सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अपने फैसले में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के ल‍िए आरक्षण के अंदर आरक्षण देने की इजाजत दी। इस मुद्दे पर अपनी राय देते हुए जस्टिस पंकज मित्तल ने अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के भीतर सब-क्लासिफिकेशन पर बहुमत के दृष्टिकोण से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि भारत में जाति-आधारित आरक्षण एक जाल की तरह है जो वास्तविक समानता को बढ़ावा देने के बजाय विभाजन को बढ़ाता है।

जस्टिस ने भारत में जाति-आधारित आरक्षण नीति की आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने मौजूदा प्रणाली एक जाल की तरह वास्तविक समानता को बढ़ावा देने के बजाय विभाजन और निर्भरता को कायम रखती है। जस्टिस मित्तल ने एक परिवार के भीतर पहली पीढ़ी तक आरक्षण के लाभ को सीमित करने की भी वकालत की। इसके पीछे उन्होंने तर्क दिया कि एक बार एक परिवार को आरक्षण से लाभ हुआ है तो बाद की पीढ़ियों को इसके लिए पात्र नहीं होना चाहिए। उन्होंने सुझाव दिया, इससे आरक्षण में निहित स्वार्थ को रोका जा सकेगा और यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि सामाजिक न्याय नीतियों का लाभ अधिक व्यापक रूप से वितरित हो।

जाति-आधारित आरक्षण के मूल आधार पर सवाल उठाते हुए जस्टिस ने खेद व्यक्त किया कि संविधान का विजन एक जातिविहीन समाज के लिए था फिर भी आरक्षण नीति ने अनजाने में जाति विभाजन को खत्म करने के बजाय और मजबूत कर दिया।

‘संविधान को अपनाने के साथ हमने जातिविहीन समाज बनाने की कोशिश की’

जस्टिस पंकज मित्तल ने कहा, “संविधान को अपनाने के साथ हमने जातिविहीन समाज बनाने की कोशिश की लेकिन दलित और पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए सामाजिक कल्याण के नाम पर, हम फिर से जाति व्यवस्था के जाल में फंस गए।”

न्यायमूर्ति मित्तल ने कहा कि हमने समानता लाने के लिए दलित या पिछड़े वर्ग या अनुसूचित जाति को आरक्षण का विशेषाधिकार दिया।

‘किसी भी वर्ग को खुश करने के लिए एक बार जो लाभ दे दिया जाता है उसे वापस नहीं लिया जा सकता’

आरक्षण प्रणाली की आलोचना करते हुए न्यायाधीश ने कहा, “किसी भी वर्ग को खुश करने के लिए एक बार जो लाभ दे दिया जाता है उसे वापस नहीं लिया जा सकता है, तो क्या संविधान के तहत आरक्षित श्रेणी के व्यक्तियों को लाभ दिया जाता है। एक बार दी गई प्रत्येक रियायत गुब्बारे की तरह फूलती चली जाती है। आरक्षण की नीति के साथ भी वास्तव में ऐसा ही हुआ।”

जस्टिस पंकज ने कहा कि आरक्षण ओबीसी/एससी/एसटी की मदद करने या उनकी स्थिति को ऊपर उठाने के तरीकों में से एक है, लेकिन कोई भी तथाकथित दलित वर्गों या दलित या समाज के हाशिए पर रहने वाले व्यक्तियों की मदद करने का कोई अन्य या बेहतर तरीका सुझाता है तो उसे “दलित विरोधी” के रूप में प्रचारित किया गया।

आरक्षण नीतियों के कारण फैली सामाजिक अशांति

पिछले कुछ सालों में आरक्षण नीतियों के कारण फैली सामाजिक अशांति का जिक्र करते हुए पंकज मित्तल ने 1990 में मंडल आयोग विरोधी प्रदर्शनों और 2006 में आरक्षण के खिलाफ छात्रों के आंदोलनों के दौरान हुई व्यापक हिंसा को याद किया। न्यायाधीश के अनुसार, ये घटनाएं संकेत थीं कि आरक्षण नीतियों ने भारतीय समाज के भीतर जो गहरे विभाजन पैदा किए हैं।

न्यायमूर्ति मित्तल ने आगे कहा कि आरक्षण नीति का उद्देश्य सबसे वंचितों का उत्थान करना है लेकिन इससे बड़े पैमाने पर उन लोगों को लाभ हुआ है जो पहले से ही पिछड़े वर्गों के भीतर अपेक्षाकृत समृद्ध या शहरी हैं।

जस्‍ट‍िस म‍ित्‍तल की ट‍िप्‍पणी को इत‍िहास के उदाहरणों के संदर्भ में देखें तो बात और स्‍पष्‍ट होती है। अदालतों ने जब भी आरक्षण से जुड़ी नकारात्‍मकता पर चोट की, व‍िधाय‍िका ने उसे पलट द‍िया। ऐसे कुछ उदाहरण देखें

दोरारीराजन (1951) में एक ब्राह्मण लड़की की याचिका पर, जिसने मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए आवेदन भी नहीं किया था, मद्रास उच्च न्यायालय ने आरक्षण नीति को रद्द कर दिया। जब सुप्रीम कोर्ट ने भी दोरारीराजन मामले में आरक्षण को रद्द कर दिया, तो जवाहरलाल नेहरू ने तुरंत संविधान में संशोधन करके और अनुच्छेद 15 में खंड (4) डालकर यह स्पष्ट कर दिया कि सरकार के पास किसी भी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े नागरिकों के लिए या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष प्रावधान लागू करने की शक्ति होगी।

इंद्रा साहनी (1992) मामला

इंद्रा साहनी (1992) मामले में, जिसमें 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण को चुनौती दी गई थी, नौ न्यायाधीशों की पीठ ने आरक्षण पर कानून बनाया। कोर्ट ने कहा कि भविष्य में प्रमोशन में आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता। उस समय कांग्रेस सरकार ने पदोन्नति के मुद्दे पर इंद्रा साहनी केस के फैसले को पलटने के लिए 77वां संविधान संशोधन लाया।

81वें संवैधानिक संशोधन ने कैरी फॉरवर्ड के फैसलों को पलट दिया और राज्य को अधूरे पदों को एक अलग श्रेणी के रूप में मानने की अनुमति दी ताकि आरक्षण पर 50 प्रतिशत की ऊपरी सीमा आड़े न आए। अनुच्छेद 335 में 82वां संवैधानिक संशोधन राज्य को एससी और एसटी की पदोन्नति के मामलों में किसी भी परीक्षा में क्वालिफ़ाइंग मार्क्स या अन्य स्टैंडर्ड्स में छूट देने का अधिकार देने के लिए पारित किया गया था।

वीरपाल सिंह चौहान (1995) मामला

वीरपाल सिंह चौहान (1995) मामले में और उसके बाद अजीत सिंह (1999) मामले में पांच न्यायाधीशों की पीठ के माध्यम से न्यायालय ने “कैच-अप नियम” पेश किया जिसके तहत एससी/एसटी उम्मीदवारों के बाद पदोन्नत किए गए सामान्य उम्मीदवार, पहले पदोन्नत किए गए एससी/एसटी उम्मीदवारों की तुलना में वरिष्ठता हासिल कर लेंगे।

परिणामस्वरूप, इन निर्णयों को पलटने और एससी/एसटी उम्मीदवारों को वरिष्ठता देने के लिए भाजपा सरकार की पहल पर 85वां संवैधानिक संशोधन पारित करना पड़ा। पिछले हफ्ते इस कानून के विरोध में आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की एनडीए सरकार ने सामान्य उम्मीदवारों की वरिष्ठता बहाल कर दी।

संशोधनों को सामान्य उम्मीदवारों द्वारा चुनौती

उपरोक्त संशोधनों को कई सामान्य उम्मीदवारों द्वारा चुनौती दी गई जिसके परिणामस्वरूप एम नागराज (2006) का फैसला आया जिसमें न्यायालय ने संशोधनों की संवैधानिकता को बरकरार रखा। हालाँकि, इसने कुछ दिलचस्प टिप्पणियाँ कीं। जैसे- एससी/एसटी आरक्षण का बचाव तीन संवैधानिक आवश्यकताओं पिछड़ापन, सार्वजनिक रोजगार में उनके प्रतिनिधित्व की कमी और प्रशासन की ओवरऑल एफ़िशियेन्सी के आधार पर किया गया था।

एम नागराज फैसले के बाद कई उच्च न्यायालयों ने इन तीन बिंदुओं पर पदोन्नति में कोटा रद्द कर दिया। हालांकि अनुच्छेद 341 के तहत राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित किए जाने पर एससी के पिछड़ेपन को ध्यान में रखा गया था, नागराज ने गलती से पिछड़ेपन को साबित करने के लिए डेटा के संग्रह पर जोर दिया। विडंबना यह है कि नागराज मामले में किसी भी याचिकाकर्ता ने दलितों के पिछड़ेपन पर विवाद नहीं किया था।

जरनैल सिंह (2017) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नागराज के पिछड़ेपन को साबित करने के लिए डेटा के संग्रह को खारिज कर दिया। दविंदर सिंह मामले में बहुमत से चार न्यायाधीशों ने एससी और एसटी की क्रीमी लेयर को आरक्षण से बाहर करने का समर्थन किया। न्यायमूर्ति गवई और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ ने भी इसका समर्थन किया। जस्टिस मित्तल ने कहा कि आरक्षण एक पीढ़ी तक ही सीमित रहना चाहिए और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा ने इस विचार का समर्थन किया। हालांकि, अशोक ठाकुर (2008) मामले में, शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि एससी/एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर सिद्धांत की कोई प्रासंगिकता नहीं है।

तो क्‍या सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के मद्देनजर भी सरकार पुराना इत‍िहास दोहराएगी? यह सवाल इसल‍िए भी उठ रहा है क्‍योंक‍ि सत्‍ताधारी भाजपा ने अभी इस बारे में अपना आध‍िकार‍िक रुख साफ नहीं क‍िया है। उसकी सहयोगी पार्ट‍ियोंं की राय एक नहीं है। लोजपा (आर) के प्रमुख च‍िराग पासवान ने सुप्रीम कोर्ट से पुनर्व‍िचार की अपील करने की बात कही है। टीडीपी फैसले के पक्ष में है। कई दल‍ित संगठन इसके व‍िरोध में हैं। ऐसे में फैसले का असर अभी द‍िखना बाकी है।