इतनी आज़ादी भी ग़नीमत है
साँस लेता हूँ बात करता हूँ
शैख़ साहब ख़ुदा से डरते हो
मैं तो अंग्रेज़ों ही से डरता हूँ
ये बड़ा ऐब मुझ में है ‘अकबर’
दिल में जो आए कह गुज़रता हूँ

ये गजल हिन्दुस्तानी ज़बान के अज़ीम और अज़ीज़ शायर सय्यद अकबर हुसैन रिजवी की है, जिन्हें दुनिया ‘अकबर इलाहाबादी’ के नाम से पहचानती है। अकबर इलाहाबादी ब्रिटिश सरकार के मुलाज़िम होने के बावजूद एक प्रखर व्यंग्यकार और राष्ट्रवादी थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि हिंदुओं और मुसलमानों की नियति अविभाज्य है।

उनकी कलम सांप्रदायिकता के खिलाफ और हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्ष में जमकर चली। सांप्रदायिक बहसों पर उन्होंने तंजिया लहजे में लिखा, “मज़हबी बहस मैंने की ही नहीं। फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं।”

भारत में खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन लगभग एक साथ चल रहा था। दोनों ही आंदोलनों में मुद्दें भिन्न होने के बावजूद मुस्लिम लीग और कांग्रेस ने अंग्रेजों के खिलाफ एकजुटता दिखाई। महात्मा गांधी को दोनों आंदोलनों का समर्थन था। लेकिन चौरी-चौरा की घटना के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इसके बाद भारत में खिलाफत आंदोलन की गति धीमी भी होने लगी।

आंदोलन के कमजोर पड़ने से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन गहरा हो गया। मुसलमानों का एक वर्ग खुद को सिर्फ मुस्लिम लीग से जोड़कर देखने लगा।  के साथ जोड़ना चाहते थे। लेकिन अकबर इलाहाबादी तो दोनों के बीच भाईचारे के पक्ष में थे। उन्होंने अपनी भावना को व्यक्त करते हुए कई छंद लिखे। जैसे:

हिन्दू व मुस्लिम एक हैं दोनों यानि एशियाई हैं
हम वतन, हम ज़ुबान, व हम किस्मत
क्यों न कह दूं कि भाई भाई हैं?  

उन्होंने दोनों समुदायों के बीच सौहार्द कायम करने पर जोर देते हुए ऐसे कई दोहे और कविताएं लिखीं। हिंदू-मुस्लिम एकता के इन बार-बार प्रयासों से अफवाह फैल गई कि अकबर इलाहाबादी को शराब के लिए हिंदुओं द्वारा रिश्वत दी जा रही है, वह आदतन शराबी हो चुके हैं। इस्लाम में तो शराब हराम है, ऐसे में इस अफवाह के आधार पर इलाहाबादी के बारे में काफी भला-बुरा कहा जाने लगा।

इसके बाद अकबर इलाहाबादी ने आरोपों के जवाब में जो गजल लिखा, वह इस कदर प्रसिद्ध हुआ कि आज भी शराब पीने वाले उसे अपनी ढाल बनाते हैं। उन्होंने लिखा:

हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है

सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहें काफ़िर अल्लाह की मर्ज़ी है

ता’लीम का शोर ऐसा तहज़ीब का ग़ुल इतना
बरकत जो नहीं होती निय्यत की ख़राबी है

सच कहते हैं शैख़ ‘अकबर’ है ताअत-ए-हक़ लाज़िम
हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है

सिर्फ राष्ट्रवादी और सुधारवादी ही नहीं, जज भी थे इलाहाबादी

अकबर इलाहाबादी का जन्म 16 नवंबर, 1846 को बारा (इलाहाबाद) के सैय्यद परिवार में हुआ था। परिवार का दावा था कि वे मूल रूप से तेहरान (ईरान) के रहने वाले हैं। अकबर इलाहाबादी के पिता मौलवी तफज्जुल हुसैन अंग्रेजी हुकूमत में नायब तहसीलदार थे। कहा जाता है कि वह एक उच्च शिक्षित व्यक्ति थे। अकबर की मां बिहार के गया जिला के जगदीशपुर गांव के एक जमींदार परिवार से थीं।

अकबर ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही अपने पिता से प्राप्त की। 1855 में उनकी मां बारा से इलाहाबाद आकर मोहल्ला चौक में बस गयीं। अकबर को 1856 में अंग्रेजी शिक्षा के लिए जमुना मिशन स्कूल में भर्ती कराया गया था, लेकिन 1859 में उन्हें स्कूली शिक्षा छोड़ना पड़ा।

हालांकि, उन्होंने अंग्रेजी का अध्ययन जारी रखा। सोशल साइंटिस्ट पत्रिका में प्रकाशित इकबाल हुसैन के एक लेख के मुताबिक, स्कूल छोड़ने के बाद अकबर रेलवे इंजीनियरिंग विभाग में क्लर्क के रूप में काम करने लगे। सेवा में रहते हुए उन्होंने कानून की परीक्षा पास की और बाद में एक तहसीलदार और मुंसिफ और अंततः एक सत्र न्यायाधीश के रूप में काम किया। दिलचस्प यह भी है कि कानूनी पेशे में लंबा समय गुजारने वाले अकबर इलाहाबादी वकीलों को लेकर अच्छी राय नहीं रखते हैं। उन्होंने लिखा है:

पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा,
लो आज हम भी साहिब-ए-औलाद हो गए

वर्ष 1903 में उत्कृष्ट राष्ट्रवादी उर्दू कवि सेवानिवृत्त हुए और इलाहाबाद में रहे जहां सितंबर 1921 में उनकी मृत्यु हो गई।