इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। अपनी याचिका में जस्टिस वर्मा ने लोकसभा अध्यक्ष के उस फैसले को रद्द करने की मांग की है, जिसमें उनके महाभियोग के लिए न्यायाधीश (जांच) अधिनियम के तहत उनके खिलाफ तीन सदस्यीय समिति का गठन किया गया था।
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ए. जी. मसीह की पीठ ने आज लोकसभा अध्यक्ष के साथ-साथ राज्यसभा और लोकसभा के सचिवालयों को नोटिस जारी किया। वर्मा ने लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को प्रक्रियागत आधार (Procedural Grounds) पर चुनौती दी है। उनका कहना है कि उनके खिलाफ महाभियोग का नोटिस लोकसभा और राज्यसभा, दोनों में दिया गया था। इसके बावजूद लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने राज्यसभा अध्यक्ष द्वारा प्रस्ताव स्वीकार किए जाने का इंतज़ार नहीं किया और कानून में बताए गए संयुक्त परामर्श के बिना ही अकेले समिति बना दी।
याचिका में कहा गया है कि माननीय अध्यक्ष ने 21.07.2025 को लोकसभा में पेश किए गए प्रस्ताव को स्वीकार करने के बाद 12.08.2025 को एकतरफा रूप से एक समिति का गठन करके न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 की धारा 3(2) के परंतुक का स्पष्ट उल्लंघन किया है, क्योंकि उसी दिन राज्यसभा में एक अलग प्रस्ताव पेश किया गया था जिसे स्वीकार नहीं किया गया था।
आज की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट इस तर्क से सहमत प्रतीत हुआ। उसने पूछा कि संसद में मौजूद कानूनी विशेषज्ञों ने इसे होने कैसे दिया। जस्टिस दत्ता ने पूछा कि इतने सारे सांसद और कानूनी विशेषज्ञ मौजूद थे, लेकिन किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिलाया?
अगस्त में, लोकसभा अध्यक्ष ने औपचारिक रूप से जस्टिस वर्मा को हाई कोर्ट के न्यायाधीश के पद से हटाने की प्रक्रिया शुरू की थी। स्पीकर ने दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश के आवास पर नकदी की बरामदगी की जांच के लिए एक समिति का गठन किया।
इससे पहले हाई कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की आंतरिक जांच में न्यायाधीश को दोषी पाया गया था और उन्हें पद से हटाने की सिफारिश की गई थी। इसके बाद केंद्र सरकार ने संसद में न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पेश किया, जो वर्तमान में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में तैनात हैं।
संसद के 146 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित प्रस्ताव को अध्यक्ष ने स्वीकार कर लिया। इसके बाद लोकसभा अध्यक्ष ने घटना की जांच के लिए निम्नलिखित तीन सदस्यों की एक समिति का गठन किया था। जिसमें- सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरविंद कुमार, मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मनिंद्र मोहन श्रीवास्तव और वरिष्ठ अधिवक्ता बी. वासुदेव आचार्य।
पिछले महीने पैनल ने जस्टिस वर्मा से उनके खिलाफ लगे आरोपों पर लिखित बयान मांगा था। इस पत्र के जवाब में जस्टिस वर्मा ने जुलाई में दोनों सदनों के समक्ष प्रस्तुत किए गए प्रस्तावों और उनके परिणामस्वरूप पारित किए गए किसी भी आदेश की प्रमाणित प्रतियां मांगीं। हालांकि, जस्टिस वर्मा ने अपनी याचिका में आरोप लगाया है कि उन्हें लोकसभा और राज्यसभा को भेजे गए पत्रों का अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है। उन्होंने समिति को पत्र लिखकर लोकसभा अध्यक्ष के कार्यों को चुनौती देने के अपने इरादे से अवगत भी कराया था।
परिणामस्वरूप, उन्हें लिखित जवाब देने के लिए दी गई समय सीमा 12 जनवरी, 2026 तक बढ़ा दी गई है। उन्हें 24 जनवरी को समिति के समक्ष उपस्थित होने के लिए कहा गया है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट जनवरी के पहले सप्ताह में न्यायमूर्ति वर्मा की याचिका पर सुनवाई करेगा। गौरतलब है कि उन्होंने समिति द्वारा जारी नोटिस को भी चुनौती दी है।
क्या है मामला?
बता दें, 14 मार्च, 2025 की शाम को जस्टिस वर्मा के घर में लगी आग के कारण दमकलकर्मियों द्वारा कथित तौर पर बेहिसाब नकदी बरामद की गई थी। हालांकि, घटना के वक्त जस्टिस वर्मा और उनकी पत्नी उस समय दिल्ली में नहीं थे और मध्य प्रदेश की यात्रा पर थे। आग लगने के समय घर पर केवल उनकी बेटी और वृद्ध माता ही मौजूद थे। बाद में एक वीडियो सामने आया जिसमें नकदी के बंडल आग में जलते हुए दिखाई दे रहे थे।
इस घटना के बाद न्यायमूर्ति वर्मा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे, जिन्हें उन्होंने नकारते हुए कहा कि यह उन्हें फंसाने की साजिश प्रतीत होती है। भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना (जो अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं) ने आरोपों की आंतरिक जांच शुरू की और 22 मार्च को जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन किया ।
न्यायमूर्ति वर्मा की जांच करने वाली समिति में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शील नागू , हिमाचल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जी.एस. संधावालिया और कर्नाटक उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति अनु शिवरामन शामिल थे। समिति ने 25 मार्च को जांच शुरू की और 4 मई को मुख्य न्यायाधीश खन्ना को अपनी रिपोर्ट सौंपी ।
आंतरिक समिति की रिपोर्ट मिलने पर मुख्य न्यायाधीश ने न्यायमूर्ति वर्मा को इस्तीफा देने या महाभियोग की कार्यवाही का सामना करने के लिए कहा। हालांकि, न्यायमूर्ति वर्मा द्वारा इस्तीफा देने से इनकार करने पर, मुख्य न्यायाधीश खन्ना ने न्यायाधीश को हटाने के लिए रिपोर्ट और उस पर न्यायाधीश की प्रतिक्रिया भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेज दी। आरोपों के बाद, न्यायमूर्ति वर्मा को दिल्ली उच्च न्यायालय से उनके मूल उच्च न्यायालय (इलाहाबाद हाई कोर्ट) में वापस भेज दिया गया। उनका न्यायिक कार्य फिलहाल रोक दिया गया है और आगे की कार्रवाई का इंतजार है।
7 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने आंतरिक समिति की रिपोर्ट और मुख्य न्यायाधीश खन्ना द्वारा न्यायमूर्ति वर्मा को पद से हटाने की सिफारिश के खिलाफ दायर याचिका को खारिज कर दिया। जस्टिस वर्मा ने अब न्यायाधीश (जांच) अधिनियम के तहत शुरू की गई कार्यवाही को चुनौती देते हुए यह याचिका दायर की है।
जज को हटाने का क्या है नियम?
कानून के अनुसार, लोकसभा और राज्यसभा में महाभियोग की कार्यवाही के बिना किसी न्यायाधीश को पद से नहीं हटाया जा सकता। भारत के संविधान के अनुच्छेद 124(4) में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को राष्ट्रपति के आदेश के बिना उनके पद से नहीं हटाया जा सकता।
संसद के प्रत्येक सदन द्वारा उपस्थित सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव का समर्थन करने के बाद राष्ट्रपति ऐसा कर सकते हैं। अनुच्छेद 218 इस प्रावधान को उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर भी लागू करता है।
न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1986 के तहत, राज्यसभा के अध्यक्ष या लोकसभा के अध्यक्ष को किसी न्यायाधीश के खिलाफ वैध महाभियोग नोटिस प्राप्त होने पर, आरोपों की जांच के लिए न्यायाधीशों और एक न्यायविद की समिति का गठन करना होता है।
धारा 3(9) में कहा गया है, “यदि अध्यक्ष या चेयरमैन, या दोनों द्वारा आवश्यक हो तो केंद्र सरकार न्यायाधीश के विरुद्ध मामले की पैरवी करने के लिए एक वकील नियुक्त कर सकती है।” इसके बाद इस समिति की रिपोर्ट को संसद में विचार के लिए प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है।
अधिनियम की धारा 6(3) में कहा गया है, “यदि संसद के प्रत्येक सदन द्वारा अनुच्छेद 124 के खंड (4) के प्रावधानों के अनुसार या, जैसा भी मामला हो, संविधान के अनुच्छेद 218 के साथ पढ़े गए उस खंड के अनुसार प्रस्ताव पारित किया जाता है, तो न्यायाधीश का दुर्व्यवहार या अक्षमता सिद्ध मानी जाएगी और न्यायाधीश को हटाने की प्रार्थना करते हुए एक आवेदन संसद के प्रत्येक सदन द्वारा उसी सत्र में राष्ट्रपति को निर्धारित तरीके से प्रस्तुत किया जाएगा जिसमें प्रस्ताव पारित किया गया है।”
जस्टिस वर्मा ने याचिका में क्या तर्क दिया?
अपनी याचिका में जस्टिस वर्मा ने तर्क दिया है कि जांच अधिनियम के तहत निर्धारित प्रक्रिया एक साधारण विधायी अभ्यास नहीं है, बल्कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 124(5) द्वारा संसद पर लगाए गए संवैधानिक दायित्व का प्रतिबिंब है।
याचिका में कहा गया है , “इस माननीय न्यायालय द्वारा बार-बार और लगातार यह माना गया है कि संवैधानिक न्यायालयों के मौजूदा न्यायाधीशों को हटाने से संबंधित संवैधानिक और वैधानिक प्रक्रियाओं की व्याख्या बिना किसी अपवाद के सख्ती से की जानी चाहिए, ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो सके और हटाने की प्रक्रिया में किसी भी मनमानी गड़बड़ी को रोका जा सके।”
इसमें आगे कहा गया है कि न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 की धारा 3 के तहत समिति के गठन से पहले, दोनों प्रस्तावों को स्वीकार किया जाना आवश्यक है। याचिका में तर्क दिया गया है कि यदि कोई भी प्रस्ताव खारिज कर दिया जाता है, तो दूसरा सदन एकतरफा कार्यवाही नहीं कर सकता।
जस्टिस वर्मा ने तर्क दिया है कि “ इस प्रावधान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि लोकसभा के माननीय अध्यक्ष या राज्यसभा के माननीय अध्यक्ष, दोनों सदनों के समक्ष एक ही दिन प्रस्तुत प्रस्तावों को स्वीकार किए जाने के बाद, अपने प्रदत्त अधिकारों का एकतरफा प्रयोग नहीं कर सकते; केवल तभी वे संयुक्त रूप से एक समिति का गठन कर सकते हैं। अतः, माननीय अध्यक्ष द्वारा एकतरफा रूप से समिति का गठन करना, न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 की धारा 3 के विपरीत और असंवैधानिक है। ”
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इसके अलावा, उन्होंने यह तर्क दिया है कि लोकसभा में दिया गया नोटिस सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व के फैसले के विपरीत था, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि आंतरिक प्रक्रिया के तहत समिति द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के निष्कर्षों पर किसी न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया से संबंधित किसी भी उद्देश्य के लिए भरोसा नहीं किया जा सकता है। न्यायमूर्ति वर्मा ने आरोप लगाया कि लोकसभा के समक्ष पेश किया गया प्रस्ताव पूरी तरह से रिपोर्ट के निष्कर्षों पर आधारित था।
जस्टिस वर्मा की तरफ से पेश हुए वकीलों में वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी , राकेश द्विवेदी , सिद्धार्थ लूथरा , सिद्धार्थ अग्रवाल और जयंत मेहता , अधिवक्ता स्तुति गुजराल, वैभव नीति, केशव, सौम्य शंकरन, अभिनव सेखरी और विश्वजीत सिंह शामिल हैं।
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