1964 से 1966 के बीच भारत के दो प्रधानमंत्री पद पर रहते चल बसे थे। 1964 में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का निधन हुआ और 1966 में दूसरे पीएम लाल बहादुर शास्त्री नहीं रहे। इतने कम समय के भीतर दो बड़े नेताओं की रुखसती ने जाहिर तौर पर देश में नेतृत्व का संकट पैदा कर दिया था।

जिस तरह नेहरू के बाद प्रधानमंत्री के चयन की जिम्मेदारी कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज के कंधों पर थी, ठीक उसी तरह शास्त्री के बाद उन्हीं यह काम अपने हाथों में लेना पड़ा। लेकिन दिलचस्प यह है कि उन्होंने यह फैसला फ्लाइट में सोते हुए लिया था।

राजकमल प्रकाशन से छपी कुलदीप नैयर की आत्मकथा “एक जिन्दगी काफी नहीं” में इस किस्से का जिक्र मिलता है। वरिष्ठ पत्रकार रहे कुलदीप नैयर का निधन 23 अगस्त, 2018 को हुआ था।

चार्टर्ड प्लेन में नींद और प्रधानमंत्री का चयन

शास्त्री की मौत के बाद प्रधानमंत्री तय करने के उद्देश्य से के. कामराज एक चार्टर्ड प्लेन से दिल्ली के लिए रवाना हुए। उनके साथ उनके दुभाषिए आर. वेंकटरमन भी थे। कामराज के साथ वेंकटरमन तब से जुड़े थे, जब कांग्रेस अध्यक्ष मद्रास के मुख्यमंत्री के हुआ करते थे। इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की बात कामराज ने प्लेन में ही वेंकटरमन को बता दी थी।

कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “वेंकटरमन ने मुझे बताया कि विमान के उड़ान भरते ही कामराज सो गए थे। दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरने से 15 मिनट पहले उनकी आंख खुली थी तो वे बोले थे, ‘इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री होंगी।’ मानो उन्होंने नींद में ही इस प्रश्न को सुलझा लिया हो।”

क्या बताई थी वजह?

जब कुलदीप नैयर ने कामराज से जानना चाहा कि वे इस फैसले पर कैसे पहुंचे थे तो उन्होंने कहा, “सिर्फ इंदिरा गांधी और गुलजारी लाल नंदा में से किसी एक को चुनने की बात थी। मेरे सहकर्मी, खासकर एन. निजलिंगप्पा (जो तब मैसूर के मुख्यमंत्री थे) और एस.के. पाटील (जो बम्बई राज्य का प्रतिनिधित्व करते थे) नंदा के पक्ष में थे। लेकिन मुझे लगा कि वे इतने भ्रमित व्यक्ति थे कि वे देश को बर्बाद कर डालेंगे, इसलिए मैंने इंदिरा गांधी को चुनने का फैसला किया।”

कुछ क्षणों की खामोशी के बाद उन्होंने आगे जोड़ा, “सभी लोग मुझे इस फैसले के खिलाफ नसीहत दे रहे थे। कृष्ण मेनन ने भी कहा कि मुझे उन पर इतना भरोसा नहीं करना चाहिए। फिर भी मुझे लगा कि वे नंदा से बेहतर थीं।”

कुलदीप नैयर की आत्मकथा का आवरण

बाद में हुआ अफसोस

बाद में कामराज को लगा कि उन्होंने इंदिरा गांधी का नाम आगे कर गलती कर दी है। उनके मुताबिक, “इंदिरा सारी ताकत अपने पास रखना चाहती थीं। सामूहिक नेतृत्व उन्हें कतई पसन्द नहीं था।” इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद को सबसे ज्यादा पावरफुल बनाने के लिए पूरा जोर लगा दिया। जाहिर है ये सब करने के लिए उन्हें पुराने नेताओं से टक्कर लेनी पड़ी, जिससे वह पीछे नहीं हटीं।

कामराज क्यों नहीं बने पीएम?

तब कांग्रेस पार्टी के दिग्गज नेताओं को ‘ओल्ड गार्ड’ या ‘सिंडिकेट’ कहा जाता था। वरिष्ठ नेता चाहते थे कि प्रधानमंत्री उनमें से ही कोई बने। कामराज एक तरह से वरिष्ठों में सबसे उपर थे। फिर वह प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनें? इसका जवाब नैयर अपनी किताब में देते हैं, “कामराज ने टूटी-फूटी अंग्रेजी में मुझसे कहा था कि भारत के प्रधानमंत्री को हिंदी और अंग्रेजी दोनों आनी चाहिए। मुझे दोनों ही नहीं आतीं।”

हालांकि इस किस्से का एक दूसरा पहलू भी है, जो कामराज वर्षों पुराने सहयोगी और मद्रास के मुख्यमंत्री के रूप में उनके उत्तराधिकारी एम. भक्तावत्सलम ने नैयर को बताया था। भक्तावत्सलम ने नैयर से कहा था, “कामराज को डर था कि अगर मुकाबले की नौबत आई तो वे मोरारजी देसाई को नहीं हरा पाएंगे, जो उत्तर-पश्चिम के थे, लेकिन उत्तर प्रदेश की होने के कारण इंदिरा गांधी उन्हें आसानी से मात दे सकती थीं।”

के. कामराज की कहानी

भारत के राजनीतिक इतिहास में के. कामराज को एक चतुर राजनेता के रूप में याद किया जाता है। नेहरू के बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी को संभाला। लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह खुद दो बार मद्रास के मुख्यमंत्री रहे। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने शिक्षा क्षेत्र में ऐसा काम किया कि आज भी उनके जन्मदिन को पूरे तमिलनाडु में ‘एजुकेशन डेवलपमेंट डे’ के रूप में मनाया जाता है। विस्तार से पढ़ने के लिए फोटो पर क्लिक करें।