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मायावी सपनों के सारथी, आखिर किसके लिए है वैश्विक गांव या ‘ग्लोबल विलेज’ की कल्पना

विज्ञान अगर सामाजिक प्राथमिकताओं के अनुरूप ढलने का प्रण ले सके, तो बहुत कुछ खोने से बचाया जा सकता है। कला के नाम पर कलंक रचने की अक्षम्य भूल नजरअंदाज हो रही

Vichar Bodh
हमारी अमीरी की निशानी अमीरों को सहूलियत देने में नहीं, साधनहीन जनसंख्या को मुख्यधारा में लाने से है।

हम अपने ही घर के किसी कोने में छिपे द्वंद्व, अपने पड़ोस में घटी से बेखबर, मायावी सपनों के सारथी हैं। स्वतंत्रता का यह कौन-सा बदलाववाद है, जहां उपलब्धियों से लबालब समय में एक अजनबी खौफ-सा महसूस होता है। पारंपरिक समझ की पुरानी गठरी कहीं विलुप्तप्राय होती नजर आती है।

चमकदार नारों में बही जा रही है सारी दुनिया

इसे उदारीकरण कहें या वैश्वीकरण, लेकिन इसके चमकदार नारों में सारी दुनिया बही जा रही। जबकि बहुतेरे ऐसे भी हैं, जिनके पास आज भी एक दिन में दूसरे वक्त की रोटी और छत नसीब नहीं है। सम्मोहक विज्ञापनों की चमकीली दुनिया हमें भाती है। एक शास्त्रीय या बारीक ज्ञान की ही देन है ‘आवश्यकता अविष्कार की जननी है’। जरूरी माना जाने वाला यह वाक्यांश अब एक बहाना बन चुका है।

सारा तकनीकी विकास हमारी समूची सामाजिक आकांक्षाओं का प्रतिफल है

सवाल है कि क्या हमारे अविष्कार वाकई हमारी आवश्यकता के अनुरूप हैं? इस तर्ज पर तो सारा तकनीकी विकास हमारी समूची सामाजिक आकांक्षाओं का प्रतिफल है। आखिर हम ये कब समझ सकेंगे कि उस विज्ञान से हमारा मूल आशय क्या था? क्या महज सुविधाभोगी अविष्कारों को पंक्तिबद्ध करना? या फिर किसी विशेष ज्ञान से लैस होना, जो कभी न्यूटन जैसे उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत करता था?

वे जो प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को विज्ञान में खोजते थे, आज का विज्ञान प्रकृतिविहीन होने को विज्ञान कहता है। विचार और व्यवहार, दोनों की भाषा आज यांत्रिक है। वे जो प्रबंधन के विद्यार्थी रहें हैं, उन्होंने जरूर यह सूक्ति कहीं न कहीं पढ़ी होगी- ‘एक संस्थान उतना ही अच्छा या बुरा हो होता है, जितना वहां काम करने वाले।’ लेकिन अब ऐसा नहीं है कि किसी भी संस्थान की गुणवत्ता उसमें काम करने वाले लोगों की गुणवत्ता से तय हो।

यों भी यह मशीनी युग है। मशीनी गुणवत्ता पर बात होती है उसके ब्रांड या उसकी कंपनी पर बात होती है, उसे बनाने वाले इंसानों की नहीं। यह परिवर्तन महज यांत्रिक शब्दावली की नफासत नहीं, इसके पीछे भी अपूर्व छद्म शक्तियां हैं। अंतरराष्ट्रीय कर्ज में गले तक डूबी हमारी आर्थिकी महज एकतरफा आयात का सबब बनते-बनते उन नुक्क्ड़ दुकानों के लिए अभिशाप बन गई, जिनसे छोटी-छोटी ही सही, जिंदगियां बसर होती थीं। आज आप जेब में पैसे रखे रहेंगे, तो घर बैठे-बैठे फ्रांस का तेल, दुबई का बिस्कुट मिल जाएगा।

और हम ठंडी रोटी और चाय से ब्रेड पर, ब्रेड से पिज्जा बर्गर और जाने कौन-कौन से अजीबोगरीब नाम को अपनी जिंदगी की सुबह-ओ-शाम के साथ जोड़ बैठे हैं। बहुराष्ट्रीय दानवों के शिकंजे में दम घोंटती सभ्यता वर्ग विभाजन की दरारों को खाई में तब्दील कर गई। अपनी परंपरागत जमीन से बेदखल होते हम बाजार की प्राथमिकताओं के समीकरण में खुलेआम बंधे जा रहे। उस पर सिर उठाता प्रायोजित धार्मिक नवजागरणवाद। देश में धर्म के नाम के होती निर्मम घटनाएं कौन-सी जागरूकता या स्वाधीनता का द्योतक हैं, यह किसी भी सोचने-समझने वाले को
तय करना चाहिए।

दरअसल, इस दौर के आधुनिक समाज को राजनीति, मीडिया और भाषा के पाठ ने अवसादमूलक और अमानवीय स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। नव संस्कृतिवाद भोग का भूखा है, इसे गलत कैसे साबित करें? हिंदुस्तानी जीवन की जैसे आंतरिक लय टूट-सी रही है। उसे नव संस्कृतिवाद का नाम दिया जा रहा। फैशन में तब्दील होती विश्वविद्यालय संस्कृति और बुद्धिजीवियों की स्वाधीनता का बदलाववाद है यह।

बदलाव के किस नाटकीय रंग में रंगे जा रहे, हम खुद नहीं जानते। वैश्विक बाजार, वैश्विक विचार जैसे अंग्रेजी में ‘ग्लोबल’ जैसे लच्छेदार शब्द प्रबुद्ध होने की निशानी मानी जा रही है। कालेज से लेकर क्लबों तक सब कारपोरेट संस्कृति के अधीन अब राजनीति भी। विज्ञान अगर सामाजिक प्राथमिकताओं के अनुरूप ढलने का प्रण ले सके, तो बहुत कुछ खोने से बचाया जा सकता है। कला के नाम पर कलंक रचने की अक्षम्य भूल नजरअंदाज हो रही।

वैश्विक गांव या ‘ग्लोबल विलेज’ की कल्पना आखिर किसके लिए है? हमारी अमीरी की निशानी अमीरों को सहूलियत देने में नहीं, साधनहीन जनसंख्या को मुख्यधारा में लाने से है। मुफ्त अनाज से पेट तो भर ही जाता है, लेकिन प्रतिभा और जीवन स्तर की गुणवत्ता भरने के इतंजाम भी साथ-साथ चलें। आखिरकार हमें वैश्वीकरण की निहायती चालू और सतही शब्दावली से खुद को बचाना होगा।

इस बदलाव में जितनी सरकार की भागीदारी है, उतनी ही जवाबदेही उस आम आदमी की भी है जो बाजार को बिना किसी निष्कर्ष प्रधान विरोध के अपनाता है। कभी शौक से, कभी प्रायोजित जरूरतों के मकड़जाल में फंसकर। आखिर बाजार जरूरतें पैदा तो कर सकता है, लेकिन उसे अपनाने को बाध्य नहीं कर सकता। दरअसल, हम संघर्ष विरोधी समय में जी रहे हैं, इसलिए विरोध नहीं करते, सवाल नहीं उठाते। यह संवैधानिक अधिकारों का मसला है। उपभोक्ता को अपने अधिकारों के साथ अपनी जरूरतों में भी छानन तो लगाना ही होगा।

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First published on: 22-03-2023 at 05:44 IST
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