Creamy Layer Verdict: पूर्व सीजेआई बीआर गवई ने शनिवार को कहा कि उन्हें उस फैसले के लिए व्यापक रूप से आलोचना का सामना करना पड़ा। जिसमें कहा गया था कि क्रीमी लेयर की अवधारणा को अनुसूचित जातियों (एससी) पर भी लागू किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि ये आरोप “संवैधानिक प्रावधानों की बुनियादी अज्ञानता” के कारण लगाए गए थे। गवई ने सवाल उठाया कि क्या सीजेआई के बेटे और एक मजदूर के बेटे के लिए भी यही मानदंड लागू किए जा सकते हैं।

पिछले साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा था कि अनुसूचित जातियों के विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को आरक्षण देने के लिए उन्हें उप-वर्गीकृत किया जा सकता है। इस पीठ के सदस्य जस्टिस गवई ने कहा था कि अनुसूचित जातियों के क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभ से बाहर रखा जाना चाहिए।

पूर्व सीजेआई गवई ने कहा, “उस फैसले को लेकर मेरे अपने समुदाय के लोगों ने मेरी बहुत आलोचना की है। मैं वर्तमान न्यायाधीश था, इसलिए उस पर कोई टिप्पणी करना मेरे लिए उचित नहीं था। वैसे भी, न्यायाधीशों को अपने फैसले पर चर्चा नहीं करनी चाहिए, लेकिन अब चूंकि मैं सेवानिवृत्त हो चुका हूं… मुझ पर आरोप लगाया गया कि मैंने आरक्षण का लाभ उठाकर मुख्य न्यायाधीश के पद तक पहुंच गया और अब वह क्रीमी लेयर सिद्धांत की वकालत कर रहे हैं। ये आरोप संवैधानिक प्रावधानों की बुनियादी अज्ञानता के कारण लगाए गए हैं।”

उन्होंने कहा, “जिन लोगों ने आरोप लगाए हैं, उन्हें यह भी नहीं पता कि उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के संवैधानिक पद के लिए कोई आरक्षण नहीं है। इन (अनुसूचित जातियों) श्रेणियों के लोगों को उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय या मुख्य न्यायाधीश के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए दूसरों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। आमतौर पर आप वरिष्ठता के आधार पर निर्णय लेते हैं और यदि आप उस तिथि तक सेवा करते हैं और आपकी आयु 65 वर्ष से कम है, तो आपको मुख्य न्यायाधीश बनने का मौका मिलता है।”

गवई ने कहा, “(आलोचकों द्वारा) यह प्रचारित करने की कोशिश की गई कि मैं पहला व्यक्ति हूं जो क्रीमी लेयर की अवधारणा का समर्थन कर रहा हूं। लेकिन मैं क्रीमी लेयर के बारे में बात करने वाला पहला व्यक्ति नहीं हूं। 1976 में, न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर ने (केरल राज्य बनाम थॉमस) इसका उल्लेख किया था… हम केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून को दोहरा रहे थे। हम पूर्व उदाहरणों के कानून में विश्वास करते हैं, और न्यायाधीश पूर्व निर्णयों में निर्धारित पूर्व उदाहरणों का पालन करते हैं… पिछले 75 वर्षों में, इसमें कोई संदेह नहीं है कि सकारात्मक कार्रवाई ने सकारात्मक भूमिका निभाई है।”

न्यायमूर्ति गवई ने आगे कहा, “मैं भारत की जनता से कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूं और उनसे जवाब चाहूंगा कि मैं सही हूं या गलत। पहला प्रश्न जो मैं पूछता हूं वह यह है कि क्या मुख्य न्यायाधीश या मुख्य सचिव के बेटे और ग्राम पंचायत या नगर पंचायत के स्कूल में पढ़े किसी मज़दूर के बेटे पर समान मानदंड लागू करने से अनुच्छेद 14, 15 और 16 की त्रिमूर्ति में निहित समानता की कसौटी पूरी होगी।”

उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि क्या मुख्य सचिव के बेटों और एक मजदूर, जिनके स्कूल अलग-अलग माहौल से हैं। उनके साथ समान व्यवहार करना “शेर और बैल के लिए वही कानून लागू करने के समान होगा, जैसा कि 1976 के मामले, केरल राज्य बनाम एनएम थॉमस में सुप्रीम कोर्ट ने उल्लेख किया था।”

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उन्होंने आखिरी सवाल यह उठाया कि क्या यह उचित है कि पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण का लाभ उठाकर आगे बढ़े, जबकि बहुत पीछे छूट गए लोगों को अभी भी उनसे प्रतिस्पर्धा करने के लिए कहा जा रहा है। गवई ने कहा कि क्या यह अनुच्छेद 14, 15 और 16 की त्रिमूर्ति में निहित समानता के प्रावधान के तहत वास्तव में स्वीकार्य होगा?

जस्टिस गवई ने लोकसत्ता के प्रधान संपादक गिरीश कुबेर के साथ अपने संबोधन के बाद बातचीत में कहा कि उनके एक लॉ क्लर्क, जो एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी के बेटे हैं। उन्होंने ‘क्रीमी लेयर’ के फैसले के बाद आरक्षण का लाभ नहीं लेने का फैसला किया। न्यायमूर्ति गवई ने कहा, “वह (लॉ क्लर्क) हमेशा इस सोच में रहता था कि उसे आरक्षण कैसे मिले, क्योंकि उसके पिता एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी हैं और वह अच्छे स्कूलों में पढ़ता था। उसने कहा कि फैसला पढ़ने के बाद उसकी उलझन दूर हो गई।”

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