मनोज चतुर्वेदी

पिछले दिनों भुवनेश्वर में हुई जूनियर विश्व कप हाकी चैंपियनशिप में भारतीय टीम उम्मीदों के अनुरूप प्रदर्शन करने में कामयाब नहीं हो पाई। जबकि भारतीय सीनियर टीम के तोक्यो ओलंपिक में 41 साल बाद पदक के रूप में कांस्य जीतने से लगने लगा था कि देश में हाकी के अच्छे दिन आ गए हैं। पर जूनियर टीम के पोडियम पर नहीं चढ़ पाने से यह लगता है कि हमारी मंजिल अभी भी दूर है।

भारत पांच साल पहले लखनऊ में हुए जूनियर विश्व कप की चैंपियन था, इसलिए यह उम्मीद की जा रही थी कि वह भले ही चैंपियन नहीं बन पाए पर कोई न कोई पदक जीतने में जरूर कामयाब हो जाएगी। लेकिन भारतीय मंसूबों पर एक ऐसी टीम ने पानी फेरा, जिसकी अंतरराष्ट्रीय हाकी जगत में पहचान तक नहीं है और यह टीम है फ्रांस। फ्रांस ने जब पहले ही ग्रुप मैच में भारत को हराया तो लगा कि उसने अप्रत्याशित परिणाम तो निकाला है। पर भारत के पहले मैच में रंगत में नहीं खेल पाने का यह नतीजा माना गया। लेकिन जब उन्होंने कांस्य पदक के मुकाबले में भी भारत को अपने कप्तान टिमोथी क्लेमेंट की हैट्रिक के सहयोग से 3-1 से हराया तो साफ हो गया कि हम इन मुकाबलों के लिए तैयार ही नहीं थे। वहीं जर्मनी को हराकर अर्जेंटीना चैंपियन बनने में कामयाब हो गया।

भारतीय टीम सही मायनों में इस पूरी चैंपियनशिप में सिर्फ एक प्रतिष्ठापूर्ण मुकाबला बेल्जियम के खिलाफ क्वार्टर फाइनल में ही जीत सकी। अन्यथा सेमीफाइनल में जर्मनी के खिलाफ हमारी टीम हमेशा दवाब में खेलती नजर आई और जर्मनी को 4-2 से विजय पाने में कोई दिक्कत नजर नहीं आई। इसी तरह कांस्य पदक मुकाबले में फ्रांस ने भी दबदबे वाला प्रदर्शन करके हमारी तैयारियों की कलई खोलकर रख दी। भारत ने इस चैंपियनशिप में बेल्जियम के अलावा दो मुकाबले ग्रुप में कनाडा और पोलैंड के खिलाफ जीते।

इन जीतों के कोई खास मायने नहीं हैं। इस प्रदर्शन से यह तो साफ है कि तोक्यो ओलंपिक में हासिल सफलता को आगे बढ़ाने के लिए जिस तरह की युवा प्रतिभाओं की जरूरत है, वैसे अभी हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं। इसके बावजूद अरिजीत सिंह हुंडल, संजय, शारदानंद तिवारी और चिरमाको जैसे खिलाड़ी सामने आए हैं, जिनका आसानी से ग्रेजुएशल कराया जा सकता है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी टीम को कोरोना महामारी की वजह से तैयारियों को लेकर तगड़ा झटका लगा। भारतीय टीम इसकी तैयारी के लिए विदेश जाकर किसी भी प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकी। वैसे तो देखा जाए कोरोना की वजह से ज्यादातर टीमों की तैयारियां प्रभावित हुई हैं। पर सच यह है कि 2016 में लखनऊ में हुए जूनियर विश्व कप में स्वर्ण पदक जीतने के बाद से हमारे पास इस विश्व कप की तैयारियों के लिए पर्याप्त समय था। कोरोना की वजह से तो डेढ़ साल ही प्रभावित हुए हैं।

सही मायनों में हमारा रक्षण बहुत मजबूती के साथ डटा नजर नहीं आया, जिसकी वजह से फ्रांस और जर्मनी ने हमलावर रुख अपनाकर खेल पर पूरा दबदबा बना लिया। इसके अलावा हमारी टीम में कुछ अच्छे ड्रेग फ्लिकर तो थे, पर उनके प्रयासों में वैरायटी नहीं होने पर जर्मनी और फ्रांस के गोलकीपरों को उनके प्रयासों को विफल करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। सच यह है कि हमारे युवाओं को मानसिक तौर पर और मजबूत बनने की जरूरत है।

भारत के 2016 में चैंपियन बनने के समय हमारे यहां प्रतिभाओं को तराशने का एक ढांचा बना हुआ था। उस समय देश में हाकी इंडिया लीग का आयोजन हो रहा था। इससे जूनियर खिलाड़ियों को दुनिया के दिग्गज खिलाड़ियों के साथ खेलकर बहुत कुछ सीखने का मौका मिल रहा था। असल में एक तो इन खिलाड़ियों को अपनी टीमों के अंतरराष्ट्रीय दिग्गजों के साथ अभ्यास करने से बहुत कुछ सीखने को मिल रहा था। इसके अलावा दिग्गज खिलाड़ियों के खिलाफ खेलने से भरोसा भी बढ़ रहा था।

भारतीय जूनियर टीम को यदि तोक्यो ओलंपिक के तत्काल बाद सीनियर टीम के कोच ग्राहम रीड के हवाले कर दिया जाता तो कहीं बेहतर प्रदर्शन हो सकता था। हम सभी जानते हैं कि किसी भी देश के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चमक बिखेरने के लिए जरूरी है कि उसकी सप्लाई लाइन अच्छी हो। पर इस समय हम इस दिशा में थोड़े पिछड़े नजर आ रहे हैं। इसके लिए हाकी इंडिया लीग जैसी कोई प्रतियोगिता फिर से शुरू करने और युवाओं को भरपूर अंतरराष्ट्रीय अनुभव दिलाने की जरूरत है। देश के हाकी संचालकों को सप्लाई लाइन बनाने के लिए क्रिकेट से सीख लेने की जरूरत है। वह यदि ऐसा कर सकी तो भारत की गिनती दुनिया के दिग्गजों में फिर से होने लगेगी।