Allahabad High Court: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश गौहत्या निवारण अधिनियम, 1955 के तहत पुलिस अधिकारियों द्वारा मामले दर्ज करने के ‘लापरवाह’ तरीके और राज्य में गौरक्षकों की निरंतर बढ़ती समस्या को गंभीरता से लिया है। साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार के शीर्ष अधिकारियों को यह स्पष्ट करने का निर्देश दिया कि स्पष्ट न्यायिक उदाहरणों के बावजूद ऐसे मामले क्यों जारी हैं।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस अब्दुल मोइन और जस्टिस अबधेश कुमार चौधरी की खंडपीठ ने प्रमुख सचिव (गृह) और पुलिस महानिदेशक (DGP) को व्यक्तिगत हलफनामा दाखिल कर यह स्पष्ट करने का निर्देश दिया कि अधिनियम, 1955 के प्रावधानों के अधीन न होने के बावजूद ऐसी FIRs क्यों दर्ज की जा रही हैं।
पीठ ने राहुल यादव द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। राहुल ने प्रतापगढ़ में गोहत्या अधिनियम की धारा 3, 5ए और 8 तथा पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 की धारा 11 के तहत अपने खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने की मांग की थी।
वाहन मालिक यादव ने दलील दी कि उनका ड्राइवर गाड़ी लेकर वापस नहीं लौटा, और बाद में उन्हें पता चला कि गाड़ी को नौ गोवंशों के साथ ज़ब्त कर लिया गया है, जिन्हें कथित तौर पर वध के लिए ले जाया जा रहा था। उन्होंने कहा कि कथित अपराध में उनकी कोई भूमिका नहीं है, लेकिन पुलिस उन्हें परेशान कर रही है।
FIR के मुताबिक, कोतवाली नगर थाने के उपनिरीक्षक संदीप कुमार तिवारी को सूचना मिली कि अमेठी से प्रतापगढ़ की ओर गोवंश वध के लिए ले जाया जा रहा है। पुलिस ने जब वाहन को रुकने का इशारा किया, तो उसमें सवार लोग भाग निकले। पिकअप के अंदर नौ गोवंश बंधे हुए और तड़पते हुए पाए गए।
कोर्ट को इन अपराधों को उचित ठहराने के लिए कोई ठोस आधार नहीं मिला। पीठ ने कहा कि FIR के अवलोकन से यह पता चलता है कि पशु जीवित पाए गए थे, और ऐसा कोई आरोप नहीं है कि उन्हें राज्य से बाहर ले जाया जा रहा था। पीठ ने यह भी कहा कि गोहत्या अधिनियम की धारा 5ए केवल अंतरराज्यीय परिवहन पर लागू होती है। इसी प्रकार, चूंकि किसी भी प्रकार के वध या अपंगता का आरोप नहीं लगाया गया था, इसलिए धारा 3 और 8 लागू नहीं होतीं।
कोर्ट ने यह भी कहा कि चूंकि याचिकाकर्ता न तो वाहन का चालक था और न ही वाहन में मौजूद था, इसलिए पशु क्रूरता अधिनियम के प्रावधान प्रथम दृष्टया लागू नहीं होते। अपने आदेश में खंडपीठ ने कोर्ट में आने वाली उन याचिकाओं की भारी संख्या पर गंभीर चिंता व्यक्त की, जिनमें व्यक्तियों को गोहत्या अधिनियम के तहत झूठे मामलों में फंसाया जा रहा है, जबकि इनमें किसी भी प्रकार का वध, चोट या अंतरराज्यीय परिवहन शामिल नहीं है।
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कोर्ट ने कहा कि इस मामले को इतना सरल नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह कोर्ट ऐसे मामलों से भरा पड़ा है, जो 1955 के अधिनियम के प्रावधानों के तहत अधिकारियों और शिकायतकर्ताओं द्वारा दर्ज की जा रही FIR पर आधारित हैं। खंडपीठ ने कहा कि 1962 में ही परसराम जी बनाम इम्तियाज मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह माना कि किसी पशु के वध की तैयारी मात्र 1955 के अधिनियम के तहत अपराध नहीं है। लंबे समय से स्थापित सिद्धांतों के बावजूद, खंडपीठ ने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि बिना सोचे-समझे FIR दर्ज की जा रही हैं। इस प्रकार, 1955 के अधिनियम के प्रावधानों का जिस ‘लापरवाही’ तरीके से प्रयोग किया जा रहा है, उसे देखते हुए खंडपीठ ने शीर्ष अधिकारियों के हलफनामे मांगे।
हाईकोर्ट के आदेश में उन अधिकारियों या शिकायतकर्ताओं के खिलाफ की जा रही कार्रवाई का खुलासा करने की मांग की गई, जो ऐसी लापरवाही से FIR दर्ज करते हैं और “पुलिस अधिकारियों और इस न्यायालय दोनों का कीमती समय बर्बाद करते हैं। खंडपीठ ने अधिकारियों से यह भी पूछा कि राज्य को यह सुनिश्चित करने के लिए एक सरकारी आदेश जारी करने का निर्देश क्यों न दिया जाए कि भविष्य में गोहत्या अधिनियम के तहत ऐसी तुच्छ FIR दर्ज न की जाएं।
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