जानेमाने तबला वादक उस्ताद जाकिर हुसैन का जन्म 9 मार्च, 1951 को मुंबई में हुआ था। उनके पिता का नाम उस्ताद अल्ला रक्खा कुरैशी और मां का नाम बीवी बेगम था। जन्म के डेढ़ दिन बाद बावी बेगम बेटे को उसके पिता की गोद में सौंपा। परंपरा के अनुसार उन्हें अपने बेटे के कानों में आशीर्वाद के कुछ शब्द कहने थे।
लेकिन उस्ताद अल्ला रक्खा कुरैशी ने अपने बेटे के कान में आर्शीवाद के बदले तबला के ताल गए। उन्होंने कहा, “यही मेरी प्रार्थनाएं हैं।” तब शायद जाकिर हुसैन के पिता को अंदाजा भी नहीं था कि उनका बेटा बड़ा होकर दुनिया भर में तबला का मास्टर बनेगा।
जाकिर हुसैन को तीन ग्रैमी अवार्ड मिल चुके हैं। आखिरी वाला तो पिछले माह (फरवरी) ही मिला था। इसके अलावा जाकिर हुसैन पद्मश्री, पद्मभूषण और पद्मविभूषण तीनों से सम्मानित किए जा चुके हैं। उन्हें 1990 में भारत के राष्ट्रपति के हाथों संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा भी उन्हें कई दर्जन राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय अवार्ड मिल चुके हैं।
पिता से मिली शुरुआती तालीम
जाकिर हुसैन के पिता उस्ताद अल्ला रक्खा अपने आप में म्यूजिक स्कूल थे। जाकिर हुसैन को शुरुआती तालीम अपने पिता से ही मिली। उन्होंने अपने बेटे को बचपन में ही अलग-अलग संगीत घरानों का फर्क समझा दिया था, तलब के साथ संतुलन बनाना सिखा दिया था। बाद में उन पर उस्ताद हबीबुद्दीन खाँ, ख़लीफ़ा वाज़िद हुसैन, कंठा महाराज, शांता प्रसाद जैसे दिग्गजों का प्रभाव पड़ा।
पिता ने जाकिर हुसैन को बताया था कि तबला सरस्वती होती है, इसलिए उसे कभी पैर नहीं लगना चाहिए। तमाम तरह के प्रिवलेज होने के बावजूद जाकिर हुसैन की जिंदगी में भी संघर्ष रहा। बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में जाकिर हुसैन ने बताया था कि उनका स्ट्रगल करीब 20-25 साल का रहा। वह करीब दस साल की उम्र से (1961-62 से) तबला बनाने लगे थे और पहचान उन्हें सत्तर के दशक के आखिर में मिली।
शुरुआती दिनों में वह ट्रेन के तीसरे दर्जे में सफर करते थे। उन दिनों उन्हें मुंबई से पटना, बनारस, कोलकाता जैसी जगहों पर जाने में तीन-तीन दिन लग जाते थे। सीट न मिलने पर अखबार बिछाकर नीचे बैठकर यात्रा करते थे।
बचपन में रसोई के बर्तन पलटकर धुन बजाने लगे थे हुसैन
बचपन में ही जाकिर हुसैन के जुनून के संकेत मिलने लगे थे। जाकिर हुसैन की जिंदगी पर ‘Zakir and His Tabla Dha Dhin Da’ नाम से किताब लिखने वाली संध्या राव द हिंदू को बताती हैं कि वह बचपन में कोई भी प्लेन जगह देखकर ऊंगलियों से धुन बजाने लगते थे। कभी वह अपनी मां के गाल पर तो कभी कुर्सी की बांह पर थाप देने लगते थे।
उनकी इस आदत से रसोई के बर्तन भी नहीं बचे थे। कभी तवा, तो कभी हांडी… जो उनके हाथ लग जाता, उसे बजाने लगते। इसी धुन में कई तो गलती से खाना रखे बर्तनों को भी पलट देते थें और उनके पूरे शरीर पर दाल सब्जी गिर जाती थी। एक बार वह ढोल बजाने के लिए अपने घर के पास से गुजरने वाले एक पठानी जुलूस में भी शामिल हो गए थे।
मुगल-ए-आज़म में सलीम बनने वाले थे जाकिर हुसैन
फिल्म निर्माता के. आसिफ चाहते थे कि जाकिर हुसैन उनकी फिल्म मुगल-ए-आजम (1971) में युवा सलीम की भूमिका के लिए ऑडिशन दें। कास्टिंग का अंतिम निर्णय होने से ठीक पहले, हुसैन के पिता ने अपना विरोध जताया और कहा कि वह फिल्मों में अभिनय नहीं कर सकते।
हालांकि, बाद में हुसैन ने जेम्स आइवरी की हीट एंड डस्ट (1983) और सई परांजपे की साज़ (1998) में अभिनय किया। हुसैन ने बर्नार्डो बर्तोलुची (लिटिल बुद्धा), अपर्णा सेन (मिस्टर एंड मिसेज अय्यर) और इस्माइल मर्चेंट (इन कस्टडी और द मिस्टिक मस्सेर) जैसे फिल्म निर्माताओं के लिए भी संगीत दिया।
मुंबई में पले-बढ़े होने की वजह से बचपन से जाकिर हुसैन का बॉलीवुड के प्रति आकर्षण था। उन्हें अभिनय का भी शौक रहा। हुसैन ने बीबीसी को बताया था, “मैंने कुछ फिल्मों और अमेरिकी टेलीविजन धारावाहिकों में काम किया है। मैंने ख़ुद को कई मौके दिए और इस नतीजे पर पहुंचा कि मैं अभिनेता की बजाय अच्छा तबला वादक हूं।”