सुप्रीम कोर्ट ने एक नाबालिग की तस्करी और यौन शोषण के मामले में एक व्यक्ति और उसकी पत्नी की सजा को बरकरार रखा है। कोर्ट नेकहा कि भारत में बाल तस्करी और व्यावसायिक यौन शोषण एक बेहद चिंताजनक वास्तविकता है, जो सुरक्षात्मक कानून होने के बावजूद फलफूल रही है।

जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस जॉयमाल्य बागची की पीठ ने टिप्पणी की कि ये मामले “अलग-थलग अपवाद” नहीं थे, बल्कि संगठित शोषण के एक व्यापक और जड़ जमा चुके पैटर्न का हिस्सा थे, जो विधायी सुरक्षा उपायों के बावजूद फल-फूल रहा है।

आदेश में कहा गया है, “यह मामला भारत में बाल तस्करी और व्यावसायिक यौन शोषण की बेहद परेशान करने वाली वास्तविकता को उजागर करता है, एक ऐसा अपराध जो गरिमा, शारीरिक अखंडता और प्रत्येक बच्चे को शोषण से बचाने के राज्य के संवैधानिक वादे की नींव पर प्रहार करता है, जिससे नैतिक और भौतिक परित्याग होता है।”

क्या है मामला?

शिकायतकर्ता को गैर सरकारी संगठन के कार्यकर्ताओं से सूचना मिली थी कि एक किराए के मकान में नाबालिग लड़कियों को यौन शोषण के लिए रखा जा रहा है। मौके पर छापेमारी करने पर, पीड़ित नाबालिग को बचाया गया और पत्नी से एक मोबाइल फोन और नकदी बरामद की गई।

ट्रायल कोर्ट ने दंपति को आईपीसी की धारा 366ए (नाबालिग लड़की का दलाली), 373 (वेश्यावृत्ति के लिए नाबालिग को खरीदना) और 34 (सामान्य इरादा) के तहत अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम, 1956 की विभिन्न धाराओं के साथ दोषी ठहराया। इसके बाद दोनों ने हाई कोर्ट में अपील की, लेकिन हाई कोर्ट ने उनकी अपील खारिज कर दी और ट्रायल कोर्ट का फैसला सही माना।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट दोनों ने मामले की सुनवाई ठीक तरह से की। उन्होंने यह समझा कि यौन तस्करी और वेश्यावृत्ति का शिकार बनी नाबालिग लड़कियों के बयान बहुत संवेदनशील होते हैं। इसलिए अदालतों ने उनके साक्ष्यों को ध्यान से, सहानुभूति के साथ और सही नजरिए से परखा, और उसी आधार पर फैसला दिया।

अदालत ने ऐसे मामलों में कुछ महत्वपूर्ण संकेतकों पर भी जोर दिया। जिसमें कहा गया-

जब कोई नाबालिग किसी हाशिए पर स्थित या सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़े समुदाय से संबंधित होता है, तो उसकी अंतर्निहित सामाजिक-आर्थिक और कभी-कभी सांस्कृतिक कमजोरी सामने आती है।

संगठित अपराध नेटवर्क की जटिल और बहुस्तरीय संरचना, जो नाबालिग पीड़ितों की भर्ती, परिवहन, आश्रय और शोषण के विभिन्न स्तरों पर काम करती है।

कानून प्रवर्तन एजेंसियों और अदालत के समक्ष भी यौन शोषण के भयावह रूप का वर्णन और ब्यौरा देना एक असहनीय अनुभव है जो द्वितीयक उत्पीड़न की ओर ले जाता है।

यदि इस प्रकार के सूक्ष्म मूल्यांकन पर पीड़िता का बयान विश्वसनीय और ठोस प्रतीत होता है, तो केवल उसकी गवाही के आधार पर दोषसिद्धि को बरकरार रखा जा सकता है।

यौन तस्करी की शिकार, विशेषकर नाबालिग, सह-अपराधी नहीं होती है और पीड़ित गवाह के रूप में उसके बयान को उचित सम्मान और विश्वसनीयता दी जानी चाहिए।

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अदालत ने पाया कि नाबालिग पीड़िता की गवाही विश्वसनीय है और इससे यह साबित हो गया है कि उस व्यक्ति और उसकी पत्नी ने उसे यौन शोषण के लिए हासिल किया था।

अदालत ने आगे कहा कि आईटीपीए की धारा 15(2) के तहत वैधानिक आवश्यकताओं का पर्याप्त रूप से पालन किया गया था, जो तलाशी अभियान का प्रावधान करती है, और इस आधार पर दोषसिद्धि पर संदेह नहीं किया जा सकता है। अतः न्यायालय ने उस व्यक्ति और उसकी पत्नी की दोषसिद्धि को बरकरार रखा और अपील खारिज कर दी।

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