचित जाति की पृष्ठभूमि वाले लघु किसान या मजदूर तबके की बेटियों ने सिविल सेवा या अन्य इसी कोटि की परीक्षाओं में सफलता हासिल की, तो दूसरी तरफ, कोटा या बंगलुरु में परीक्षा खराब जाने या इसके डर से कई छात्रों के आत्महत्या कर लेने की खबरें आईं।

यह विरोधाभास ही है कि एक वर्ग या समूह के लिए शिक्षा या ज्ञान वरदान साबित हो रहा है, उन्हें फर्श से अर्श पर बैठा रहा है और वहीं दूसरे समूह के लिए शिक्षा या ज्ञान उनकी मौत का कारण बन रहा है। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पूंजी बनाना है, दमन और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाना सिखाना है, न कि पलायन करना और चुनौतियों से डरना सिखाना। फिर कैसे और कहां से यह आधुनिक पीढ़ी यह सब सीख रही है। इस पर सभी को सोचने की जरूरत है। शिक्षा, शिक्षक, परिवार, राज्य, प्रशासन, कोचिंग संस्थान में से कौन इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार है?

जिन्हें सब कुछ उपलब्ध है वह संघर्ष करना नहीं सीख पाते

देखा जाए तो कुछ हद तक ये घटनाएं इस तरफ संकेत करती नजर आती हैं कि शायद जिन बच्चों को आसानी से सब कुछ मिल जाता है या जो सुख-सुविधाओं में पले बढ़े होते हैं, वे जीवन में संघर्ष करना नहीं सीख पाते। जिसकी हर जिद पूरी हुई हो, जो चाहा वह आसानी से मिल गया हो। लेकिन परीक्षा में सफलता न मिल पाने या असफल होने का डर उन्हें जीवन से पलायन करना सिखा देता है।

दूसरी तरफ अभावों में जिंदगी जीने वाले बच्चे जिन्हें खाना-पीना और पहनना भी शायद ढंग से नसीब नहीं होता, वे सफलता के झंड़े गाड़ रहे हैं और आकाश की ऊचाइयां छू रहे हैं। यह भी एक वजह हो सकती है जो मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों को पलायनवादी बना रही है या उनमें संघर्ष करने का जज्बा खत्म कर रही है। अगर ऐसा ही है तो फिर यह भी सच है कि हम एक जोखिम भरे समाज का हिस्सा बनते जा रहे हैं। आश्चर्य यह है कि इतना सब कुछ होने पर भी शिक्षक, बुद्धिजीवी वर्ग, राजनीतिक समूह, प्रशासन, राज्य यहां तक कि अभिभावक जन कोई ठोस कदम उठाते नजर नहीं आ रहे हैं।

यहां एक और सवाल भी उभरता है कि क्या मेडिकल और इंजीनियरिंग के अलावा ऐसे अभिभावकों और बच्चों को कोई और क्षेत्र या व्यवसाय दिखाई नहीं देता। उन्हें ही चुनने के लिए बच्चों को तैयार किया जाने लगा है। अगर ऐसा है तो यह एक भ्रम है, क्योंकि हाल ही में एक आइआइटी पेशेवर ने अपना दर्द बयान करते हुए बताया कि मैं चौबीस साल का साफ्टवेयर इंजीनियर हूं। मेरा सालाना वेतन अट्ठावन लाख रुपए है। काम का भी कोई तनाव नहीं है। बंगलुरु जैसे शहर में सारी सुविधाओं के साथ रह रहा हूं। लेकिन मैं अकेला पड़ गया हूं। मेरे सभी दोस्त अपनी जिंदगी में व्यस्त हैं, जिसके कारण मैं उनसे कुछ साझा भी नहीं कर सकता। मैं अकेलेपन से परेशान हूं। एक ही तरह की जिंदगी से मैं बोर हो गया हूं।

क्या उसका यह बयान इस बात को सिद्ध नहीं करता कि पैसों से खुशी नहीं खरीदी जा सकती। इस युवक के बाद कई और लोगों ने भी लगभग इसी तरह के ट्वीट किए कि वे ऐसी ही जिंदगी से गुजर रहे हैं जहां खूब पैसा है, सुख-सुविधाएं हैं, लेकिन न तो खुशी है और न खुश होने का समय।

ऐसा नहीं है कि परिवार या युवा पीढ़ी इस तरह की घटनाओं से अपरिचित है, पढ़ती या सुनती नहीं है, लेकिन संभवत: सबकी आंखों पर ऊंची हैसियत, ऊंची तनख्वाह और उच्च महत्त्वाकांक्षा की पट्टी बंधी हुई है। जीवन में रिश्ते रहे या न रहे, पैसा और हैसियत जरूर होना चाहिए। दिखावे का उपभोग इतना ज्यादा होने लगा है कि हम अपनी लालसाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाते और जानते-बूझते हुए किशोर और युवा पीढ़ी को गला काट प्रतियोगिता की भट्ठी में झोंक देते हैं।

अनेक अध्ययनों में देखा गया है कि सृजनशील व्यक्ति मानसिक रूप से अधिक स्वस्थ होते हैं और वे समस्याओं का समाधान करने में समर्थ होते हैं। सृजनशील व्यक्ति में आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच का होना आवश्यक शर्त होती है। इसका मतलब यह भी निकलता है कि ये नवीन पीढ़ी कहीं सृजनशीलता और आत्मविश्वास जैसे गुणों से पृथक तो नहीं होती जा रही। डिजिटल दुनिया ने कट, कापी, पेस्ट की संस्कृति को लोकप्रिय बनाकर कहीं इनकी सृजनशीलता तो नहीं छीन ली, यह भी एक महत्त्वपूर्ण सवाल है, जिस पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है।

शिक्षा महज ज्ञान का लेन-देन नहीं है, बल्कि एक क्रांतिकारी एवं सांस्कृतिक कर्म है। शिक्षित होने का मतलब समाज में अपनी जगह बना लेना, उच्च प्रतिष्ठा और उच्च वेतन प्राप्त कर लेना ही नहीं है, बल्कि मनुष्य या एक अच्छा नागरिक बनना है। और पूर्ण मनुष्य तभी बना जा सकता है जब सृजनशीलता, सकारात्मक सोच, आत्मविश्वास, निडरता, सबके प्रति समानता, राष्ट्र और परिवार के विकास का भाव उसके व्यक्तित्व का हिस्सा हो। कहते हैं कि व्यक्ति अपने विचारों से निर्मित एक प्राणी है। वह जो सोचता है वही बन जाता है। इसलिए सकारात्मक सोच होना जरूरी है और इसके लिए जरूरी है कि हर परिस्थिति का सामना करना और चुनौतियों से लड़ना सीखना होगा। आत्महत्या या पलायनवादी सोच न केवल उस मनुष्य के परिवार को, बल्कि राष्ट्र को भी कमजोर कर देती है।

आज की शिक्षा कहीं खंडित व्यक्तित्व या एकपक्षीय व्यक्तित्व को तो उत्पन्न नहीं कर रही है? अगर ऐसा है तो शिक्षा के पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धति को फिर से निर्मित करने की आवश्यकता है। खंडित व्यक्तित्व में अलगाव की प्रवृत्ति आसानी से उत्पन्न हो जाती है। वे खुद को समाज से पृथक अनुभव करते हैं और समाज की समस्याओं से पलायन करने लगते हैं। आज आवश्यकता है कि समाज विज्ञानों को सार्वजनिक विमर्श में सक्रिय भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। यानी विभिन्न प्रकार के लोगों के मध्य होने वाली अंत:क्रियाओं में उसका सक्रिय हस्तक्षेप होना चाहिए।

इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि बुद्धिजीवियों और समाज वैज्ञानिकों की सक्रिय भूमिका के बिना किशोरों और युवाओं को निराशा, कुंठा और तनाव की तरफ जाने से रोकना असंभव-सा लगता है। इसके साथ-साथ यह भी जरूरी है कि बच्चों में संघर्ष करने और चुनौतियों का सामना करने का जज्बा भी उत्पन्न किया जाए, ताकि वे हार से डरे नहीं, बल्कि अपने लक्ष्य को पाने के लिए फिर प्रयास करे या वैकल्पिक अवसरों पर भी ध्यान दे।