जब कोर्ट ने कोई फैसला दे द‍िया तो वह सबके ल‍िए उपलब्‍ध दस्‍तावेज (पब्‍ल‍िक रिकॉर्ड) का ह‍िस्‍सा हो जाता है। यह मानते हुए क‍ि आरोपी बरी हो गया, उसे लेकर द‍िए गए फैसले को क‍िसी वेबसाइट से हटाए जाने का आदेश हाईकोर्ट कैसे दे सकता है? यह सवाल सुप्रीम कोर्ट के मुख्‍य न्‍यायाधीश डी.वाई. चंंद्रचूड़ (सीजेआई चंद्रचूड़) ने एक फैसले पर रोक लगाते हुए पूछा है।

सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़ की पीठ ने मद्रास उच्च न्यायालय के उस फैसले पर रोक लगा दी, जिसमें कानूनी खबरें देने वाले एक पोर्टल से उस फैसले को अपनी वेबसाइट से हटाने के लिए कहा गया था, जिसमें एक व्यक्ति को बलात्कार के मामले में बरी कर दिया गया था। सीजेआई ने कहा, “निर्णय सार्वजनिक रिकॉर्ड का हिस्सा हैं और अदालतों द्वारा उन्हें हटाने के आदेश के गंभीर प्रभाव होंगे।”

पीठ ने कहा कि यह मानते हुए कि एक व्यक्ति बरी हो गया है, “उच्च न्यायालय उसे (लॉ पोर्टल को) फैसले को रद्द करने का निर्देश कैसे दे सकता है? एक बार फैसला सुनाए जाने के बाद यह सार्वजनिक रिकॉर्ड का हिस्सा बन जाता है।” सीजेआई चंद्रचूड़ ने यह आदेश एक याच‍िका पर सुनवाई के ल‍िए मंजूर करते हुए सुनाया।

हाई कोर्ट ने पोर्टल की वेबसाइट से फैसले को हटाने के लिए कहा था

सुप्रीम कोर्ट मद्रास हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ इंडिया कानून पोर्टल द्वारा दायर एक अपील पर सुनवाई कर रहा था। हाई कोर्ट ने पोर्टल को अपनी वेबसाइट से फैसले को हटाने के लिए कहा था। उच्च न्यायालय का फैसला कार्तिक थियोडोर नाम के एक व्यक्ति की याचिका पर आया था। उन्‍होंने सार्वजनिक डोमेन से उस फैसले को हटाने की मांग की थी जहां उसे आरोपी लिखा गया था। मामले में फैसला आने के बाद वह दोषमुक्‍त करार द‍िया गया था।

इस दौरान सीजेआई चंद्रचूड़ की पीठ आरोपी शख्‍स के ‘राइट टू बी फॉरगॉटन (Right to be Forgotten)’ से जुड़े मसले पर भी व‍िचार करने के ल‍िए राजी हुई है। CJI डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ मद्रास उच्च न्यायालय के 3 मार्च के आदेश के खिलाफ इंडिया कानून की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। विवादित आदेश में कहा गया है कि हालांकि अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि वे डेटा को कोर्ट रिकॉर्ड के रूप में संरक्षित करें लेकिन ऐसे डेटा के संग्रह और किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा के बीच संतुलन बनाना भी आवश्यक है।

उच्च न्यायालयों के फैसले विरोधाभासी

याचिकाकर्ता के वकील अपार गुप्ता ने कहा कि राइट टू बी फॉरगॉटन के मुद्दे पर उच्च न्यायालयों के फैसले विरोधाभासी हैं। जबकि केरल और गुजरात उच्च न्यायालयों का मानना ​​है कि ऐसा कोई अधिकार नहीं है, वहीं मद्रास हाई कोर्ट का विवादित आदेश इसके विपरीत कहता है। वकील ने इस बात पर जोर दिया कि विभिन्न उच्च न्यायालयों के विरोधाभासी फैसलों से कानून का वास्तविक सवाल उभर रहा है। इसे स्वीकार करते हुए सीजेआई ने इस मुद्दे पर विस्तार से विचार करने की आवश्यकता पर टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि हमें कानून सेटल करना होगा। कोर्ट ने याचिका पर नोटिस जारी करते हुए मद्रास हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी।

क्या है Right to be Forgotten?

राइट टू बी फॉरगॉटन (Right to be Forgotten) को अनुच्छेद 21 के तहत निजता के अधिकार (Right to Privacy) का एक हिस्सा माना जाता है। यह कुछ परिस्थितियों में किसी व्यक्ति की निजी जानकारी को इंटरनेट सर्च इंजन और अन्य जगहों से हटाने का अधिकार है। यह अधिकार कुछ विशेष परिस्थितियों में एक व्यक्ति को अधिकार देता है कि उसके बारे में ऐसा डेटा हटा दिया जाए जिससे उसका अपमान होता हो या नाम खराब होता हो ताकि इसे तीसरे पक्ष द्वारा, विशेष रूप से सर्च इंजनों के माध्यम से खोजा न जा सके।

लोकसभा स्पीकर ओम बिरला की बेटी से जुड़े पोस्ट हटाने का आदेश

हाल ही में ऐसा ही एक मामला लोकसभा स्पीकर ओम बिरला की बेटी के केस में भी सामने आया था जहां उन्हें कोर्ट का रुख करना पड़ा। अंजलि बिरला ने दिल्ली हाईकोर्ट से मांग की थी कि सोशल मीडिया पर उनके बारे में की गई पोस्टस को हटाया जाए। अंजलि बिरला भारतीय रेलवे कार्मिक सेवा (आईआरपीएस) अधिकारी हैं। पिछले दिनों अंजलि बिरला को लेकर कुछ सोशल मीडिया पोस्ट्स में आरोप लगाया गया था कि उन्होंने अपने पिता के ओहदे और प्रभाव के रहते अपने पहले ही प्रयास में संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षा पास कर ली थी।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को Google और X को अंजलि बिरला के खिलाफ ऐसे पोस्ट हटाने का आदेश दिया जिनमें दावा किया गया था कि उन्होंने अपने पिता ओम बिरला के प्रभाव का इस्तेमाल कर यूपीएससी की परीक्षा पास की है। जस्टिस नवीन चावला की एकल-न्यायाधीश पीठ ने अंजलि बिरला के मानहानि मुकदमे की सुनवाई करते हुए यह आदेश पारित किया।