प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव-2024 के लिए ‘विकसित भारत-2047’ का नारा दिया है। भारतीय जनता पार्टी (BJP) के शपथ पत्र को लेकर सोमवार (2 मार्च, 2024) को हुई मीटिंग में भी ‘विकसित भारत’ का मुद्दा केंद्र में रहा।

इस महत्वाकांक्षी नारे के जरिए भाजपा 2047 तक भारत को ‘विकसित देश’ बनाने का वादा कर रही है। ICRIER (Indian Council for Research on International Economic Relations) के प्रोफेसर अशोक गुलाटी का सवाल है कि क्या विकसित भारत में देश के किसान भी समृद्ध होंगे?

वह लिखते हैं, “हालांकि 2047 अभी भी 23 साल दूर है, और इस तरह के दीर्घकालिक अनुमानों तक पहुंचना बहुत मुश्किल है। लेकिन हम एक मोटा खांका बना सकते है। इसके लिए 1991 से शुरू हुए आर्थिक सुधार और उसके बाद की सरकार द्वारा किए काम को ध्यान में रखना होगा। लेकिन अधिक दिलचस्प यह होगा कि 2014 के बाद से नरेंद्र मोदी सरकार के तहत पिछले 10 वर्षों में विकास को देखें और इसकी तुलना मनमोहन सिंह सरकार के 10 वर्षों से करें। यह देखते हुए कि मौजूदा सरकार प्रचंड बहुमत के साथ वापसी को लेकर बहुत आश्वस्त है, संभव है कि वह अपनी 10 वर्ष की नीतियों को जारी रखे।”

विकसित भारत और किसान

मोदी सरकार में 10 वर्षों के दौरान कुल सकल घरेलू उत्पाद केवल 5.9 प्रतिशत और कृषि विकास दर 3.6 प्रतिशत रहा है। वहीं मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जीडीपी 6.8 प्रतिशत और कृषि विकास दर 3.5 प्रतिशत रहा है। गुलाटी मानते हैं कि कृषि-जीडीपी वृद्धि के संबंध में दोनों सरकारों के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं है।

गुलाटी लिखते हैं, “भारत के विकास के लिए कृषि महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें अभी भी लगभग 45 प्रतिशत कामकाजी आबादी शामिल है। इसलिए, यदि विकसित भारत को एक समावेशी भारत बनाना है, तो उसे अपनी कृषि को अपनी पूरी क्षमता से विकसित करना होगा। उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत है, पानी की खपत कम करने की जरूरत है, भूजल को फिर से रिचार्ज करने की जरूरत है, मिट्टी के क्षरण को रोकने की जरूरत है, और कृषि से ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन को कम करने की जरूरत है। वर्तमान में जो नीतियां हैं, उनके साथ 2047 तक समावेशी विकसित भारत के इस सपने को पूरा करना संभावना नहीं है।”

विकसित भारत में कृषि के लिए क्या एजेंडा होना चाहिए?

गुलाटी आगाह कर रहे हैं कि भारतीय कृषि कई तरह की मुसीबतों से गुजर रहा है। पुरानी नीतियों से नई किसानी की कोशिश हो रही है, जो कारगर साबित नहीं होगी। वह लिखते हैं, “विकसित भारत में भारतीय कृषि कमजोर और जोखिम भरी स्थिति में नहीं हो सकती। लगातार दो साल का सूखा विकसित भारत के उत्सव को गमगीन कर सकता है। सूखे के बिना भी, आरबीआई खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए लगभग पूरे वर्ष संघर्ष करता रहा है। भारत सरकार ने निर्यात पर नियंत्रण लगा दिया है, व्यापारियों पर स्टॉक की सीमा तय कर दी है और गेहूं और चावल को उनकी आर्थिक लागत से कम कीमत पर उतार दिया है। ये सभी घबराहट के संकेत हैं। 1960 के दशक के पॉलिसी टूलबॉक्स को विकसित भारत में नहीं चलाया जा सकता।”

अब सवाल उठता है कि समाधान क्या है? गुलाटी बताते हैं कि विकसित भारत में कृषि के लिए क्या एजेंडा होना चाहिए। वह लिखते हैं, “खाद्य और उर्वरक सब्सिडी को तर्कसंगत बनाना होगा, चेक डैम और वाटरशेड के माध्यम से मिट्टी और पानी के पुनर्भरण को बढ़ाना होगा, कृषि में पानी की बचत तकनीकों (ड्रिप और स्प्रिंकलर, फर्टिगेशन, संरक्षित खेती) को प्रोत्साहित करना होगा। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय कृषि में इसका ध्यान रखना होगा कि किन उत्पादों की जरूरत है और किसकी नहीं। इसके अलावा उच्च मूल्य वाली कृषि (मुर्गी पालन, मत्स्य पालन, डेयरी, फल और सब्जियां) की ओर बढ़ना होगा।”

कहीं सिर्फ शीर्ष 25 प्रतिशत के लिए न विकसित हो भारत?

आज हम जो जानते हैं वह यह है कि कृषि कुल सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 18 प्रतिशत का योगदान देती है, लेकिन इसमें 45 प्रतिशत कार्यबल शामिल है। यदि समग्र सकल घरेलू उत्पाद और कृषि-जीडीपी की हमारी वृद्धि दर पिछले 20 वर्षों या पिछले 10 वर्षों की तरह बढ़ती रही, तो संभावना है कि 2047 तक समग्र सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी घटकर केवल 7-8 प्रतिशत रह जाएगी। लेकिन तब भी देश का 30 प्रतिशत से अधिक वर्कफोर्स खेती-किसानी से जुड़े कामों पर ही निर्भर रहेगा। अधिक लोगों को कृषि से बाहर निकलकर बेहतर कौशल वाली उच्च उत्पादकता वाली नौकरियों की ओर जाने की जरूरत है। इसलिए, तेजी से बढ़ते और शहरीकरण वाले भारत के लिए ग्रामीण लोगों का कौशल निर्माण सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। अन्यथा मुझे डर है, विकसित भारत केवल शीर्ष 25 प्रतिशत आबादी के लिए विकसित रहेगा, जबकि शेष निम्न-मध्यम आय वर्ग में अटके रह सकते हैं।