हाल के वर्षों में पश्चिमी देशों के लोकतंत्र से लेकर एशिया के कुछ हिस्सों तक, दुनिया भर में आव्रजन विरोधी बयानबाजी और आंदोलनों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। ये आंदोलन अब हाशिये पर नहीं बल्कि मुख्यधारा में हैं, जिन्हें राजनीतिक नेताओं, राष्ट्रवादी दलों और यहां तक कि एलन मस्क जैसे वैश्विक प्रभावशाली लोगों ने भी बढ़ावा दिया है। अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नजदीकी दक्षिणपंथी कर्क की हत्या ने आग में घी का काम किया, जिसका परिणाम इंग्लैंड में दिखाई दिया। वहां एक से डेढ़ लाख लोग आव्रजन नीतियों और अप्रवासियों के खिलाफ लंदन में सड़क पर उतर आए। ऐसे में प्रभावशाली कारोबारी एलन मस्क के बयान जिसमें उन्होंने शरण नीतियों को देशद्रोही बताया हो या आस्ट्रेलिया से लेकर जापान तक रैलियों का समर्थन किया हो, सुर्खियां बटोरने और विरोध प्रदर्शनों को हवा देने के लिए काफी रहे हैं। कथित राष्ट्रवादी दल अपने यहां के नागरिकों को खास कर युवा पीढ़ी को पहचान के संकट को लेकर आगाह कर रहे हैं। वैश्विकवाद बीसवीं सदी का मूल्य बना था। इक्कीसवीं सदी में इसी वैश्विकवाद को एक खतरे की तरह पेश किया जा रहा है। वैश्वीकरण के मूल्यों को खारिज कर अपना देस पराए लोग का नारा लोकप्रिय हो रहा है। दुनिया के कई हिस्सों में देसी अभिमान के नवजागरण काल पर सरोकार।
हाल के वर्षों में अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया और यूरोप में आतंरिक संघर्ष शब्द का इस्तेमाल ऐतिहासिक संदर्भ के रूप में नहीं, बल्कि अपने ही समाजों के लिए एक गंभीर चेतावनी के रूप में किया जाने लगा है। जो कभी एक सीमांत चर्चा थी, वह ध्रुवीकरण, प्रवासी-विरोधी भावना और जड़ जमाए हुए उदारवादी अभिजात वर्ग और विद्रोही लोकलुभावन आंदोलनों के बीच मूल्यों के तीखे टकराव से प्रेरित होकर मुख्यधारा में आ गई है।
इस बहस की गंभीरता हाल की घटनाओं से साफ जाहिर होती है। पिछले हफ्ते यूटा में एक विश्वविद्यालय की रैली में अमेरिकी रूढ़िवादी कार्यकर्ता चार्ली किर्क की हत्या ने अमेरिकी राजनीति में तहलका मचा दिया। ट्रंप प्रशासन और उसके दक्षिणपंथी समर्थकों ने तुरंत इस हत्या को कट्टरपंथी अमेरिकी वामपंथियों द्वारा युद्ध की कार्रवाई करार दिया।
लंदन में उग्र राष्ट्रवादी टामी राबिंसन द्वारा आयोजित एक विशाल कथित देशभक्त रैली में एक लाख से डेढ़ लाख लोगों ने बढ़ते प्रवासी-विरोधी गुस्से और नफरत फैलाने वाली भाषा पर सरकारी नीतियों के प्रति आक्रोश को उजागर किया। चार्ली किर्क का नाम इन भाषणों में गूंजता रहा। अमेरिका में एमएजीए आंदोलन और यूनाइटेड किंगडम को ‘टेक बैक’ चाहने वाले ब्रिटिश राष्ट्रवाद के उदय के बीच वैचारिक हस्तांतरण दिखाई दे रहा है। यह नया चलन सिर्फ एंग्लो-सैक्सन दुनिया तक सीमित नहीं है। पूरे यूरोप में अप्रवासी विरोधी और लोकलुभावन दल जैसे जर्मनी में एएफडी और फ्रांस की नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी का उदय हो रहा है। रैली दिखाती है कि ये भावनाएं पूरे पश्चिम में जोर पकड़ रही हैं। ये रुझान मिलकर यह सवाल उठाते हैं कि क्या युद्ध के बाद की पश्चिमी राजनीति अब भी अपने आंतरिक संघर्षों को नियंत्रित कर पाएगी।
पश्चिम में सामाजिक समूहों के बीच बड़े पैमाने पर सशस्त्र संघर्ष भले ही अभी आसन्न न हों। लेकिन बढ़ते ध्रुवीकरण के बीच की बयानबाजी युद्ध की बातों जैसी होती जा रही है। ऐसे आंदोलन के गुरु स्टीव बैनन, अमेरिकी राजनीति को युद्ध के रूप में देखते हैं। वे उदारवादी अभिजात वर्ग और वैश्विकवादियों के खिलाफ हथियार उठाने का आह्वान करते हैं। इस तरह की भाषा किर्क की हत्या के बाद और तेज हो गई।
ट्रंप के एक अन्य वरिष्ठ सहयोगी, स्टीफन मिलर, संयुक्त राज्य अमेरिका के भीतर एक ‘आतंकवादी आंदोलन’ की चेतावनी देते हैं, जो विदेशी तत्त्वों की ओर से नहीं, बल्कि राजनीतिक विरोधियों की ओर से है। वे डेमोक्रेट पर दक्षिणपंथियों के खिलाफ आतंक फैलाने का आरोप लगाते हैं। भड़काऊ बयानबाजी से परे, पश्चिम में आज के गृह युद्ध तीन मोर्चे पर परस्पर विरोधी विचारधाराओं के इर्द-गिर्द घूमते हैं। ये हैं-मूल्य, आव्रजन और विदेश नीति।
आप्रवासन गृहयुद्धों की अग्रिम पंक्ति में है।
उदारवादी अपेक्षाकृत खुली सीमाओं के पक्षधर हैं, जो सस्ते श्रम में पूंजीवादी हितों की पूर्ति भी करते हैं। लोकलुभावनवादियों का तर्क है कि बड़े पैमाने पर खासकर अवैध-प्रवासन सार्वजनिक सेवाओं पर दबाव डालता है, वेतन कम करता है और सामाजिक एकता को नष्ट करता है। ‘ग्रेट रिप्लेसमेंट’ सिद्धांत, जो कभी हाशिये पर था, अब मुख्यधारा में आ गया है। यह आरोप लगाता है कि अभिजात वर्ग अपनी शक्ति को मजबूत करने के लिए जानबूझकर स्थानीय आबादी की जगह विदेशियों को ला रहा है। आप्रवासन के खिलाफ यह शिकायत, विनिर्माण क्षेत्र की नौकरियों को विदेशों में ‘आउटसोर्स’ करने और देश में श्रम को ‘इनसोर्स’ करने की उदारवादी नीतियों के प्रति आक्रोश से भी जुड़ी है। इन नीतियों को उलटना लोकलुभावन एजंडे के केंद्र में है।
तीसरा मोर्चा विदेश नीति है। उदारवादी वैश्वीकरण, बहुपक्षवाद, अंतरराष्ट्रीय कानून और लोकतंत्र व मानवाधिकारों के संवर्धन का समर्थन करते हैं। ये मानते हैं कि यूरोपीय संघ और नाटो जैसी संस्थाएं अस्थिरता के विरुद्ध आवश्यक सुरक्षा कवच हैं। लोकलुभावनवादी इस उदार अंतरराष्ट्रीयतावाद को अस्वीकार करते हैं। ‘अमेरिका फर्स्ट’ या ‘यूनाइट द किंगडम’ जैसे नारों के माध्यम से वे विदेशी उलझनों और गठबंधनों का विरोध करते हैं। दावा करते हैं कि वे नागरिकों के बजाय अंतरराष्ट्रीय अभिजात वर्ग की सेवा करते हैं।
यूएसएआइडी, एनपीआर और वायस आफ अमेरिका जैसी संस्थाओं को खत्म करने का ट्रंप प्रशासन का फैसला इस आरोप पर आधारित है कि करदाताओं के पैसे से चलने वाली ये संस्थाएं विदेशों में उदारवादी मूल्यों का प्रसार करती हैं। एमएजीए के नेता गैर-पश्चिमी सरकारों से भी ज्यादा जोरदार तरीके से जार्ज सोरोस द्वारा संचालित ‘एनजीओ-औद्योगिक परिसर’ की निंदा करते हैं।
चाहे ये तनाव व्यापक हिंसा में बदल जाएं या नहीं, साझा मूल्यों और संस्थाओं पर आधारित पारंपरिक उदार-लोकतांत्रिक आम सहमति लोकलुभावन असंतोष के कारण टूट रही है। पश्चिम के समाजों की स्थिरता अब सुनिश्चित नहीं है। क्या पश्चिमी उदार लोकतंत्र अपने भीतर बढ़ती खाई को पाट सकते हैं?
पश्चिम में, खासकर एंग्लो-सैक्सन दुनिया में, अपने विशाल प्रवासी समुदायों के साथ, भारत को इस नए आयाम पर बारीकी से ध्यान देने की जरूरत है। 1960 के दशक से ही भारतीय अभिजात वर्ग को पश्चिम की खुली सीमा नीतियों से काफी फायदा हुआ है, जिससे बड़ी संख्या में भारतीय पेशेवर और कुशल कामगार विदेशों में रोजी-रोटी कमा पाए हैं। कुछ लोकलुभावनवादी नाराजगी पहले ही भारत और उसके प्रवासी समुदायों के खिलाफ हो चुकी है। अभी इसके और भी बढ़ने की आशंका है।
लोकलुभावन वैश्वीकरण-विरोधी नीतियां और उनके प्रति उदार समायोजन, भारत को भी नुकसान पहुंचाएगी। देर से वैश्वीकरण करने वाले देश के रूप में, भारत (और दक्षिण एशिया) निर्यात-आधारित विकास के उन अवसरों से चूक गया, जिनका चीन सहित अन्य एशियाई देशों ने 20वीं सदी में दोहन किया था। आज, जब पश्चिम वैश्वीकरण से पीछे हट रहा है, भारत के सामने और भी कठिन विकल्प हैं। जो बाइडेन के कार्यकाल के दौरान, भारतीय अभिजात वर्ग लोकतंत्र और मानवाधिकारों पर पश्चिमी उदारवादियों के साथ विरोधाभासों को लेकर परेशान था। यही भारतीय प्रतिष्ठान के ट्रंप के प्रति उत्साह का एक कारण था। लेकिन अब भारत इस वास्तविकता को समझ रहा है कि आव्रजन और आर्थिक वैश्वीकरण के मुद्दे पर पश्चिमी लोकलुभावनवादियों के साथ उसके विरोधाभास और भी गंभीर हैं।
मानवाधिकारों पर उदारवादियों की तीखी प्रतिक्रिया शायद ही कभी उनके तीखेपन के बराबर रही हो, लेकिन लोकलुभावनवादी कम समय में ही वास्तविक नुकसान पहुंचा सकते हैं।आज पश्चिम के राष्ट्रों के बीच और उनके भीतर भी विभाजन है। इसलिए, भारत के राजनीतिक वर्ग और राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतिष्ठान को पश्चिम के विभिन्न राजनीतिक ढांचों के साथ और अधिक निकटता से व सूक्ष्म स्तर पर जुड़ना होगा। खास कर कूटनीतिक स्तर पर अपनी गतिविधि तेज करनी होगी।