भारतीय ग्रंथों के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम इसी भारतभूमि पर अवतरित हुए और श्रीकृष्ण भी। श्रीराम और श्रीकृष्ण हमारे आराध्य हैं, लेकिन पता नहीं ऐसा क्यों होता है कि हम अपने स्‍वार्थ और समय के अनुसार इन अवतारों का मूल्यांकन करने लगते हैं। आस्था के इन अवतारों को ‘स्वांतः सुखाय’ के लिए नहीं, स्वार्थ के लिए उपयोग करने लगते हैं। जबकि, आस्था के इन प्रकाश पुंजों को हम हृदय में धारण करते हैं, क्योंकि धर्म वही है, जो धारण करने योग्य है। इन्हें हम भारतीय अपने हृदय, आचरण, आचार-विचार में धारण करते हैं, लेकिन जब व्यावसायिक कार्य के लिए इनका उपयोग करने लगते हैं, तो इससे हम स्वयं को ठगने के साथ समाज को भी दिग्भ्रमित करने लगते हैं। यही आज हमारे नेतागण कर रहे हैं। वे समाज को जानबूझकर शब्दजाल में उलझाकर, अपने हित के लिए लोगों को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। कुछ दिनों से जनता को अपने पाले में करने के लिए राजनीतिज्ञों द्वारा जिस प्रकार उनकी आस्थाओं को धर्म के नाम पर भ्रमित किया जा रहा है, उसे देखकर सामान्य व्यक्ति अफसोस ही जता सकता है।

पिछले कुछ चुनावों से कभी बजरंगबली, कभी श्रीराम, कभी श्रीकृष्ण के नाम पर गुमराह करके अपने पक्ष में मतदान करने की शपथ दिलाई जाती है। चूंकि हमारा समाज अभी पूर्ण शिक्षित नहीं है, इसलिए समाज के कम पढ़े—लिखे लोग उनकी बातों में आस्था के नाम पर उनके पक्ष में आकर अयोग्य से अयोग्य व्यक्ति को सत्ता सौंपने का रास्ता बना देते हैं। ईश्वर को बीच में लाना, हिंदू-मुस्लिम, हिंदुस्तान-पाकिस्तान करना तो सत्तारूढ़ भाजपा का परम कर्तव्य’ रहा है, लेकिन कांग्रेस नेता आचार्य प्रमोद कृष्णम कहां इसमें शामिल हो गए? वह कहते हैं, कांग्रेस में कुछ नेता राम मंदिर ही नहीं, राम से भी नफरत करते हैं। राम से नफरत करने वाले ऐसे लोग चुनावी लाभ लेने के लिए करते हैं।’

यह बात समझ में नहीं आती कि आखिर इन पांच राज्यों के चुनाव के बीच इस तरह की बात करने की जरूरत कांग्रेसी नेता को क्यों पड़ गई? मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को बीच में लाकर हम किसलिए जनता को गुमराह करना चाहते हैं? राम का जन्म अयोध्या में हुआ, इससे कौन इनकार कर सकता है, लेकिन इस बात को बार—बार कहना, इसको और जीवंत करता है कि हमारे इन नेताओं के मन में कितनी कुंठा है मुसलमानों के प्रति। हम उन्हीं श्रीराम की बात करते हैं, जिन्होंने राजहित के लिए अपनी राजगद्दी भाई के लिए छोड़ दी। लेकिन, अब हम किस श्रीराम की बात करते हैं? क्या हमारा समाज यह चाहता है कि राम के नाम पर फिर से 1992 वाली स्थिति बने?

इधर, प्रमोद कृष्णम की बात को बल देते हुए भाजपा से असम के मुख्यमंत्री बने हिमंत विश्व सरमा ने निशाना साधा और कहा कि कांग्रेस को हिंदुओं का समर्थन नहीं चाहिए। मुख्यमंत्री ने कहा कि एक खास वोट बैंक के डर से कांग्रेस को श्री राम से एलर्जी है। इसका प्रमाण है कि चुनाव से पहले आपको उसके नेता और तथाकथित हनुमान भक्त श्रीराम जन्मभूमि को छोड़कर हर मंदिर में जाते हुए दिखेंगे। पता नहीं, वे कब रामलला के दर्शन करने आएंगे। अभी कुछ दिन से यह प्रचारित किया जा रहा है कि हिंदू धर्म खतरे में है। अब यह बात समझ से परे है कि हिंदू धर्म असुरक्षित भी है और खतरे में किस प्रकार है? न तो इस तरह की बातें जैन धर्मावलंबी करते हैं, न सिख, न बौद्ध, न ईसाई- फिर हिंदू अपने ही देश में असुरक्षित और खतरे में किस प्रकार है? सच तो यह है कि इस प्रकार के नारे और विचार मतदाताओं को लुभाने और उन्हें दिग्भ्रमित करने के लिए केवल राजनीतिज्ञ ही करते हैं। ऐसे राजनीतिज्ञ हिंदू-मुस्लिम, अगड़े-पिछड़े के बीच समाज में दरार पैदा करके अपना हित साधते हैं। इसी का परिणाम है कि आज समाज में घोर भय का माहौल बन गया है।

इतना ही नहीं, अब तो स्थिति यह बन गई है कि सर्वोच्च न्यायालय से भी हस्तक्षेप करने के लिए याचिका दायर की जाने लगी है। याचिका में हिंदू धर्म की सुरक्षा के लिए दिशा-निर्देश देने की मांग की गई, लेकिन माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस याचिका को सुनने से इनकार कर दिया। लेकिन, क्या इससे श्रीराम, श्रीकृष्ण के नाम पर जनता को गुमराह करने वाले नेता बाज आएंगे?

याद कीजिए ऐसा आज से कुछ वर्ष पहले नहीं था, लेकिन पिछले दस वर्ष से जनता को कितना डराया गया, उन्हें लोभ देकर कितना ठगा गया, ऐसा भी इसके पहले कभी भी अपने देश में नहीं हुआ था। पता नहीं, धर्म के नाम पर लूट मची है। इसमें भागीदार नेताओं से कौन और कब निजात दिलाएगा।

यहां इस बात को दोहराना आवश्यक है कि किस प्रकार कोई यह सोच सकता है कि अब हम भारतवर्ष को हिंदू राष्ट्र बनाएंगे? यह राजनीतिज्ञों द्वारा जनता को गुमराह करने का नारा है और प्रश्न यह भी है कि आखिर हिंदू राष्ट्र क्यों? भारतीय संविधान जिन मूर्धण्य विद्वानों द्वारा तैयार किया गया, क्या आज के राजनीतिज्ञ उनसे अधिक दूरदर्शी हैं? जो आज इस नारे से देश की जनता को प्रलोभन देकर अपना वोट बैंक बनाना चाहते हैं? उन्होंने आजादी के दीवाने उन मुसलमानों के लिए सोचा, जिनका नाम इंडिया गेट दिल्ली और गेटवे ऑफ इंडिया मुंबई के ऊपर लिखा हुआ है? क्या इन ऐतिहासिक निशानों को गिराकर उन मुसलमान शहीदों के नाम मिटा दिए जाएंगे?

वैसे, हिंदू विचारकों का मानना है कि लगभग एक हजार वर्ष की मुगलों की गुलामी से पहले भारतवर्ष हिंदू राष्ट्र था। लेकिन, क्या आज के परिवेश में यह संभव है कि भारत फिर से हजार वर्ष पीछे की स्थिति में आकर हिंदू राष्ट्र बन जाए? यह कैसे संभव हो सकता है? क्या हम भारत में रहने वाले 22 करोड़ मुसलमानों को देश से बाहर फेंक देंगे या उन्हें समुद्र में डुबो देंगे? क्या देश के पुनर्निर्माण में उनके योगदान को इतिहास से मिटा देंगे? क्या ‘सारे जहां से अच्छा…’ का नारा देने वाले अल्लामा इकबाल, ‘भारत छोड़ो’ का नारा देने वाले यूसुफ मेहर अली, ‘जयहिंद’ का नारा देने वाले आबिद हसन सफरानी के नाम को इतिहास से मिटा देंगे?

कई प्रश्न हैं, जिन्हें समझने के लिए हमें उनसे तर्क करने की जरूरत है। यदि ऐसे तथाकथित हिंदू राष्ट्रवादियों का मुंह बंद नहीं किया गया, तो फिर हमें गृहयुद्ध के लिए तैयार हो जाना चाहिए। लेकिन, हां देश अब समझ चुका है कि यह अब और अधिक दिन नहीं चलेगा। लोग समझने लगे हैं कि मंद‍िर बना कर बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी से छुटकारा नहीं मिल जाएगा। न ही इससे युवाओं को रोजगार मिल जाएगा। इसलिए हिंदू राष्ट्र का स्वप्न दिखाना केवल मतदाताओं को गुमराह करने का एक जुमला ही है, और कुछ नहीं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)