अर्जुन सेनगुप्ता
दुर्गा पूजा जितना धार्मिक त्योहार है, उतना ही मौज-मस्ती का मौका। आइए एक नजर डालते हैं आधुनिक दुर्गा पूजा के इतिहास पर और जानते हैं कि औपनिवेशिक शासन यानी ब्रिटिश काल के दौरान यह कैसे उभरा।
दुर्गा पूजा की शुरुआत की कई असत्यापित कहानियां हैं। तो कई दस्तावेजी इतिहास भी है। सबसे लोकप्रिय कहानी 1757 में प्लासी की लड़ाई के बाद की है। प्लासी की लड़ाई बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के बीच हुई थी। इस लड़ाई में ब्रिटिश सैनिकों का नेतृत्व रॉबर्ट क्लाइव ने किया था।
इस लड़ाई में सिराजुद्दौला की हार से भारतीय इतिहास की दिशा बदल गई। अंग्रेजों की जीत के बाद पहले बंगाल और अंततः पूरे उपमहाद्वीप पर ईस्ट इंडिया कंपनी की पकड़ मजबूत हुई। इस जीत ने क्लाइव को बहुत अमीर आदमी भी बना दिया।
अत्यधिक धार्मिक क्लाइव ने युद्ध मिली जीत का श्रेय अपने भाग्य और ईश्वर को दिया। क्लाइव अपने ईश्वर का धन्यवाद करने के लिए कलकत्ता में एक भव्य समारोह आयोजित करना चाहता था। लेकिन पूर्व नवाब ने शहर के एकमात्र चर्च को ढहा दिया था। क्लाइव के फ़ारसी अनुवादक और करीबी विश्वासपात्र नबाकिशन देब ने सुझाव दिया कि वह उनकी हवेली आएं और देवी दुर्गा को प्रसाद चढ़ाए – इस तरह कलकत्ता की पहली दुर्गा पूजा शुरू हुई।
देब की हवेली शोभा बाजार में थी, जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल के पर्यटन विभाग द्वारा संरक्षित है। आज भी वहां बोलचाल की भाषा में “कंपनी पूजा” कहा जाता है। हालांकि इस कहानी के दस्तावेजी साक्ष्य नहीं हैं। 1757 से पहले देब का क्लाइव को जानने का कोई रिकॉर्ड नहीं है, करीबी विश्वासपात्र होने की बात तो छोड़ ही दीजिए। एक गुमनाम पेंटिंग को छोड़कर, उस वर्ष वास्तव में पूजा होने का भी कोई सबूत नहीं है। जबकि शोभा बाजार पूजा निस्संदेह कलकत्ता में सबसे पुरानी है, इसकी मूल कहानी अत्यधिक संदिग्ध है।
बहरहाल, यह कहानी कलकत्ता में दुर्गा पूजा की समाजशास्त्रीय उत्पत्ति के लिए एक रूपक के रूप में कार्य करती है। सीधे शब्दों में कहें तो आधुनिक दुर्गा पूजा की उत्पत्ति का श्रेय बंगाली जमींदारों और व्यापारियों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच सांठगांठ को दिया जा सकता है।
अमीरों के धन प्रदर्शन का मौका होता था दुर्गा पूजा
बंगाल में कंपनी के शासन के साथ कई सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन आये। लोकल बंगाली कंपनी शासन का फायदा उठाकर तेजी से अमीर हुए। सबसे ज्यादा फायदा जमींदारों को मिला। मुगलों के पतन के बाद, बंगाल में जमींदार तेजी से मुखर हुए और प्रभावी ढंग से अपनी जागीर चलाने लगे। कंपनी ने जागीरदारों को अपने और मूल आबादी के बीच मध्यस्थ के रूप में माना।
इस बीच अमीर बंगाली व्यापारियों का भी एक वर्ग उभरा, खासकर कलकत्ता में। कंपनी के शासन के साथ इतने बड़े पैमाने पर आर्थिक अवसर आए जो पहले कभी नहीं देखे गए थे – कुछ लोग बहुत जल्दी बहुत अमीर हो गए। इस प्रकार टैगोर या मलिक जैसे बड़े व्यापारिक परिवार उभरे।
इतिहासकार तपन रायचौधरी ने ‘मदर ऑफ यूनिवर्स’ शीर्षक से एक निबंध लिखा है, जिसमें वह बताते हैं, “नए अमीरों के लिए दुर्गा पूजा धन के प्रदर्शन और साहबों (अंग्रेजों) के साथ मेलजोल का एक भव्य अवसर बन गई।”
रायचौधरी के अनुसार, “भक्ति के बजाय विशिष्ट उपभोग” इन त्योहारों का केंद्रीय उद्देश्य था। प्रतिद्वंद्वी अमीर व्यापारी परिवार यथासंभव भव्य पूजा की मेजबानी करने के लिए प्रतिस्पर्धा करते, मूर्तियों को सोने से सजाया जाता। लखनऊ और दिल्ली जैसे दूर-दूर के इलाकों से लड़कियों को बुलाकर काम पर रखा जाता। यहां तक कि ब्रिटिश गवर्नर-जनरल को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाता। रायचौधरी ने लिखा, “पूजा के दौरान… लोग जितना समय देवी को देखने में बिताते, उतना ही समय शॉपिंग करने में लगाते।” इस तरह, दुर्गा पूजा देवी की पूजा के साथ-साथ मौज-मस्ती करने का भी अवसर बन गई।
पूजा ने लिया राष्ट्रवादी मोड़
19वीं सदी के अंत तक बंगाली आबादी, विशेषकर शिक्षित बुद्धिजीवियों में राष्ट्रवाद की भावनाएं उभरीं। बंकिम का आनंद मठ 1882 में प्रकाशित हुआ था। आनंद मठ, 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के संन्यासी विद्रोह का एक काल्पनिक संस्करण था। उपन्यास ने ‘बंदे मातरम’ वाक्यांश को लोकप्रिय बनाया – जिसने ‘राष्ट्र’ की ‘मां’ के रूप में कल्पना को लोकप्रिय बनाया। इस प्रकार दुर्गा पूजा अचानक उभरते राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट का हिस्सा बन गया।
