मनोज जोशी
जो खुद को राष्ट्रीय खेल संगठन न मानता हो, जो डोपिंग के मामलों में वाडा और नाडा की न सुनता हो, जो इस बारे में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आइसीसी) के अनुरोध की परवाह न करता हो, जो राष्ट्रीय टीम को देश की टीम न कहकर अपनी टीम कहता हो, जिसने खेल मंत्रालय और भारतीय ओलंपिक संघ (आइओए) के बार-बार कहने के बावजूद एशियाई खेलों में राष्ट्रीय टीम को भाग नहीं लेने दिया हो और जो अपने उल्टे सीधे तर्क देकर सबका मुंह बंद करने की कोशिश करता आया हो, ऐसे संगठन या संस्था को आप क्या कहेंगे। हम बात कर रहे हैं भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) की, जिसके सामने एक बार फिर भारतीय ओलंपिक संघ ने 2022 के एशियाई खेलों में क्रिकेट टीम भेजने की पेशकश की है और बीसीसीआइ ने हमेशा की तरह अभी तक कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया है।
बीसीसीआइ के क्रियाकलापों को देखकर कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह अपने खिलाड़ियों के हाथों बिका हुआ है। बोर्ड और खिलाड़ी नहीं चाहते कि कोई उन्हें जब चाहे डोप टेस्ट के लिए बुला ले। उनका रेंडम टेस्ट हो। अगले दो महीनों के अपने ठीहा-ठिकानों की अग्रिम जानकारी देनी पड़े। दरअसल, खिलाड़ी अपनी निजता का हवाला देते हुए इन सब बातों को सिरे से खारिज करते आए हैं। सवाल है कि जब दूसरे खेल के खिलाड़ियों को वेयर-अबाउट्स क्लॉज से कोई ऐतराज नहीं है तो ऐसा क्रिकेट खिलाड़ियों के साथ क्यों है। अगर क्रिकेट खिलाड़ी इस बारे में मनमानी करते हैं तो बीसीसीआइ का कर्तव्य है कि वह उन्हें समझाए कि देश के सामने निजता के कोई मायने नहीं है लेकिन यहां आलम यह है कि बीसीसीआइ एक मौके पर हलफनामे में यहां तक लिखकर दे चुका है कि यह देश की क्रिकेट टीम नहीं है बल्कि यह बीसीसीआइ की टीम है।
इसी वजह से भारतीय क्रिकेट टीम न तो 2010 के ग्वागंझू (चीन) एशियाई खेलों में भाग ले पाई और न ही वह इंचियोन (दक्षिण कोरिया) में ही भाग ले पाई। दूसरे मौके पर भाग न लेने का कारण भारत का ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सीरीज़ को बताया गया। देश की ओर से भाग लेने की खातिर क्या भारत ऑस्ट्रेलिया से सीरीज के कार्यक्रम को आगे पीछे करने के लिए आईसीसी और क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया से दरख्वास्त नहीं कर सकता था। इंतेहा तो तब हो गई जब भारतीय महिला क्रिकेट टीम की उस समय कोई सीरीज न होने के बावजूद उसे एशियाड में भाग नहीं लेने दिया गया जबकि वह स्वर्ण पदक की सबसे मजबूत दावेदार थी। इस सबका परिणाम यह निकला कि भारत से कहीं हल्की पाकिस्तान की महिला टीम ने इन दोनों मौकों पर स्वर्ण पदक अपने नाम कर लिए।
दरअसल आइसीसी वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजंसी से सम्बद्ध है। उस लिहाज से उससे संबंधित इकाइयां नेशनल एंटी डोपिंग एजंसी (नाडा) से सम्बद्ध होनी चाहिए लेकिन बीसीसीआइ ने तमाम कोशिशों के बावजूद नाडा से जुड़ने से इंकार कर दिया है। उसका कहना है कि जितने टेस्ट नाडा एक साल में करता है, उससे ज़्यादा टेस्ट उसकी अपनी संस्था आइडीटीएम करती है। उसी ने पिछले साल यूसुफ पठान पर डोपिंग में दोषी पाए जाने पर पांच महीने का प्रतिबंध लगाया था। इसके अलावा वह दिल्ली के तेज गेंदबाज प्रदीप सांगवान से लेकर कई खिलाड़ियों पर प्रतिबंध लगा चुकी है।
सवाल है कि अगर यही काम श्रीलंका, बांग्लादेश अथवा किसी अन्य बोर्ड ने किया होता तो क्या आइसीसी इसी तरह बैकफुट पर होता। क्या वह इस बारे में उन देशों के क्रिकेट बोर्डों से भी उसी तरह से आग्रह करता जो वह बीसीसीआइ से कर रहा है। ज़ाहिर है कि बीसीसीआइ के दुनिया में सबसे धनी बोर्ड होने का ही यह असर है कि वाडा की उसे मिली चेतावनी के बावजूद वह इस बारे में बोर्ड के खिलाफ कोई कारर्वाई नहीं कर रहा। यहां तक कि वाडा ने आइसीसी को 2028 के ओलंपिक खेलों से क्रिकेट को हटाने तक की धमकी दे डाली है। इसके बावजूद आइसीसी ने इस बारे में बीसीसीआइ को इतना ही लिखा है कि वह नाडा विवाद का हल करे जबकि वाडा ने तो यहां तक कह दिया है कि यदि मामला नहीं सुलझा तो इसे उसकी समीक्षा समिति के पास भेजा जाएगा। उसके बाद बोर्ड पर कारर्वाई की जाएगी।
दूसरे, बीसीसीआइ भी खेल मंत्रालय या आइओए के बैनर तले खेलने से बचता है। वह अपने ऊपर कोई सरकारी नियंत्रण नहीं चाहता। वह जानता है कि उसके अधीन होने का मतलब उस पर सूचना के अधिकार को अमल में लाने का दबाव बढ़ेगा। सवाल है कि अगर आप सरकार से आर्थिक मदद नहीं लेते हैं तो स्टेडियमों के लिए सस्ते दामों पर जमीन खरीदने के लिए आवेदन क्यों करते हैं। मामला खुद को सर्वोच्च स्तर पर रखने का है। फिर इसके लिए देश को दो निश्चित पदक मिले या न मिलें, इससे बीसीसीआइ को क्या फर्क पड़ता है क्योंकि यह उसकी टीम है, देश की टीम नहीं है। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित प्रशासकों की समिति से उम्मीद की जाती है कि जो 2010 और 2014 में हुआ, वैसा 2022 के एशियाड में न हो।