सर तेज बहादुर सप्रू देश के सर्वश्रेष्ठ कानूनविदों में एक थे। ऐसा माना जाता है कि यदि उन्होंने खुद को केवल कानून के एकेडमिक पक्ष में लगाया होता, तो वे होल्ड्सवर्थ (कानून के इतिहासकार) या मैटलैंड (कानून के इतिहासकार) या डाइसी (ब्रिटिश जज और कानून के सिद्धांतकार) होते।

सप्रू फ़ारसी और उर्दू के महान विद्वान थे। एक बार एक केस की सुनवाई के दौरान सप्रू और मोहम्मद अली जिन्ना का आमना-सामना हुआ था। हैदराबाद की बात है। सप्रू के सामने जिन्ना बहस करने वाले थे। कोर्ट में वकीलों से अदालत की सुविधा के लिए फारसी में लिखे एक दस्तावेज को पढ़ने का अनुरोध किया गया।

जिन्ना को फारसी नहीं पढ़नी आती थी। सप्रू ने पूरे दस्तावेज़ को धाराप्रवाह पढ़ा। इस घटना से सनसनी मच गई। अगले दिन अखबारों ने हेडलाइन लगाया: ‘पंडित जिन्ना और मौलवी सप्रू’। सप्रू उर्दू में भी उतने ही पारंगत थे। जब मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद ने उर्दू में एक किताब प्रकाशित की, तो उन्होंने सप्रू से प्रस्तावना लिखने का अनुरोध किया।

जब भारत के आज़ादी का मुकदमा लड़ने वाले वकील की फाड़ दी गई नोट्स

भूलाभाई देसाई का जन्म गुजरात के एक मामूली सरकारी वकील के घर हुआ था। देसाई वकील के साथ-साथ स्वतंत्रता सेनानी भी थे। उन्होंने भारत की आजादी के लिए जिरह किया था।

नवंबर, 1945 में जब अंग्रेजों ने लाल किले (दिल्ली) में सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों के खिलाफ राजद्रोह का केस चलाया था, तो नेहरू ने भूलाभाई देसाई को आगे किया था। सैनिकों को बचाने के लिए नेहरू ने एक डिफेंस कमेटी और कमेटी की अध्यक्षता भूलाभाई देसाई को सौंप दी।

चीफ डिफेंस काउंसिल के रूप में देसाई ने सामने से जिरह कर रहे थे और तेज बहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू और डॉ केएन काटजू जैसे दिग्गज उनकी मदद कर रहे थे।

आज़ाद हिन्द फ़ौज के शाहनवाज खान, प्रेम सहगल और गुरबख्श ढिल्लों पर अंग्रेज राजद्रोह का केस चला रहे थे। अंग्रेज ये साबित करना चाहते थे कि ये सैनिक ब्रिटिश सेना का हिस्सा थे, जो युद्ध के दौरान जापानी सेना में शामिल हो गए और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा।

देसाई ने दलील दी कि दूसरे देशों की आजादी के लिए लड़ने से पहले भारतीयों को खुद आजाद होना पड़ेगा। लाइव लॉ में प्रकाशित वकील संजोय घोष के लेख के मुताबिक, “देसाई ने शाह नवाज खान गवाही की याद दिलाई, जिसमें उन्होंने कहा कि जब उन्हें राजा और देश के बीच चुनने को मजबूर होना पड़ा तो उन्होंने देश को चुना।”

देसाई ने बहुत चतुराई से राजद्रोह के आरोपी सैनिकों को आजादी के लिए लड़ने वाले योद्धा के रूप में बदल दिया। अपनी दलील से उन्होंने अंग्रेजी शासन को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था। तबीयत बिगड़ने के बावजूद उन्होंने दो दिनों तक बिना रुके 10-10 घंटे बहस की। इस दौरान उन्होंने न नोट्स देखे, न कोई मदद ली। उनकी याददाश्त जबरदस्त थी।

इसकी वजह शायद यह थी कि एक युवा वकील के रूप में देसाई को एक कानूनी दिग्गज जेडी इनवेरारिटी से सबक मिला था। तब उन दिनों की है, जब देसाई युवा वकील हुआ करते थे। वह बार की लाइब्रेरी में बैठकर नोट्स लेने में जुटे हुए थे। इनवेरारिटी वहां पहुंचे, उन्होंने पहले तो नोट्स को देखा, फिर फाड़ दिया। इनवेरारिटी ने कहा, “अपनी याददाश्त पर भरोसा करना सीखें।” बाद के दिनों में देसाई को उनकी फोटोग्राफिक मेमोरी के लिए जाना जाने लगा।

आज़ाद हिन्द फ़ौज मामले में बुरी तरह हारने के बावजूद अंग्रेजों ने 31 दिसंबर, 1945 को तीनों सैनिकों को राजद्रोह का दोषी पाया। हालांकि अंग्रेजों ने जनता का मूड भांपते हुए सैनिकों को फांसी की सजा न देकर, कालापानी की सजा दी।

मुस्‍ल‍िम चीफ जस्‍ट‍िस नहीं बन पाया तो नेहरू को सता रही थी च‍िंंता- पाक‍िस्‍तान क्‍या सोचेगा?

कभी भारतीय न्यायपालिका में काबिलियत से अलावा धर्म, जाति और क्षेत्र के आधार भी नियुक्ति हुआ करती थी। वर्तमान सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ के बेटे वकील अभिनव चंद्रचूड़ ने अपनी क‍िताब ‘सुप्रीम ह्व‍िस्‍पर्स’ (Supreme Whispers) में इस तरह के कई किस्सों को दर्ज किया है। 

किताब के मुताबिक, शुरू में सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम जज के लिए कम से कम एक सीट सुरक्षित रखी जाती थी। 1960 के दशक में जब जस्‍ट‍िस इमाम मानस‍िक समस्या की वजह से CJI नहीं बन सके और उनकी जगह पी.बी. गजेंद्रगडकर ने ली तो प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को चिंता सताने लगी थी कि पाकिस्तान क्या सोचेगा? (विस्तार से पढ़ने के लिए फोटो पर क्लिक करें)

Traditions in Judiciary
एडवोकेट अभिनव चंद्रचूड़ ने अपनी किताब ‘Supreme Whispers’ में बताया है कि कैसे सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति धर्म, जाति और क्षेत्र के आधार पर होती रही है। (Express photo)