Soli Sorabjee Biography: सोली सोराबजी…एक ऐसा वकील जिसने 68 साल के अपने करियर में करीब 1200 मुकदमे लड़े। जहां जरूरत पड़ी बिना फीस अदालत में खड़े हो गए, चाहे 1984 के सिख दंगों का मामला हो या भोपाल गैस ट्रेजेडी का। पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी को बीजेपी की विचारधारा नापसंद थी और कभी खुलेआम बीजेपी की खिलाफत की थी। इसीलिये साल 2002 में जब वाजपेयी सरकार ने सोराबजी को देश के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित करने का ऐलान किया, तो बीजेपी का ही एक खेमा इस फैसले से दंग रह गया था।
दिग्गज एडवोकेट अभिनव चंद्रचूड़ ने सोली सोराबजी की जीवनी ‘Soli Sorabjee; Life and Times’ में उनकी पेशेवर जिंदगी से जुड़े तमाम पहलुओं पर विस्तार से बात की है। बकौल अभिनव चंद्रचूड़, ‘सोली सोराबजी एक तरीके से बीजेपी की विचारधारा के खिलाफ थे। साल 1995 में तो उन्होंने खुलेआम महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को वोट न देने की अपील की थी और दस्तखत भी किया था। सोली सोराबजी इस बात से नाराज थे कि उसी साल महाराष्ट्र के एक नेता ने कथित तौर पर हेट स्पीच दी थी, जिसके चलते हिंसा भड़की थी और सुप्रीम कोर्ट में यह मामला खारिज हो गया था।
वाजपेयी की सरकार गिरी तो दी थी नसीहत
साल 1996 में जब महज 13 दिनों में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर गई तब सोराबजी का एक लेख बहुत चर्चित हुआ था। इस लेख में एक तरीके से उन्होंने बीजेपी पर तंज कसा था। सोली सोराबजी ने लिखा था, ‘बीजेपी को मस्जिदों को गिराने वाली सनक छोड़नी होगी और ‘हिंदुत्व’ की जगह ‘भारतीयता’ को अपनाना होगा’। वर्तमान सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ के बेटे अभिनव चंद्रचूड़ कहते हैं कि ‘इसके बावजूद सोली सोराबजी वाजपेयी के प्रशंसक थे…’।
जब गायब हो गया ‘पद्म विभूषण’
सोली सोराबजी को साल 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने ‘पद्म विभूषण’ से नवाजा। उन दिनों वे सॉलिसिटर जनरल (SG) हुआ करते थे। सोराबजी की जीवनी के लेखक अभिनव चंद्रचूड़ हिंदुस्तान टाइम्स को दिये एक इंटरव्यू में दिलचस्प किस्सा बताते हैं। वह कहते हैं, ‘सोली सोराबजी को राष्ट्रपति भवन में ‘पद्म विभूषण’ से नवाजा गया, लेकिन उस दिन एक अजीब वाकया हुआ। सोराबजी का ‘पद्म विभूषण’ राष्ट्रपति भवन में ही कहीं खो गया। सोराबजी को लग रहा था कि उनका अवार्ड किसी ने चुरा लिया…काफी ढूंढा गया, लेकिन नहीं मिला। बाद में राष्ट्रपति भवन की तरफ से उन्हें पदक का रिप्लेसमेंट भेजा गया था’।
सोराबजी ने लिखी थी जेपी की वसीयत
अभिनव चंद्रचूड़ बताते हैं कि इमरजेंसी से पहले सोली सोराबजी ज्यादातर कस्टम और एक्साइज से जुड़े केसेज लड़ा करते थे, लेकिन इमरजेंसी ने उनकी सोच बदल दी। इसी के बाद वे हैबियस कॉर्पस से लेकर तमाम मसलों में अदालत में खड़े होने लगे। इमरजेंसी के दिनों में ही उन्होंने ‘फ्री स्पीच’ पर एक किताब लिखने का निर्णय लिया लेकिन कोई छापने को राजी ही नहीं था। तमाम पब्लिशर ने छापने से इनकार कर दिया। बाद में साल 1976 में एनएम त्रिपाठी ने उनकी किताब छापी थी।
इमरजेंसी के दिनों में ही सोली सोराबजी, मीनू मसानी के संपर्क में आए थे। मसानी ही वह शख्स थे जिन्होंने सोली सोराबजी को जयप्रकाश नारायण की वसीयत लिखने को राजी किया था। उन दिनों जयप्रकाश नारायण का मुंबई के जसलोक हॉस्पिटल में इलाज चल रहा था और उनकी इच्छा किसी जानकार से अपनी वसीयत लिखवाने की थी।