Allahabad High Court: इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने हाल ही यूपी डीजीपी द्वारा अदालत में दिए गए आंकड़ों पर संदेह जताया है। डीजीपी ने दावा किया था कि 2018 से राज्य में सिर्फ 11 मॉब लिंचिंग के मामले दर्ज हुए हैं।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, कोर्ट ने कहा कि यह आंकड़ा “पहली नजर में गलत लगता है”। जस्टिस अब्दुल मोइन और जस्टिस राजीव भारती की खंडपीठ ने बताया कि उच्च न्यायालय ने स्वयं अक्टूबर में इसी तरह के दो अलग-अलग मामलों को पहले ही देखा और निपटाया था।
पिछले महीने एक आदेश में, अदालत ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि वह उत्तर प्रदेश पीड़ित मुआवजा योजना, 2014 और भीड़ हिंसा से जुड़ा अगस्त 2018 का सरकारी आदेश लगातार 4 हफ्तों तक हर दिन के अखबार के पहले पन्ने पर प्रमुख रूप से प्रकाशित करे। यह आदेश उस मामले में आया था, जिसमें हाई कोर्ट उत्तर प्रदेश गौहत्या निवारण अधिनियम, 1955 के तहत दर्ज एफआईआर को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई कर रहा था।
अक्टूबर में, अदालत ने संज्ञान लिया कि पुलिस अधिकारी 1955 के अधिनियम के तहत मामले दर्ज करने में लापरवाही कर रहे हैं और राज्य में गौ रक्षा के नाम पर हिंसा बढ़ती जा रही है। अदालत ने गृह विभाग के प्रधान सचिव और पुलिस प्रमुख (डीजीपी) को निर्देश दिया कि वे अपना व्यक्तिगत हलफनामा दाखिल करें और बताएं कि अधिनियम के नियम लागू न होने के बावजूद इस तरह की एफआईआर क्यों दर्ज की जा रही हैं।
पीठ ने इस मुद्दे पर हलफनामे भी मांगे थे कि राज्य सरकार ने भीड़ हिंसा और खुद कानून हाथ में लेने की घटनाओं को रोकने के लिए राज्य सरकार ने अब तक सुप्रीम कोर्ट के तहसीन एस. पूनावाला बनाम भारत संघ (2018) मामले में दिए गए निर्देशों के अनुसार कोई औपचारिक सरकारी आदेश क्यों जारी नहीं किया है।
हाई कोर्ट के आदेश के अनुसार, 7 नवंबर को अतिरिक्त सरकारी वकील (एजीए) अनुराग वर्मा ने डीजीपी के हलफनामे के साथ लगाए गए एक चार्ट का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि 28 अगस्त 2018 को सरकारी आदेश जारी होने के बाद से राज्य में मॉब लिंचिंग के केवल 11 मामले दर्ज किए गए हैं।
हालांकि, पीठ ने इन आंकड़ों को बिना सीधे तौर पर मानने से इनकार कर दिया। कड़ी टिप्पणी करते हुए अदालत ने कहा कि उसे चार्ट में दिए गए आंकड़ों पर शक है, क्योंकि अक्टूबर में उसने खुद भीड़ द्वारा कानून हाथ में लेने से जुड़े दो मामलों की सुनवाई की थी। अदालत ने बताया कि एक मामले में भीड़ ने याचिकाकर्ता की कार छीन ली थी, जबकि दूसरे मामले में भीड़ ने गाय के बछड़ों से भरी ट्रैक्टर-ट्रॉली पर कब्जा कर लिया था।
पीठ ने टिप्पणी की, “पिछले सात सालों में सिर्फ 11 मामले बताए जाना, जबकि सिर्फ एक महीने में ही अदालत के सामने दो मामले आ चुके हैं, पहली नजर में गलत लगता है। पीठ ने टिप्पणी की कि ये आंकड़े वास्तविक स्थिति को सही तरीके से नहीं दिखाते।”
सुनवाई के दौरान राज्य सरकार ने 2018 के सरकारी आदेश के अनुच्छेद 10 का हवाला देते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश पीड़ित मुआवजा योजना, 2014 (जिसे 14 जून 2016 को संशोधित किया गया) में सतर्कतावाद और भीड़ हिंसा से जुड़े सभी मामले शामिल हैं।
अतिरिक्त सरकारी वकील (एजीए) ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में 30 दिनों के भीतर मुआवजा दिया जाना चाहिए, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के तहसीन एस. पूनावाला बनाम भारत संघ (2018) के फैसले में निर्देश दिया गया है।
लेकिन हाई कोर्ट ने पाया कि सरकारी आदेश के अनुच्छेद 6 में रेडियो, टीवी और अन्य मीडिया के माध्यम से व्यापक प्रचार करने की बात कही गई है, ताकि लोगों को बताया जा सके कि भीड़ हिंसा पर सख्त कार्रवाई होगी। इसके बावजूद, गृह विभाग के प्रधान सचिव द्वारा दाखिल हलफनामे में यह साफ नहीं किया गया कि ऐसा प्रचार वास्तव में किया गया या नहीं।
इसी कारण, लोगों को भीड़ हिंसा पर होने वाली सख्त कार्रवाई और मुआवजा पाने के उनके अधिकार के बारे में जानकारी देना जरूरी समझते हुए हाई कोर्ट ने तुरंत प्रचार करने का आदेश दिया।
अदालत ने आदेश दिया कि राज्य सरकार उस सरकारी आदेश और उत्तर प्रदेश पीड़ित मुआवजा योजना, 2014 (जो 14 जून 2016 को संशोधित है) को अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं के ऐसे अखबारों के पहले पन्ने पर प्रकाशित करे, जिनका राज्य में अच्छा प्रसार हो। यह प्रकाशन लगातार कम से कम चार हफ्तों तक, और हर हफ्ते कम से कम एक बार किया जाए।
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इस मामले की अगली सुनवाई 13 जनवरी 2026 को होगी। उस दिन प्रधान सचिव (गृह) को अदालत के आदेश के अनुसार की गई कार्रवाई की जानकारी देते हुए अपना व्यक्तिगत हलफनामा दाखिल करना होगा। हलफनामे में यह भी बताना जरूरी होगा कि अखबारों में सूचना प्रकाशित होने के बाद मुआवजे के लिए कोई नए आवेदन आए हैं या नहीं।
इसके अलावा, राज्य सरकार को डीजीपी के चार्ट में बताए गए भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या के 11 मामलों में कितना मुआवजा दिया गया, इसका पूरा विवरण भी देना होगा। वर्तमान मामले में 1955 के अधिनियम के तहत दर्ज एफआईआर के बारे में राज्य ने बताया कि जांच अभी चल रही है।
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