अटल बिहारी वाजपेयी और सुब्रमण्यम स्वामी। भारतीय राजनीति के दो ध्रुव। दोनों की विचारधारा एक, लेकिन जब तक वाजपेयी जिंदा रहे उनकी न तो स्वामी से बनी और न ही पार्टी में एंट्री मिली। दोनों के बीच तल्खी जगजाहिर थी। हालांकि बहुत कम लोग जानते हैं कि एक वक्त ऐसा भी था जब दोनों के बीच बेहद करीबी थी। यहां तक कि उस दौर में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरता था, जब दोनों के बीच बात न हो।

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वाजपेयी ने सिखाया था धोती पहनना: सुब्रमण्यम स्वामी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे। साल 1970 में उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और भारत वापस लौट आए। उनके स्वदेश लौटने की सबसे बड़ी वजह जयप्रकाश नारायण थे, जो उन दिनों इंदिरा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे और विपक्ष को एकजुट करने में लगे थे। स्वामी जब भारत लौटे तो उनकी उम्र महज 31 साल थी।

यहां जनसंघ और आरएसएस के तमाम नेताओं, खासकर नानाजी देशमुख और दत्तोपंत ठेंगड़ी के अलावा उनकी अटल बिहारी वाजपेयी से भी करीबी बढ़ी। खुद स्वामी कहते हैं कि 1970 और 1971 के शुरुआती महीनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरता था, जब उनकी वाजपेयी से बात न होती हो। वाजपेयी ने ही स्वामी को धोती पहनना सिखाया था।

वाजपेयी को स्वामी से महसूस हुआ खतरा: चर्चित लेखक और पत्रकार विनय सीतापति अपनी किताब ‘जुगलबंदी: द बीजेपी बिफोर मोदी’ में लिखते हैं कि उन दिनों वाजपेयी पार्टी में अपनी पकड़ मजबूत बनाने में लगे थे। उन्हें तेजी से उभरते स्वामी से खतरा महसूस हुआ। स्वामी आरएसएस के करीब आ रहे थे। उन्हें जनसंघ के लिए आर्थिक मसौदा तैयार करने की अहम जिम्मेदारी भी मिल गई थी।

नानाजी से दूर रहने की दी थी सलाह: दूसरी बात जो वाजपेयी को खटकती थी, वो स्वामी की नानाजी देशमुख से करीबी थी, जिन्होंने स्वामी को साल 1974 में राज्यसभा भेजा था। अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख से कई मसलों पर असहमत थे। सुब्रमण्यम स्वामी कहते हैं कि ‘वाजपेयी ने मुझसे दो टूक कहा कि मैं नानाजी के साथ न रहूं। बस तभी से वाजपेयी के साथ मेरी परेशानियां शुरू हुईं।’ स्वामी, नानाजी और वाजपेयी के बीच तल्खी की एक वजह बताते हुए कहते हैं कि, ‘वाजपेयी काम कम करते थे, लेकिन सबकी नजरों में बने रहते थे, यही बात नानाजी को नापसंद थी। एक बार नानाजी ने कह दिया था, भीड़ हम लाते हैं, दरी हम बिछाते हैं और सारा श्रेय अटलजी ले जाते हैं।’

वाजपेयी ने कह दिया- स्वामी से हमारा संबंध नहीं: सुब्रमण्यम स्वामी और वाजपेयी के बीच दरार की दो और वजहें हैं। स्वामी की पत्नी रौक्शना स्वामी अपनी किताब ‘इवॉल्विंग विद सुब्रमण्यम स्वामी: अ रोलर कोस्टर राइड’ में लिखती हैं कि इमरजेंसी के दौरान सुब्रमण्यम स्वामी अंडरग्राउंड हो गए थे। उन्हें राज्यसभा से भी निलंबित कर दिया गया था। रौक्शना कहती हैं कि स्वामी पर इस कार्रवाई के खिलाफ हम याचिका दाखिल करना चाहते थे और जनसंघ में कानूनी मसलों को देख रहे अप्पा घटाटे के पास गए। उन्होंने कहा कि वाजपेयी ने साफ कहा कि स्वामी से दूरी बनाकर रखी जाए, उनका हमसे कोई संबंध नहीं है।

रौक्शना लिखती हैं, ‘इसके बाद मैं वाजपेयी से भी मिली और उनसे घटाटे को दी सलाह के बारे में पूछा। इसपर उन्होंने कहा कि स्वामी के चलते जनसंघ की बदनामी हुई है। वजह बिना संसद गए गलत तरीके से टीए-डीए क्लेम करना।’ रौक्शना लिखती हैं कि दरअसल वाजपेयी, स्वामी की मदद करना ही नहीं चाहते थे। इसलिये बात बनाई थी।

सरकार गंवाना उचित समझा, स्वामी को मंत्री नहीं बनाया: सुब्रमण्यम स्वामी और वाजपेयी के बीच तल्खी साल 1999 में एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गई, जहां से वापस लौटना मुश्किल था। केंद्र में वाजपेयी की सरकार थी और जयललिता उन्हें समर्थन दे रही थीं। बदले में वो दो चीजें चाहती थीं। पहला- वाजपेयी, सुब्रमण्यम स्वामी को वित्त मंत्री बना दें और दूसरा तमिलनाडु की तत्कालीन करुणानिधि सरकार पर नकेल कसे। वाजपेयी दोनों के लिए तैयार नहीं हुए।

और स्वामी ने चला ट्रंप कार्ड: अपनी उपेक्षा से खफा स्वामी ने ट्रंप कार्ड चला। उन्होंने एक चाय पार्टी आयोजित की इस पार्टी में जयललिता और सोनिया गांधी को एक टेबल पर बैठा दिया। इसी पार्टी में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिराने की पटकथा लिखी गई। जयललिता ने समर्थन वापस ले लिया। वाजपेयी सरकार बहुमत साबित नहीं कर पाई और एक वोट से सरकार गिर गई। हालांकि बाद में वाजपेयी सत्ता में तो लौट आए लेकिन सुब्रमण्यम स्वामी संग आजीवन उनकी तल्खी बनी रही।