Anil Ambani RCOM Bank Fraud Case: सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की गई है। याचिका में रिलायंस कम्युनिकेशंस (RCOM), उसकी समूह संस्थाओं और उसके पूर्व प्रमोटर अनिल अंबानी से जुड़े एक बड़े बैंकिंग घोटाले की अदालत की निगरानी में जांच की माँग की गई है। इसमें धन के व्यवस्थित रूप से दुरुपयोग, खातों में हेराफेरी और संस्थागत मिलीभगत का आरोप लगाया गया है।
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, यह याचिका भारत सरकार के पूर्व सचिव ईएएस सरमा द्वारा दायर की गई है। इस याचिका में दावा किया गया है कि सीबीआई द्वारा 21 अगस्त, 2025 को दर्ज की गई प्राथमिकी (FIR) और उससे जुड़ी प्रवर्तन निदेशालय (ED) की कार्यवाही कथित गड़बड़ी का केवल एक अंश ही कवर करती है। इसमें कहा गया है कि विस्तृत फोरेंसिक ऑडिट (Forensic Audits) और व्यापक धोखाधड़ी (Widespread Fraud) की ओर इशारा करने वाली स्वतंत्र रिपोर्टों के बावजूद, एजेंसियां बैंक अधिकारियों और नियामकों (Bank Officials and Regulators) की भूमिका की जांच नहीं कर रही हैं।
याचिका में यह भी कहा गया है कि व्यवस्थित धोखाधड़ी (Systematic Fraud) और धन के दुरुपयोग के निष्कर्षों की बॉम्बे हाई कोर्ट के एक निर्णय द्वारा न्यायिक पुष्टि की गई है।
याचिका के अनुसार, आरकॉम (RCOM) और उसकी सहायक कंपनियों- रिलायंस इंफ्राटेल और रिलायंस टेलीकॉम को भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के नेतृत्व वाले बैंकों के एक संघ से 2013 और 2017 के बीच 31,580 करोड़ रुपये का ऋण मिला।
याचिका में कहा गया है कि एसबीआई (SBI) द्वारा कराए गए एक फोरेंसिक ऑडिट में कथित तौर पर धन के बड़े पैमाने पर हेरफेर का खुलासा हुआ है, जिसमें हज़ारों करोड़ रुपये का इस्तेमाल असंबंधित ऋणों के भुगतान, संबंधित पक्षों को धन हस्तांतरण, म्यूचुअल फंड और सावधि जमा में निवेश, जिन्हें तुरंत भुनाया गया। जनहित याचिका में कहा गया है कि ऑडिट में उन बैंक खातों से दर्ज लेनदेन का भी उल्लेख किया गया है जिन्हें बंद घोषित कर दिया गया था, जिससे वित्तीय विवरणों के फर्जीवाड़े की चिंताएं पैदा होती हैं।
दावा किया गया है कि कई फर्जी संस्थाओं और संदिग्ध कॉर्पोरेट ढांचों- जैसे नेटिज़न इंजीनियरिंग (Netizen Engineering) और कुंज बिहारी डेवलपर्स (Kunj Bihari Developers) का कथित तौर पर ऋण राशि की हेराफेरी और धनशोधन के लिए इस्तेमाल किया गया। इसमें ऐसे उदाहरणों पर प्रकाश डाला गया है जहां सहायक कंपनियों का इस्तेमाल फर्जी वरीयता-शेयर व्यवस्थाओं के माध्यम से बड़ी देनदारियों को बट्टे खाते में डालने के लिए किया गया, जिससे कथित तौर पर 1,800 करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हुआ।
याचिकाकर्ता का दावा है कि ये निष्कर्ष नुकसान को छिपाने, सार्वजनिक धन के दुरुपयोग को छिपाने तथा वित्तीय रिपोर्टिंग में हेरफेर करने के लिए जानबूझकर किए गए व्यवस्थित प्रयास को दर्शाते हैं।
याचिका में उठाई गई एक मुख्य शिकायत एसबीआई द्वारा अक्टूबर 2020 में प्राप्त फोरेंसिक ऑडिट रिपोर्ट पर कार्रवाई करने में लगभग पांच साल की देरी है। बैंक ने अपनी शिकायत अगस्त 2025 में ही दर्ज की, जिसके बारे में याचिकाकर्ता का दावा है कि इससे प्रथम दृष्टया “संस्थागत मिलीभगत” का अनुमान लगता है। चूंकि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत राष्ट्रीयकृत बैंकों के अधिकारियों को लोक सेवक माना जाता है, इसलिए याचिकाकर्ता का तर्क है कि जांच के एक भाग के रूप में उनके आचरण की भी जांच की जानी चाहिए।
याचिका में अनिल अंबानी के नेतृत्व वाली अन्य संस्थाओं से जुड़े बाद के फोरेंसिक ऑडिट और जांच का भी हवाला दिया गया है। इसमें रिलायंस कैपिटल से जुड़े निष्कर्षों का हवाला दिया गया है, जिसने कथित तौर पर नकारात्मक नेटवर्थ वाली सहायक कंपनियों को लगभग 16,000 करोड़ रुपये के अंतर-कॉर्पोरेट डिपॉजिट दिए और बिना किसी पर्याप्त आधार के 4,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा मूल्य की प्रतिभूतियों का अवमूल्यन (Devalued) किया।
एक अलग जांच में पाया गया कि गृह वित्त की सहायक कंपनियों ने हज़ारों करोड़ रुपए प्रमोटरों से जुड़ी कंपनियों में डायवर्ट किए थे। याचिकाकर्ता का दावा है कि कुल मिलाकर, ये सामग्रियां (Materials) समूह की कई कंपनियों में वित्तीय अनियमितताओं के एक निरंतर पैटर्न को दर्शाती हैं।
जनहित याचिका में मॉरीशस (Mauritius), साइप्रस (Cyprus) और ब्रिटिश वर्जिन द्वीप (British Virgin Islands) समूह जैसे विदेशी क्षेत्राधिकारों में स्थापित कई स्तरों की मुखौटा संस्थाओं (Multiple Layers of Shell Entities), विशेष प्रयोजन वाहनों (एसपीवी) और कंपनियों के माध्यम से हज़ारों करोड़ रुपये के अपतटीय धन के दुरुपयोग के आरोपों की ओर भी इशारा किया गया है। याचिकाकर्ता के अनुसार, धन के लेन-देन को छिपाने के लिए इन संस्थाओं का बार-बार नाम बदला गया, पुनः पंजीकरण कराया गया और अंततः प्रवर्तक-नियंत्रित संस्थाओं में विलय कर दिया गया। याचिका में दावा किया गया है कि इस तरह के जटिल सीमा-पार लेनदेन विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम और धन शोधन निवारण अधिनियम के संभावित उल्लंघन की ओर इशारा करते हैं।
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याचिकाकर्ता का तर्क है कि सीबीआई और ईडी की वर्तमान जांच खातों में हेराफेरी, जालसाजी, गैर-मौजूद बैंक खातों का इस्तेमाल, संदिग्ध मुखौटा संस्थाओं की भूमिका (Role Of Suspected Shell Entities), सीमा पार लेनदेन और कॉर्पोरेट लेयरिंग जैसे मूल मुद्दों को सुलझाने में विफल रही है। तर्क दिया गया है कि बैंक अधिकारियों (Bank Officials), लेखा परीक्षकों (Auditors), नियामकों (Regulators) और सरकारी अधिकारियों (Government Authorities) की संलिप्तता की जांच किए बिना, जांच संवैधानिक रूप से अपूर्ण है और अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष और पूर्ण जाँच के अधिकार का उल्लंघन करती है।
इस प्रकार, याचिका में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एक जांच की मांग की गई है, जिसमें सभी फोरेंसिक ऑडिट निष्कर्ष, संबंधित कॉर्पोरेट दिवालियेपन कार्यवाही और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जांच सामग्री शामिल हो। इसमें भारतीय दंड संहिता, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, पीएमएलए, फेमा, कंपनी अधिनियम, सेबी अधिनियम, आरबीआई के निर्देशों और दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता (Insolvency and Bankruptcy Code) के तहत संभावित अपराधों की जांच के निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया है। याचिका में कहा गया है कि केवल न्यायिक निगरानी ही यह सुनिश्चित कर सकती है कि इतने व्यापक सार्वजनिक धन जोखिम से जुड़े मामले की गहन जांच हो और सभी जिम्मेदार व्यक्तियों को जवाबदेह ठहराया जाए।
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