पंख से कुछ नहीं होता है, हौसलों से उड़ान होती है, मंजिल उन्हीं को मिलती है, जिनके सपनों में जान होती है। ये पंक्तियां बिहार के भागलपुर में नौगछिया अनुमंडल स्थित डिमहा गांव की रहने वाली मोनिका शाह पर बिल्कुल खरी उतरती हैं। मोनिका शाह आज विश्व कप विजेता हैं, लेकिन एक समय ऐसा भी था जब उन्हें दोनों वक्त का खाना भी मुश्किल से नसीब होता था। परिवार की आर्थिक मदद करने के लिए उन्होंने सब्जी भी बेची। सिर्फ एक जोड़ी टी-शर्ट में पूरा साल काट दिया।
जी हां, देश के बहुत से खिलाड़ियों की तरह मोनिका शाह का भी विश्व कप विजेता बनने का सफर आसान नहीं रहा, लेकिन सीमित बुनियादी सुविधाओं वाले मिट्टी के घर में पली-बढ़ी मोनिका के दृढ़ निश्चय और पिता की कड़ी मेहनत ने उन्हें विश्व चैंपियन बना दिया। मोनिका आज जिस मुकाम पर हैं, वहां से पीछे मुड़कर देखती हैं तो उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं।
फाइनल में नेपाल के खिलाफ मोनिका ने 6 अंक हासिल किये
बता दें कि भारत की पुरुष और महिला टीमों ने 19 जनवरी 2025 को खो खो विश्व कप का पहला संस्करण अपने नाम किया। दोनों ही वर्गों में नेपाल की टीम उपविजेता रही। भारतीय महिलाओं ने फाइनल में नेपाल को 78-40 के बड़े अंतर से हराया। पुरुष टीम ने 54-36 के अंतर से नेपाल को हराकर विजेता ट्रॉफी अपने नाम की। भारतीय महिलाओं ने फाइनल तक के सफर के दौरान 4 बार 100 से ज्यादा पॉइंट बनाये। खो-खो विश्व कप के फाइनल की बात करें तो मोनिका शाह ने नेपाल के खिलाफ 6 अंक हासिल किये और भारत को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई।
जहां मैं रहती हूं, वहां खेलना बहुत मुश्किल: मोनिका शाह
मोनिका ने बताया, ‘जहां मैं रहती हूं वहां खेलना बहुत मुश्किल है। आप पढ़ाई कर सकते हैं, खेल नहीं सकते हैं, क्योंकि मेरा गांव जहां वहां पर पानी ज्यादा है। मेरे गांव में नेपाल का पानी आता है। मेरे पापा पहले किसानी करते हैं। पहले जब वह दिल्ली में रहते थे तो सब्जी बेचते थे। कोरोना के समय लॉकडाउन में सारी दुकानें बंद हो गईं। इस कारण हमें गांव लौटना पड़ा। हमारे पास खेत नहीं हैं, इसलिए पिताजी बटाई पर खेती करते हैं।’
खो खो खेलने का जुनून था, बस खेलना था: मोनिका शाह
घर की स्थिति के बारे में पूछने पर मोनिका बोलीं, ‘मैं क्या बताऊं। बहुत ही मतलब…।’ इसके बाद उन्होंने एक लंबी सांस ली और कहा, ‘मुझे ना… दो टाइम का खाना भी अच्छा मिल जाये तो उस चीज को भी बहुत धन्यवाद करती थी भगवान से।’ खो खो खेलना कैसे शुरू किया, के सवाल पर मोनिका ने कहा, ‘बस जुनून था, बस खेलना था। गांव वाले कहते थे कि खेलकर क्या फायदा। कहीं जाकर खेती करेगी तो पैसे मिलेंगे। खेलने में क्या रखा है। मैंने जब खेलना शुरू किया था तब मेरे पास एक जुनून था और कुछ नहीं था। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, लेकिन मम्मी ने पूरा सपोर्ट किया। उन्होंने कहा कि बस तू खेल।’
मेरी पीटी टीचर ने मुझे बहुत सपोर्ट किया: मोनिका शाह
मोनिका ने बताया, ‘उस समय मुझे दो वक्त का खाना मिल जाये तो वही मेरे लिये बहुत था। मेरी जो पीटी टीचर थीं, उन्होंने मुझे बहुत सपोर्ट किया। मम्मी और पापा दोनों ही सब्जी की दुकान पर रहते थे। पूरे दिन काम करते थे। कई-कई बार मैं भी चली जाती थी। सोचती थी चलो थोड़े बहुत पैसे मिल जाएंगे, तो उससे मैं अपने शॉर्ट्स और टी-शर्ट वगैरह का इंतजाम कर लूंगी।’
मोनिका ने आज भी संभाल कर रखी है 2010 की टी-शर्ट
मोनिका ने बताया, ‘साल 2010 में मैंने अपना पहला नेशनल खेला था। तब मैं 6 क्लास में थी। नेशनल खेलने के लिए मुझे एक सफेत रंग की टी-शर्ट मिली थी। तब मैं करीब 4 फीट की रही होंगी और वह टी-शर्ट मेरे घुटने तक आती थी। वह टी-शर्ट मैं रोज पहनती थी। मतलब एक साल तक मैंने वह टी-शर्ट रोजना पहनी, क्योंकि दूसरी थी नहीं। वह टी-शर्ट मैंने आज तक संभाल कर रखी है।’
संघर्ष कर रहे खिलाड़ियों के लिए मोनिका का यह है संदेश
अन्य लड़कियां जिन्हें भी संघर्ष करना पड़ता है उनको क्या संदेश देना चाहेंगी के सवाल पर वह बोलीं, ‘सबको मतलब अपनी मेहनत करती रहने चाहिए कभी गिव अप नहीं करना चाहिए। जैसे मैं हूं। मतलब मुझे खो खो खेलते हुए 16-17 साल हो गये, मैंने गिव अप नहीं किया। अगर मैं पहले बोलती 10 साल हो गये, अब छोड़ देना है तो…। मेहनत कब रंग लाये तो वह पता नहीं है तो हमेशा मेहनत करते रहना चाहिए। कभी भी गिव अप नहीं करना चाहिए।’
अब तक के सफर में सबसे ज्यादा किसने सपोर्ट किया, के सवाल पर मोनिका बोलीं, ‘हां मेरी गुरु मां ने मुझे बहुत सपोर्ट किया। हमारे जनरल सेक्रेटरी उन्होंने भी बहुत सपोर्ट किया। एक समय था जब मैंने भी कहा कि मैं छोड़ दे रही हूं, लेकिन उन्होंने कहा नहीं बेटा तुम अच्छे प्लेयर हो तुम खेलो तुम मत छोड़ो। हमारे जनरल सेक्रेटरी एमएस त्यागी सर के आने पर खो खो का बहुत बदलाव आये हैं। मितल (सुधांशु) सर वह भी खो खो को बहुत आगे तक लेकर गये हैं।’