इंडियन प्रीमियर लीग के 2013 में आयोजित टूर्नामेंट के दौरान भारतीय क्रिकेट जगत में ‘स्पॉट फिक्सिंग’ का मामला सामने आया। इससे पहले मैच फिक्सिंग के मामले से देश रू-ब-रू हो चुका था। सट्टेबाजी के इस नए तरीके ने भ्रष्टाचार रोधी एजंसियों को भी सकते में डाल दिया। हालांकि दुनिया में ‘स्पॉट फिक्सिंग’ का यह पहला मामला नहीं था। इससे पहले 2010 में इंग्लैंड दौरे पर गई पाकिस्तानी टीम के तीन सदस्यों- कप्तान सलमान बट्ट, तेज गेंदबाज मोहम्मद आमिर और मोहम्मद आसिफ पर इसके आरोप लग चुके थे। लेकिन भारतीय क्रिकेट के लिए यह नया मामला था।

दरअसल, बदलते जमाने के साथ सट्टेबाजी ने भी अपना रूप बदल लिया है। अब सटोरिए ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’ की नीति पर चलने में विश्वास रखने लगे हैं। यहीं से फिक्सिंग के नए प्रारूप की शुरुआत होती है। ‘स्पॉट फिक्सिंग’ को ‘आधुनिक फिक्सिंग’ भी कहा जाता है। इसमें सट्टेबाज मैच के परिणाम को पूरी तरह प्रभावित नहीं करते लेकिन उसके किसी एक हिस्से को प्रभावित कर अपनी कमाई करते हैं।

इसे एक उदाहरण के तौर पर समझा जा सकता है। किसी टी-20 मैच में एक टीम 19 ओवर में 195 रन बना लेती है। अब फटाफट क्रिकेट में अंतिम ओवर में 200 रन के आंकड़े को पार करना कोई बड़ी बात नहीं है। प्रशंसक यह मान लेते हैं कि अगले ओवर में लक्ष्य 200 के पार का होगा। यहीं से शुरू होता है सट्टेबाजों का खेल। वे मैच के अंतिम ओवर को फिक्स करते हैं और उस समय खेल रहे खिलाड़ी को 200 रन के आंकड़े को पार करने से मना करते हैं।

इसके अलावा मैच के बीच में भी ‘स्पॉट फिक्सिंग’ कर सटोरिए खूब पैसे कमाते हैं। मसलन, किसी गेंदबाज को एक ओवर में तय समय पर नो बॉल कराना या वाइड गेंद डलवाना, बल्लेबाज को ऐसी गेंद डालना जिस पर वो आसानी से छक्के या चौके लगा सके। इस तरह से मैच के बीच में भी किसी एक समय को फिक्स किया जाता है। आइपीएल में कुछ ऐेसा ही किया गया था।
मैच फिक्सिंग सट्टेबाजी के आधुनिक प्रारूप से बिल्कुल अलग है।

इसमें खिलाड़ी सीधे-सीधे मैच के निर्णय को प्रभावित करते हैं। इसमें खिलाड़ी पूरे मैच में अपने सामर्थ्य से कम प्रदर्शन करता है ताकि इसका फायदा विरोधी टीम को मिल सके। इसमें कई बार दोनों टीम के खिलाड़ी एक साथ मिलकर मैच फिक्स करते हैं ताकि किसी को पता भी न चले और मैच प्रभावित भी हो जाए।