फिर भी हमें अंडर-17 महिला फुटबाल विश्व कप में शिरकत करने का मौका मिला। यह सौभाग्य हमें मेजबान होने के नाते मिला। भुवनेश्वर, पुणे और गोवा में इस विश्व कप का आयोजन किया गया। टीम का प्रदर्शन बढ़िया रहे, इसलिए जिम्मेदारी स्वीडन के कोच थामस डेनरबी को सौंपी गई थी। माहौल ऐसा बना दिया गया जैसे हमारी टीम में बड़ी टीमों को टक्कर देने की क्षमता है।
पर अफसोसजनक पहलू यह रहा कि तीनों ग्रुप मैचों में भारतीय टीम हार गई। हारी ही नहीं, अंतर भी बड़ा रहा। खिलाड़ियों के साथ-साथ सीख फेडरेशन को भी मिली होगी कि भाग लेना या केवल आयोजन का सपना पूरा करना ही काफी नहीं। ऐसे आयोजनों का तभी फायदा है जब सोच दूरगामी हो।
दरअसल हमारी क्षमता क्षेत्रीय स्तर तक ही सीमित है। दक्षिण एशिया में भी हमारी बादशाहत को चुनौती मिलने लगी है। एशियाई स्तर पर हमारी गिनती टाप टीमों में नहीं है, इसलिए क्वालीफाइ करने की कल्पना नहीं की जा सकती। विश्व स्तरीय आयोजनों में शिरकत करने का एकमात्र तरीका है मेजबानी। अंडर-17 महिला फुटबाल विश्व कप ने हमें यह सुअवसर दिया। इसमें हम कोई चमत्कार की अपेक्षा नहीं कर सकते। केवल बेहतर टीमों के कौशल से कुछ सीख सकते हैं।
यही सीख हमें इस आयोजन से मिली। टीम का हश्र क्या होगा, सभी को पता था। अमेरिका, ब्राजील और मोरक्को की टीमें जिस ग्रुप में हों उससे अगले चरण में पहुंचने की उम्मीद की ही नहीं जा सकती। टीम को न कोई अंक मिला और न ही गोल बनाने में सफलता। हम मेजबानी को तो उत्सुक रहते हैं पर मुकाबले की तैयारी के लिए उतने यत्नशील नहीं। कुछ महीनों की ट्रेनिंग से हम विश्व की मजबूत टीमों को फतह करने की कैसे सोच सकते हैं।
तकनीक हो या कौशल, शैली हो या शारीरिक फिटनेस, रक्षण हो या निशानेबाजी कला, हम सभी में काफी पिछड़े हुए हैं। सोचते तो हम यह हैं कि विश्व स्तरीय आयोजन करने से देश में क्रांति आ जाएगी, पर ऐसा होता नहीं है। कुछ साल पहले हमने लड़कों की अंडर-17 फुटबाल विश्व कप की मेजबानी की थी। उस टीम से कई प्रतिभाशाली खिलाड़ी उभरे थे। अलग-अलग क्लब टीमों में चले जाने से उनका अपना तो फायदा हुआ पर टीम की रैंकिंग सौ से नीचे नहीं आ पाई है। जीत के लिए जिस सुनील छेत्री पर हम डेढ़ दशक पहले निर्भर थे, आज भी उसी पर हैं।
अंडर-17 महिला विश्व कप में टीमें भिन्न महाद्बीपों से थीं तो उनका कौशल और शैलियां भी अलग थीं। भारतीय टीम के लिए अफसोस की बात यह रही कि उसे बड़े मंच पर खेलने का अनुभव नहीं था। कुछ माह के दौरान में चंद विदेशी टीमों के साथ खेलने में बड़ा बदलाव नहीं आ जाता। राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिताएं बहुत कम हैं। हां, सुब्रतो फुटबाल टूर्नामेंट सोसायटी अंडर-14 और अंडर-17 वर्ग में लड़कियों को खेलने का अवसर मुहैया करवा रही है। अब अखिल भारतीय फुटबाल फेडरेशन भी महिला फुटबाल के प्रति सचेत हुआ है। अंडर-17 स्तर पर राष्ट्रीय प्रतियोगिता की शुरुआत से उम्मीद है तस्वीर बदलेगी।
जब प्रतियोगिता विश्व स्तरीय हो और टीम अनुभवहीन हो तो पहला मैच खिलाड़ियों को नर्वस करता है। यही स्थिति भारतीय टीम की भी रही और उस पर अमेरिकी टीम ने आठ गोल चढ़ा दिए। घरेलू दर्शकों का समर्थन केवल उत्साह बढ़ाने तक ही सीमित रहा। जब कभी भारतीय टीम बढ़ाव कर विपक्षी गोल मुहाने तक पहुंचती तो दर्शक उत्साह जरूर बढ़ाते। लेकिन कौशलमय टीमों के आगे टिक पाना मुश्किल है।
मोरक्को ने तीन गोल किए। इसमें रक्षात्मक खेल से भारतीय टीम काफी समय तक उन्हें गोल करने से रोकने में सफल रही। अंतिम मैच में ब्राजील ने पांच गोल कर जख्मों को और गहरा कर दिया। सबसे बड़ी समस्या रही पासिंग। तालमेल तब बन पाता है अगर पासिंग सटीक हो। यहां तो हर तीसरा पास गलत हो जाता था। गेंद छिनने से खेल की लय टूट जाती थी। निशानेबाजी के दम पर ही जीत मिलती है। पर इस कला में भी टीम फुस्स रही।
महिला फुटबाल को बढ़ावा देना अखिल भारतीय फुटबाल फेडरेशन की प्राथमिकताओं में से एक है। महिलाओं को हर स्तर पर प्रतिस्पर्धा चाहिए, विदेशी टीमों से खेलने का मौका दिलाना चाहिए। स्कूली स्तर पर ही अगर सुविधाएं मुहैया करवा दी जाएं तो स्थिति कुछ बेहतर हो सकती है।